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शाम
इक बात बताओ
रंग सारे
कैसे पहन लेती हो तुम
एक साथ, एक ही लिबास में
ख़ुशबू सारे फूलों की
कैसे महका देती हो तुम
एक साथ, एक ही गहरी साँस में
गीत सारे पंछियों के
कैसे गुनगुना देती हो तुम
एक साथ, एक ही मुस्कुराहट में
शाम
मिलकर मुझसे
जब पुकारती हो मुझे "सुनो"
प्रेम सारी दुनिया का
कैसे समेट लेती हो तुम एक साथ,
एक ही शब्द में..
बताओ न
बताओ तो !
......
नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका कौमार्य
साथ बहता है उसका कौमार्य
नदी का प्रस्फुटन उसके प्रेम का प्रस्फुटन होता है
नीला रंग नदी का रंग नहीं
वो आसमान का पागलपन है, नदी के प्रति
वो आसमान का पागलपन है, नदी के प्रति
संगीत नदी का अंतर्मन है
जो मछली कहलाता है
जो मछली कहलाता है
सूर्य शान्ति की ख़ोज में निकला एक साधू
सूर्यास्त उसका समर्पण
सूर्यास्त उसका समर्पण
नदी के अपने विद्रोह हैं जड़ों के प्रति
जो नदी के मोड़ कहलाते हैं
जो नदी के मोड़ कहलाते हैं
नदी का पार्दर्शिपन
आत्मा है नदी की
आत्मा है नदी की
चंद्रमा स्वयं का विसर्जन करता है
नदी की प्रेम यात्रा में
जो स्वप्न कहलाता है
नदी की प्रेम यात्रा में
जो स्वप्न कहलाता है
नदी की धाराएँ, उसकी प्रार्थनाएं हैं
और उनसे उद्घटित ध्वनियाँ
मंत्रोच्चारण
और उनसे उद्घटित ध्वनियाँ
मंत्रोच्चारण
गहरे तल में लुड़कते पत्थर
नदी के सहयात्री हैं
नदी के सहयात्री हैं
समाधि की ओर
धरती का हरापन
नदी से मिले संस्कार हैं
नदी से मिले संस्कार हैं
नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका अल्हड़पन
नदी बहती है
प्रस्फुटन को अपनी देह में समेटे
साथ बहता है उसका अल्हड़पन
नदी बहती है
प्रस्फुटन को अपनी देह में समेटे
बहाव
नदी की उत्सुक तपस्या है
अपने प्रेम के प्रति
नदी की उत्सुक तपस्या है
अपने प्रेम के प्रति
नदी अकेली नहीं बहती
उसके साथ बहता है
दुनिया का समूचा उतावलापन
उसके साथ बहता है
दुनिया का समूचा उतावलापन
नदी का बहना, नदी का प्रेम है
वो कभी अकेली नहीं बहती
समुद्र की ओर..
समुद्र की ओर..
.......
शाम
इक बात बताओ
रंग सारे
कैसे पहन लेती हो तुम
एक साथ, एक ही लिबास में
ख़ुशबू सारे फूलों की
कैसे महका देती हो तुम
एक साथ, एक ही गहरी साँस में
गीत सारे पंछियों के
कैसे गुनगुना देती हो तुम
एक साथ, एक ही मुस्कुराहट में
शाम
मिलकर मुझसे
जब पुकारती हो मुझे "सुनो"
प्रेम सारी दुनिया का
कैसे समेट लेती हो तुम एक साथ,
एक ही शब्द में..
बताओ न
बताओ तो !
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अकेला पहाड़,
कभी पहाड़ नहीं होता
जब तक नहीं बहती उस पर
अपना अधिकार जताती,
कोई उन्मादिनि नदी..
कभी पहाड़ नहीं होता
जब तक नहीं बहती उस पर
अपना अधिकार जताती,
कोई उन्मादिनि नदी..
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मैं खोल देना चाहता हूँ
अपना रोम-रोम,
अपनी त्वचा, मांस..
अपनी हड्डी की एक-एक मोटी परत
और निकल जाना चाहता हूँ बाहर..
निकल जाना चाहता हूँ यात्रा पर..
अपना रोम-रोम,
अपनी त्वचा, मांस..
अपनी हड्डी की एक-एक मोटी परत
और निकल जाना चाहता हूँ बाहर..
निकल जाना चाहता हूँ यात्रा पर..
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प्रेषिका
गीता पंडित
6 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज मंगलवार (27-08-2013) को मंगलवारीय चर्चा ---1350--जहाँ परिवार में परस्पर प्यार है , वह केवल अपना हिंदुस्तान है
में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut sundar kavitayen .. saurabh ji ko badhai.. geeta ji ka aabhar
बहुत सुंदर रचनाएँ ...आभार ।
bahut sunder rachnaye. please is blog me mujhe apni racnaye bhejne ke liye kya karna hoga, path prashast karen....-vivek
nice poems. how can i write on this Blog, please guide.
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने....
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