वैदेही का महाप्रयाण __
गत हुई प्रदोषा, मिटा सघन नैशान्धकार,
खोला प्राची ने बालारुण -रवि -रश्मि -द्वार,
खगकुल कलरव कर उठा, हुआ सुन्दर प्रभात
सम्प्रति साकेत स्वरूप दिव्य रस अमृत-स्नात।
फिर हुआ यज्ञमंडप में नूतन समारोह,
सुविशाल, अलौकिक दिव्य अनिर्वचनीय ओह!
सुर-नर-किन्नर-गंधर्व पधारे सब सत्वर-
हो गई बृहद एकत्र सभा तत्क्षण-सुन्दर।
तदनन्तर आए मंद-मंद गति रघुनन्दन,
था म्लान परम सम्प्रति सुन्दर अम्भोज-वदन,
बैठे सुन्दर-मख वेदी पर अभिराम राम-
गम्भीर सिंधु-सम, चिंता-मय वपु जलद श्याम।
जनसिंधु हुआ किंचित आंदोलित तदुपरान्त,
गम्भीर स्तब्धता छाई जन-रव हुआ शान्त,
फिर दृग उठ गये प्रवेश-द्वार की ओर त्वरित-
देखा सबने वाल्मीकि महाऋषि को विस्मित।
जो शनैः शनैः आ रहे आदि कवि उसी ओर,
जन लगे देखने मुनिवर को श्रद्धा-विभोर।
धीरे-धीरे पीछे-पीछे ऋषि के सीता,
आ रही अहो! कौशल नरेश की परिणीता।
करुणा की प्रतिमा, कुशरूपा, वल्कल-वसना
उज्जवल सतीत्व से दीप्तिवन्त, विनम्र वदना,
हो रहे उदित थे काल प्रबल गति से प्रेरित,
विधु-मुखमंडल पर चिन्ह वृद्धता के किंचित,
कुम्ह्लाया वह, विधुवदन परिस्थित राहु ग्रसित-
जन-जन मन आंदोलित कर करने लगा व्यथित।
उनको विलोक सुर-नर-किन्नर-गंधर्व-ग्राम-
श्रद्धा-विभोर हो उठे, किया सादर प्रणाम।
कौशलपति कातर मुख से वसुमति को निहार,
रह गए ठगे से भूले मुनि-स्वागत-विचार,
कर उठा कहा ऋषिवर ने किंचित हो सरोष-
रघुनन्दन के समीप आकर घनघोर घोष -
"दूषण जित, त्रिभुवनशिरोरत्न, रघुकुलभूषण!
मर्यादा पुरुषोत्तम, लोकोत्तम अघमर्षण!
हे शौर्य-धैर्य-सदगुण आकर राघव महान!
अब भी तुम माँग रहे वैदेही से प्रमाण!
तुमने अपयश भय से पतिप्राणा सीता का,
गर्भिणी और असहाया निज परिणीता का,
इस दिव्य सती का- निर्ममता उर धर अपार-
कर दिया त्याग ले अग्नि परीक्षा एक बार।
पुनरपि सतीत्व का तुम प्रमाण माँगते आज!
सब के आगे! समवेत जहाँ विस्तृत समाज -
तो हे राघव! मैं अंजलि में ले गंगाजल -
सीता सतीत्व का स्वयं प्रमाण बना अविचल।
है सतत साधना की मैने तप किया घोर,
पर, सीता के तप आगे वह तप है विभोर,
वैदेही का तप सतत निरन्तर अविकल क्रम-
है मम तप से भी अधिक दिव्यतम लोकोत्तम!
यदि किंचित भी अत्युक्ति और हो अतिरंजित
मम वचन, प्रभू! मम निखिल साधना कर खंडित
तो आप मुझे दें रौरव का अति दंड घोर-
मेरे तप का फल नष्ट भ्रष्ट होवे अथोर।
गंगा जल धारा धारण कर्ता शिवशंकर,
निज रौद्र नयन से भस्म करं वह प्रलयंकर।"
इतना कहकर हो गये मौन मुनि-साधक वर-
सम्पूर्ण सभा में साधुवाद का गूँजा स्वर।
"जय-जय जगदम्बा जनक नंदनी जय सीता!"
