.....
.......
आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाईज़ को परेशान किया जाए॥
बे-लर्जिश-ए-पा मस्त हो उन आँखो से पी कर
यूँ मोह-त-सीबे शहर को हैरान किया जाए॥
हर शह से मुक्क्दस है खयालात का रिश्ता
क्यूँ मस्लिहतो पर इसे कुर्बान किया जाए॥
मुफलिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़रो पर ये ऐलान किया जाए॥
वो शक्स जो दीवानो की इज़्ज़त नहीं करता
उस शक्स का चाख-गरेबान किया जाए॥
पहले भी 'कतील' आँखो ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुकसान किया जाए॥
........
.......
यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो
मोर चकोर पपीहा कोयल सब को मात करो
मोर चकोर पपीहा कोयल सब को मात करो
सावन तो मन बगिया से बिन बरसे बीत गया
रस में डूबे नग़्मे की अब तुम बरसात करो
रस में डूबे नग़्मे की अब तुम बरसात करो
हिज्र की इक लम्बी मंज़िल को जानेवाला हूँ
अपनी यादों के कुछ साये मेरे साथ करो
अपनी यादों के कुछ साये मेरे साथ करो
मैं किरनों की कलियाँ चुनकर सेज बना लूँगा
तुम मुखड़े का चाँद जलाओ रौशन रात करो
तुम मुखड़े का चाँद जलाओ रौशन रात करो
प्यार बुरी शय नहीं है लेकिन फिर भी यार "क़तील"
गली-गली तक़सीम न तुम अपने जज़बात करो |
गली-गली तक़सीम न तुम अपने जज़बात करो |
.............
प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेरुख़ी इससे बड़ी और भला क्या होगी
एक मुद्दत से हमें उस ने सताया भी नहीं
एक मुद्दत से हमें उस ने सताया भी नहीं
रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो "क़तील" और वो इक आम सा शख़्स
उसने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं |
उसने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं |
...........
आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाईज़ को परेशान किया जाए॥
बे-लर्जिश-ए-पा मस्त हो उन आँखो से पी कर
यूँ मोह-त-सीबे शहर को हैरान किया जाए॥
हर शह से मुक्क्दस है खयालात का रिश्ता
क्यूँ मस्लिहतो पर इसे कुर्बान किया जाए॥
मुफलिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़रो पर ये ऐलान किया जाए॥
वो शक्स जो दीवानो की इज़्ज़त नहीं करता
उस शक्स का चाख-गरेबान किया जाए॥
पहले भी 'कतील' आँखो ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुकसान किया जाए॥
........
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे|
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे|
...........
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह |
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह |
...........
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है |
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है |
......
प्रेषिका
गीता पंडित
( कविता कोश से साभार )
3 comments:
जंगारी जेबाँ नूर लिए है समंदर का पानी..,
ये इक निगाहे अंदाज है इन्तहाई बेमानी.....
कतील जी के तो क्या कहने....
Bahut Khub!
Post a Comment