नि:शब्द हूँ पढकर कि एक पुरुष स्त्री की इस पीड़ा को इतनी गहराई से समझता देखता और परखता है
कि उसमें विश्व की हर स्त्री की पीड़ा समा जाती है | आपकी लेखनी को मेरा नमन | काश!!!
पुरुषसत्तात्मक समाज इसे पढ़े और महसूस करे स्त्री के इस दुःख को ताकि हर रोज़, हर घर में स्त्री
प्रताड़ना से बच जाए और समय के मुंह पर कालिख लगे चेहरे को लिखने से इतिहास भी बच सके|
हर स्त्री की तरफ से आपका आभार |
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सुनो ताड़का !
क्या भाग्य पाया था तुमने.
तुम्हारे पिता-
यक्षराज सुकेतु ने तो इतनी तपस्या की थी-
बेटा पाने के लिये.
पर मिली तुम-
अतीव सुंदर, हजार हाथियों के बल वाली.
पर थी तो एक बेटी ही न !
और उसने असुर-राज सुन्द से तुम्हारा
विवाह करके हाथ धो लिया.
और सब संतोषी
अवाँछित बेटियों की तरह
तुम उसी में मगन हो गयी.
दो सुन्दर बेटे मिले- मारीच और सुबाहु-
चंचल, नटखट, प्यारे.
सुनो ताड़का,
बच्चे नटखट ही अच्छे लगते हैं-
मारीच और सुबाहु भी नटखट ही थे-
बाल हनुमान की तरह.
वे भी ध्यान लगाए मुनियों को छेड़ते थे.
पर हनुमान,
वे थे पवन देव के पुत्र !
शंकर के बेटे,
कपिराज केसरी के राजदुलारे,
उनकी सजा थी-
बस अपना बल भूल जाना-
और वह भी, मात्र याद दिलाये जाने तक.
सुनो ताड़का,
मारीच और सुबाहु,
असुर की संतान थे-
सो उनकी सजा थी-
"जा राक्षस हो जा-
और मरे हुए जानवर खाकर भूख मिटा".
और सुन्द ने अगस्त्य से बस यही तो जानना चाहा था-
कि बाल -सुलभ क्रीड़ा की इतनी भयंकर सजा क्यों?
एक असुर का इतना दुस्साहस !
भला कैसे बर्दास्त करते अगस्त्य ?
ऋषि समाज में क्या सम्मान रह जाता उनका?
सो सुन्द को भस्म करके,
उन्होंने अपना सम्मान बचा लिया.
और तब जागा था तुम्हारा क्रोध-
और इतनी सारी पीड़ा से
तुम भूल गयीं-
तुम एक औरत ही तो थी-
शायद तुम उनके आगे गिड़गिड़ाती,
उनसे अपने पति के प्राणों की भीख माँगती,
उनसे अपने बच्चों के भविष्य के लिये
चिरौरी करती,
तो शायद कुछ हो भी सकता था.
पर तुम,
एक विधवा औरत,
एक असुर की व्याहता-
इतने महान ऋषि से बदला?
अरे उन्हें न तो विंध्याचल की ऊंचाई
अच्छी लगती थी
और न सागर की गहराई-
वे कैसे बर्दास्त करते-
एक अदना सी औरत का यह साहस?
"जा कुरूप हो जा,
जा राक्षसी हो जा,
जा बेटों के साथ, मुर्दा जानवर खा !"
यही था ऋषिराज अगस्त्य का न्याय !
यही था तुम्हारा भाग्य !
और सब अवाँछित बेटियों का
भाग्य ऐसा ही तो होता है!
और तब आये थे विश्वामित्र,
राम और लक्ष्मण को लेकर-
राम तो नहीं चाहते थे
एक स्त्री को मारना.
याद है न-
तभी तो विश्वामित्र ने
उन्हें समझाया था,
" क्षत्रिय नहीं मार सकता,
पुरुष नहीं मार सकता-
पर राजा एक स्त्री को मार सकता है !"
और तुम मारी गयीं.
सुनो ताड़का,
जानती हो न-
सीता की अग्नि-परीक्षा
और राम के द्वारा उनके त्यागे जाने
की भूमिका उसी दिन बनी थी
जब राम से तुम्हें मरवाया गया था.
सुनो ताड़का,
पुरुष न तो
प्रेम की परीक्षा लेता है,
और न प्रेम का त्याग करता है.
किन्तु.
स्त्री का पति, स्त्री का स्वामी,
स्त्री का राजा होता है न,
सो वह,
उसकी अग्नि परीक्षा भी ले सकता है,
और कर सकता है
उसका त्याग भी !
ओ अवाँछित बेटी,
ओ प्रताड़ित नारी,
अरी ताड़का,
जानती हो न,
कि तुम्हारा प्रारब्ध
आज सारे विश्व पर छा गया है.
सुनो ताड़का,
इस देश की सब अवाँछित बेटियाँ-
तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारे दुर्भाग्य
और तुम्हारी त्रासदी को
बहुत अच्छी तरह से
समझती हैं.
सुनायी पड़ रहा है न
उन सबका समवेत रुदन,
सुनो ताड़का,
सुनो.
.........प्रेषिता
गीता पंडित
(सम्पादक शलभ प्रकाशन दिल्ली)
2/20/18
2 comments:
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (21-02-2018) को
"सुधरा है परिवेश" (चर्चा अंक-2886) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आप सबका आभार। सादर प्रणाम।
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