सम्पूर्ण सभा में गूँज उठी गौरव गीता।
विह्वल से हो श्री राम, चरण में गिर अतिशय -
मुनिवर से बोले - "देव क्षमा कीजे अविनय।"
"कल्याण तुम्हारा हो", कह कर आशीर्वचन
बोले मुनिवर वैदेही को कर सम्बोधन -
"हे पुत्रि! तुम्हें भी यदि प्रमाण हित कुछ कहना
तो कहो आज रघुकुलमणि से, मत चुप रहना।"
सुन वाल्मीकि आदेश मचा फिर आंदोलन,
जन-जन के अंतर्मन में करुणा हुई सघन,
लख बिलख उठे यह दृश्य सुलक्षण श्री लक्ष्मण -
चाहा पुनरपि लें पकड़ जानकी चारु चरण।
हो उठे भरत, मर्माहत, औ' रिपुदमन नयन
हो गए सजल ज्यों घिर आए हों सावन घन,
चाहा पद-रज छू कर करें क्षमायाचना तथा -
अभिव्यक्त करें माता से अपनी मनोव्यथा।
कौसल्या माता हृदय लगाने को अधीर -
हो उठीं, दौड़कर जाना चाहा भीड़ चीर,
चीत्कार कर उठी सकल प्रजा, रो उठी धरा -
नयनों से झरझर निर्झर-सा जल सतत झरा।
चाहा सबने - 'चाहिए नहीं हमको प्रमाण,
अपराध क्षमा हो देवि! कीजिए क्षमादान'
पर लेशमात्र भी किया नहीं अवसर प्रदान-
सीता ने, वसुमति को सम्बोधित कर निदान -
यह कहा मन्द स्वर से करुणा से ओत-प्रोत
निस्पन्दित-सा करता अन्तर तल जन-स्रोत -
"मा वसुन्धरे! तुम क्षमा मूर्ति हो परम अचल!
पतिव्रत में रही तुम्हारे-सम यदि मैं अविचल,
पतिविमुख स्वप्न में भी न रही यहि वैदेही,
परपुरुष-ध्यान यदि किया न मैंने वैसे ही-
तो मुझे हृदय में अपना लो माँ, आज धाम,
अपने भीतर दो माँ, मुझको अंतिम विराम।
जिस से लज्जा-मर्यादा मैं रख सकूँ अचल,
मैं पी न सकूँगी और घोर अपवाद गरम,
तुम हो माँ, अशरण शरण, अकिंचन की सम्बल -
मुझ दीन-हीन-अबला को लो माँ, निज अंचल।
मैं कौशलेश की वधु माँगती भीख आज,
रख लो माता मेरी मर्यादा और लाज,
मैं जाऊँ अब किश ठौर निराश्रित निराधार -
ले लो माँ, मुझ दुखिया को निज आंचल पसार।"
सुन वैदेही सीता का यह करुणा क्रन्दन,
सकरुण कातर औ, दैन्यपूर्ण यह आवेदन,
विस्फोट भयंकर हुआ अलौकिक प्रलयंकर -
हो गया विदीर्ण धैर्य-प्रतिभा भू का अन्तर।
भूधर डोले, डोला अचला का भी आसन
भूकम्प हुआ इस भाँति हुआ भीषण गर्जन,
पृथ्वी ने खंडित हो फैला अंचल सादर
सीता को अपना लिया, दिया सिंहासनवर।
हो गई धरा में लीन धरा-तनया सीता,
रह गई देखती सकल प्रजा हतप्रभ सीता,
यों समा गई धरती में धरती की कन्या -
यश-सिंहासन-आसीन रहेगी वह धन्या। ....
