Sunday, July 24, 2016

मदारी मूवी पर एक प्रतिक्रिया ..गीता पंडित

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'मदारी' फ़िल्म देखी और चकित थी कि वह छोटे बजट की फ़िल्म होते हुए भी बड़ी फ़िल्म होने का परिचय दे रही थी | साफ-सुथरी मूवी बिना किसी हंगामे के समय की आँख में आँख डालकर देखती है और सिस्टम के खिलाफ़ मुस्तैदी से खड़ी ही नहीं होती अपितु प्रश्न करती है | प्रश्न करके चुप नहीं बैठती, जवाब भी हासिल करती है वो भी अपनी शर्तों पर |
 
आम आदमी की बात करती है | आम समस्याओं से उलझती ही नहीं सुलझाती भी है और सुलझाने के तरीके भी इजाद करती चलती है |
 
स्कूल के दिनों में पढ़ी एक कहानी लकड़ियों के बण्डल वाली याद आयी और वह संदेश भी जिसे उस कहानी ने दिया और इस फ़िल्म ने भी 'यूनिटी इज स्ट्रेंग्थ यानि एकता में शक्ति है |' आम आदमी जाति धर्म भाषा में बंटा हुआ अपने अस्तित्व को नहीं पहचान पाता वर्ना क्या मजाल कि चंद लोग देश के नुमाइंदे बन जाएँ और उसकी किस्मत का फैसला करें |
 
असलमें यह फ़िल्म समय की चुप्पी को तोडती है और सिस्टम को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करती है |
 
निशिकांत कामत जो पहले भी फ़ोर्स और मुम्बई मेरी जान जैसी फिल्में डायरेक्ट कर चुके हैं , इस बार सोशल थ्रिलर बनाकर हमारे दिल पर छा गए |
इरफ़ान खान एक बोर्न एक्टर हैं इसलिए हमेशा ही उम्दा एक्टिंग करते हैं , यहाँ भी ऐसा ही है | जिम्मी शेरगिल छोटा सा चरित्र लेकिन दमदार |
 
इस मूवी को देखकर एक और मूवी याद आती रही जो आम आदमी पर बनी विशेष मूवी थी 'वेडनेसडे' जो ट्रेन एक्सीडेंट पर आप आदमी के आक्रोश को लेकर थी और यह 'मदारी' फ़िल्म एक पुल के टूटने पर आम आदमी के आक्रोश की कहानी है | यह मसाला मूवी नहीं है |
म्युज़िक है जो गाहे-बगाहे चलता रहता है और इरफ़ान खान यानि एक पिता के दुःख में दुखी मन उसके साथ हो लेता है |
ऐसी फिल्म्स और भी बननी चाहियें ताकि सिस्टम को अपनी भूल का अहसास हो | भ्रष्टाचार कम हो | सिस्टम की जवाबदारी हो और आम आदमी जिसकी पीठ पर खड़े होकर वह अट्टहास करता है उसकी बोलती बंद हो | 
 

गीता पंडित
७/२५/16


 
 

1 comment:

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

उम्दा समीक्षा .. पर ऐसी फिल्मे आम दर्शको का स्नेह नही पाती ये एक अफ्सोसोजनक बात है