स्त्री जो आधी आबादी है अगर पीड़ा का पर्याय बनकर रह जाए तो क्या उसे यही बने
रहना चाहिए या संघर्ष करना चाहिये अपने सुख के लिए, प्रसन्नता के लिए, उपयोगिता के
लिए और सबसे बड़ी बात अपने अस्तित्व के लिए ? यह बड़ा भारी प्रश्न था स्त्रियों के
सम्मुख जो सुप्तावस्था में निरंतर चल रही थीं| सुबह से संध्या तक अपने परिवार के
लिए काम कर रही थीं खुश होकर, मग्न होकर, प्रसन्न होकर बिना किसी गिले-शिकवे के,
बिना किसी शिकायत के |
लेश मात्र भी थकान उनके चहरे पर दिखाई नहीं देती थी फिर भी उनका मूल्यांकन
नहीं| वे सबकी परवाह करतीं लेकिन उनकी परवाह करने वाला कोई नहीं | उनके दुःख-दर्द
सुनने वाला कोई नहीं |
अपितु सुनाने के लिए तंज थे, भद्दी-भद्दी मोटी-मोटी गालियाँ थीं, देह की तुडाई
थी और साथ में था एक तमगा चिपका हुआ-
‘औरत हो, तुम्हारा काम ही घर-गृहस्थ संभालना है |’
यानि घर सम्भालो बस | सपने देखने का, कामनाएं पालने का अधिकार नहीं | स्त्री
मात्र देह बन गयी| सदियाँ चुप्पी में बदल गयीं लेकिन मन का गर्भाशय सहेजता रहा
उन्हें चुपके-चुपके|
और एक दिन समय ने करवट बदली| मौसम ने अंगड़ाई ली तो स्त्री की चुप्पी भी शब्द
पाने के लिए बेताब हो उठी| सपने सतरंगी होकर खुले आकाश में उड़ने के लिए हाथ-पाँव
चलाने लगे| इच्छाएं गर्भ धारण करने लगीं जिनके वशीकरण का मंत्र अब ना तो स्त्री के
पास था और ना ही पितृ-सत्तात्मक समाज के पास | अंतत: चौका चूल्हा संभालते-संभालते रसोई
में छौंका लगाने वाली स्त्रियों की उंगलियाँ कलम चलाने लगीं, की बोर्ड पर फिसलने
लगीं|
‘तुम समय की नोक पर /मन मेरे लिखना कहानी
लेखनी लिखना नयन में / है भरा जो आज पानी’
अब वे लिख रही थीं ना केवल अपने सपने, अपना मन, अपनी पीड़ा बल्कि घर-परिवार
सारे समाज की चिंता, देश-विदेश की समस्याएं| विश्व के हर पहलू पर उनकी लेखनी तेजी
से चल रही थी चाहे वह राजनैतिक हो धार्मिक हो या सामाजिक| कवि अनामिका की ‘ओढ़नी’
कविता का एक अंश-
अपने वजूद की माटी से
धोती थी रोज इसे दुल्हन
और गोदी में बिछा कर सुखाती थी
सोचती सी यह चुपचाप-
तार-तार इस ओढ़नी से
क्या वह कभी पोंछ पाएगी
खूंखार चेहरों की खूंखारिता
और मैल दिलों का?
धोती थी रोज इसे दुल्हन
और गोदी में बिछा कर सुखाती थी
सोचती सी यह चुपचाप-
तार-तार इस ओढ़नी से
क्या वह कभी पोंछ पाएगी
खूंखार चेहरों की खूंखारिता
और मैल दिलों का?