खोला प्राची ने बालारुण -रवि -रश्मि -द्वार,
खगकुल कलरव कर उठा, हुआ सुन्दर प्रभात
सम्प्रति साकेत स्वरूप दिव्य रस अमृत-स्नात।
फिर हुआ यज्ञमंडप में नूतन समारोह,
सुविशाल, अलौकिक दिव्य अनिर्वचनीय ओह!
सुर-नर-किन्नर-गंधर्व पधारे सब सत्वर-
हो गई बृहद एकत्र सभा तत्क्षण-सुन्दर।
तदनन्तर आए मंद-मंद गति रघुनन्दन,
था म्लान परम सम्प्रति सुन्दर अम्भोज-वदन,
बैठे सुन्दर-मख वेदी पर अभिराम राम-
गम्भीर सिंधु-सम, चिंता-मय वपु जलद श्याम।
जनसिंधु हुआ किंचित आंदोलित तदुपरान्त,
गम्भीर स्तब्धता छाई जन-रव हुआ शान्त,
फिर दृग उठ गये प्रवेश-द्वार की ओर त्वरित-
देखा सबने वाल्मीकि महाऋषि को विस्मित।
जो शनैः शनैः आ रहे आदि कवि उसी ओर,
जन लगे देखने मुनिवर को श्रद्धा-विभोर।
धीरे-धीरे पीछे-पीछे ऋषि के सीता,
आ रही अहो! कौशल नरेश की परिणीता।
करुणा की प्रतिमा, कुशरूपा, वल्कल-वसना
उज्जवल सतीत्व से दीप्तिवन्त, विनम्र वदना,
हो रहे उदित थे काल प्रबल गति से प्रेरित,
विधु-मुखमंडल पर चिन्ह वृद्धता के किंचित,
कुम्ह्लाया वह, विधुवदन परिस्थित राहु ग्रसित-
जन-जन मन आंदोलित कर करने लगा व्यथित।
उनको विलोक सुर-नर-किन्नर-गंधर्व-ग्राम-
श्रद्धा-विभोर हो उठे, किया सादर प्रणाम।
कौशलपति कातर मुख से वसुमति को निहार,
रह गए ठगे से भूले मुनि-स्वागत-विचार,
कर उठा कहा ऋषिवर ने किंचित हो सरोष-
रघुनन्दन के समीप आकर घनघोर घोष -
"दूषण जित, त्रिभुवनशिरोरत्न, रघुकुलभूषण!
मर्यादा पुरुषोत्तम, लोकोत्तम अघमर्षण!
हे शौर्य-धैर्य-सदगुण आकर राघव महान!
अब भी तुम माँग रहे वैदेही से प्रमाण!
तुमने अपयश भय से पतिप्राणा सीता का,
गर्भिणी और असहाया निज परिणीता का,
इस दिव्य सती का- निर्ममता उर धर अपार-
कर दिया त्याग ले अग्नि परीक्षा एक बार।
पुनरपि सतीत्व का तुम प्रमाण माँगते आज!
सब के आगे! समवेत जहाँ विस्तृत समाज -
तो हे राघव! मैं अंजलि में ले गंगाजल -
सीता सतीत्व का स्वयं प्रमाण बना अविचल।
है सतत साधना की मैने तप किया घोर,
पर, सीता के तप आगे वह तप है विभोर,
वैदेही का तप सतत निरन्तर अविकल क्रम-
है मम तप से भी अधिक दिव्यतम लोकोत्तम!
यदि किंचित भी अत्युक्ति और हो अतिरंजित
मम वचन, प्रभू! मम निखिल साधना कर खंडित
तो आप मुझे दें रौरव का अति दंड घोर-
मेरे तप का फल नष्ट भ्रष्ट होवे अथोर।
गंगा जल धारा धारण कर्ता शिवशंकर,
निज रौद्र नयन से भस्म करं वह प्रलयंकर।"
इतना कहकर हो गये मौन मुनि-साधक वर-
सम्पूर्ण सभा में साधुवाद का गूँजा स्वर।
"जय-जय जगदम्बा जनक नंदनी जय सीता!"
