Monday, January 14, 2013

कुछ कवितायें ..... नरेश सक्सेना

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औकात __


औकात वे पत्थरों को पहनाते हैं लंगोट
पौधों को 
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं

वनों, पर्वतों और आकाश की 
नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से 
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं

देवी-देवताओं को 
पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मन्दिरों का
उद्धार करके 
उन्हें वातानुकूलित करवाते हैं

इस तरह वे 
ईश्वर को 
उसकी औकात बताते हैं ।
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 गिरना __


चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं। मनुष्यों के गिरने के 
कोई नियम नहीं होते। 
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं

बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो 
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो 
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी 
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो 
अर्थों में गिरो 

यही सोच कर गिरा भीतर 
कि औसत क़द का मैं 
साढ़े पाँच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा 
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह 
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा 

चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ 
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़री सीढ़ी 
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है 
इटली के लोगो,
अरस्त्‌ का कथन है कि, भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे 
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को 
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों 
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों और 
कपड़ों की कतरनों को 
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया

चार सौ बरस बाद 
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप 
कि चीज़ों के गिरने के नियम 
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है

और लोग 
हर कद और हर वज़न के लोग 
खाये पिए और अघाए लोग 
हम लोग और तुम लोग
एक साथ 
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं

इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़ 
चीज़ों का गिरना 
और गिरो

गिरो जैसे गिरती है बर्फ़ 
ऊँची चोटियों पर 
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ 

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह 
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो 
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए 
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह 
किसी के दुख में 
गेंद की तरह गिरो 
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत 
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में 
किसी का घर बनाते हुए

गिरो जलप्रपात की तरह 
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए 
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो

गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए 

लेकिन रुको 
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया 
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर ज़मीन को 
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए 
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर 
पके हुए फल की तरह 
धरती को अपने बीज सौंपते हुए 
गिरो 

गिर गए बाल 
दाँत गिर गए 
गिर गई नज़र और 
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमो ग्लोबीन की 

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश 
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद 
एकबारगी 
तय करो अपना गिरना 
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त 
और गिरो किसी दुश्मन पर 

गाज की तरह गिरो 
उल्कापात की तरह गिरो 
वज्रपात की तरह गिरो 
मैं कहता हूँ 
गिरो
........




तुम वही मन हो कि कोई दुसरे हो __

कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो

गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम
गहरे धुँधलके में खड़े कितने डरे
कँपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम

किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे
जिगर पत्थर, आँख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी
सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम
कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था
आज भिक्षा भा रही है
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो ।
.......




घास ___

बस्ती वीरानों पर यकसाँ फैल रही है घास
उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास

कहाँ गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास

सारी दुनिया को था जिनके कब्ज़े का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी क़दमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास 
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प्रेषिता 
गीता पंडित 

3 comments:

vandana gupta said...

्सभी रचनायें शानदार

Bhavna Mishra said...

बेहतरीन शेयर गीता जी .. हर कविता मन को छू कर गुजरी है. आजकल नरेश जी के ही संग्रह पढ़ रही हूँ... आभार !

अनिल जनविजय said...

नरेश जी की हर रचना बेहद अच्छी होती है। कवियों के कवि हैं वे।