अब वे देह नहीं थीं| वे गढ़ने लगीं नये-नये उपमान, रचने लगीं एक नयी दुनिया
जहां वे इंसान थीं| जहां उनकी देह उनकी अपनी थी, उनके अपने अधिकार में थी | जहां
सेक्स पर खुलकर लिखना उनकी स्वतंत्रता थी | जहां हंसने-बोलने कहने–सुनने की आज़ादी
थी |
फेसबुक, ट्वीटर, लिंकदिन, ब्लोग्स उनके लिए जरूरी हो गए |
घर के आँगन से निकलकर मंच. गोष्ठियां और साहित्यिक क्रियाकलाप प्रमुख हो गए |
जिस पितृ-सत्तामक समाज में श्वास तक लेना एक चुनौती था वहां कलम का उठाना और
भी बड़ी चुनौती बन गया |
जहां ‘ढोल, गवार, शूद्र, पशु नारी कहकर अपमानित किया गया|
‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आंचल में है दूध और आँखों में पानी’
कहकर प्रताणित किया गया वहां लेखनी के माध्यम से स्वयं को सबला लिखते हुए वे
आत्म-गौरव से परिपूर्ण होने लगीं|
लेखन ने न केवल उनका आत्म सम्मान लौटाया अपितु रीढ़ की हड्डी सीधी कर चलने की
शक्ति भी प्रदान की |
क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है| नाक सिकोड़ने वाले कम नहीं, इल्ज़ाम लगाने
वाले ढेरों, बोल्डनेस से लेकर अश्लीलता तक की आलोचनाएँ आम बात लेकिन स्त्री ने
डरना छोड़ दिया है |
संस्कारों की आड़ में स्त्री का दोहन करते हुए समाज की नाक में नकेल डालने का
काम उनका लेखन बखूबी कर रहा है |
आज स्त्रियों का लेखन कुरीतियों का, रूढ़ियों का खंडन करते हुए एक सतर्क और सजग
राष्ट्र के निर्माण में सहयोगी साबित हो रहा है | चरमरा रही हैं शोषण की दीवारें| ढह
रही है पितृ-सत्तात्मक बंधन की प्रणाली|
लेखन के बहाने वे अपने आप से प्रेम करना सीख रही हैं |
चार दीवारी की हद से बाहर निकलकर सूरज से आँख मिलाने की काबलियत वे अपने लेखन
से पा रही हैं | आज बॉय फ्रेंड से लेकर प्रेमी तक, महावारी से लेकर सम्भोग तक खुले
आम लिखना और छिपे दबे हर विषय पर चर्चा व विचार-विमर्श करना उनके लिए आम शगल हो गया है | कवि अनामिका
की कविता ’प्रथम स्त्राव स्राव’ से
‘लगातार झंकृत हैं
उसकी जंघाओं में इकतारे
चक्रों सी नाच रही है वह
एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए
सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया’
उसकी जंघाओं में इकतारे
चक्रों सी नाच रही है वह
एक महीयसी मुद्रा में
गोद में छुपाए हुए
सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया’
लेखन ने स्त्रियों को न केवल देह से आज़ाद किया अपितु मन की विरासत भी उपहार
में दी है | वो स्त्रियाँ जिन्होंने अपने मन को सात तहों में बंदकर चुप्पी साध ली
थी, आज अपने मन की सुनने लगी हैं, कहने लगी हैं | जन्मों से चिपके हुए होठों को
शब्द मिले हैं| वह प्रश्न करना और उत्तर देना जान गयी हैं |
लेखन ने उन्हें एक नई पहचान तो दी ही, साथ ही साथ उनका स्वयं से भी परिचय
कराया, अपनी योग्यता को परखने और एन्जॉय करने के अवसर प्रदान किये जो जीवन की सबसे
बड़ी उपलब्धी है, सार्थकता है |
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्त्री सामज की धुरी है | वह सृष्टा है, सर्जक है
| उसकी सार्थकता समाज की सार्थकता है इसलिए स्त्री का सशक्तिकरण समाज और राष्ट्र
का शक्तिशाली होना है |
जहां तक संभावनाओं की बात है चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियाँ हों, अब
स्त्रियों का लेखन बिना किसी अवरोध के निरंतर चलता रहेगा|
असलमें लेखन उनके लिए वह जगह है जहां वे श्वास लेती हैं तो बिना लेखन के श्वास
नहीं और बिना श्वास के जीवन संभव नहीं|
जीना है तो निरंतर लिखना है | अब उन्हें मृत्यु स्वीकार नहीं |
गीता पंडित
8 मार्च 16
4 comments:
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर बहुत अच्छी प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-03-2016) को "आठ मार्च-महिला दिवस" (चर्चा अंक-2276) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " औरत होती है बातूनी " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
very Nyc article
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