सम्पूर्ण सभा में गूँज उठी गौरव गीता।
विह्वल से हो श्री राम, चरण में गिर अतिशय -
मुनिवर से बोले - "देव क्षमा कीजे अविनय।"
"कल्याण तुम्हारा हो", कह कर आशीर्वचन
बोले मुनिवर वैदेही को कर सम्बोधन -
"हे पुत्रि! तुम्हें भी यदि प्रमाण हित कुछ कहना
तो कहो आज रघुकुलमणि से, मत चुप रहना।"
सुन वाल्मीकि आदेश मचा फिर आंदोलन,
जन-जन के अंतर्मन में करुणा हुई सघन,
लख बिलख उठे यह दृश्य सुलक्षण श्री लक्ष्मण -
चाहा पुनरपि लें पकड़ जानकी चारु चरण।
हो उठे भरत, मर्माहत, औ' रिपुदमन नयन
हो गए सजल ज्यों घिर आए हों सावन घन,
चाहा पद-रज छू कर करें क्षमायाचना तथा -
अभिव्यक्त करें माता से अपनी मनोव्यथा।
कौसल्या माता हृदय लगाने को अधीर -
हो उठीं, दौड़कर जाना चाहा भीड़ चीर,
चीत्कार कर उठी सकल प्रजा, रो उठी धरा -
नयनों से झरझर निर्झर-सा जल सतत झरा।
चाहा सबने - 'चाहिए नहीं हमको प्रमाण,
अपराध क्षमा हो देवि! कीजिए क्षमादान'
पर लेशमात्र भी किया नहीं अवसर प्रदान-
सीता ने, वसुमति को सम्बोधित कर निदान -
यह कहा मन्द स्वर से करुणा से ओत-प्रोत
निस्पन्दित-सा करता अन्तर तल जन-स्रोत -
"मा वसुन्धरे! तुम क्षमा मूर्ति हो परम अचल!
पतिव्रत में रही तुम्हारे-सम यदि मैं अविचल,
पतिविमुख स्वप्न में भी न रही यहि वैदेही,
परपुरुष-ध्यान यदि किया न मैंने वैसे ही-
तो मुझे हृदय में अपना लो माँ, आज धाम,
अपने भीतर दो माँ, मुझको अंतिम विराम।
जिस से लज्जा-मर्यादा मैं रख सकूँ अचल,
मैं पी न सकूँगी और घोर अपवाद गरम,
तुम हो माँ, अशरण शरण, अकिंचन की सम्बल -
मुझ दीन-हीन-अबला को लो माँ, निज अंचल।
मैं कौशलेश की वधु माँगती भीख आज,
रख लो माता मेरी मर्यादा और लाज,
मैं जाऊँ अब किश ठौर निराश्रित निराधार -
ले लो माँ, मुझ दुखिया को निज आंचल पसार।"
सुन वैदेही सीता का यह करुणा क्रन्दन,
सकरुण कातर औ, दैन्यपूर्ण यह आवेदन,
विस्फोट भयंकर हुआ अलौकिक प्रलयंकर -
हो गया विदीर्ण धैर्य-प्रतिभा भू का अन्तर।
भूधर डोले, डोला अचला का भी आसन
भूकम्प हुआ इस भाँति हुआ भीषण गर्जन,
पृथ्वी ने खंडित हो फैला अंचल सादर
सीता को अपना लिया, दिया सिंहासनवर।
हो गई धरा में लीन धरा-तनया सीता,
रह गई देखती सकल प्रजा हतप्रभ सीता,
यों समा गई धरती में धरती की कन्या -
यश-सिंहासन-आसीन रहेगी वह धन्या। ....
प्रेषिता
गीता पंडित
5 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शुक्रवार (14-06-2013) को "मौसम आयेंगें.... मौसम जायेंगें...." (चर्चा मंचःअंक-1275) पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति .आभार
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
आभार आपका शास्त्री जी...:)
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(15-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
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