Monday, October 1, 2012

कुछ कवितायें .... अंजना बख्शी

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यासमीन __

आठ वर्षीय यासमीन
बुन रही है सूत

वह नहीं जानती
स्त्री देह का भूगोल
ना ही अर्थशास्त्र,
उसे मालूम नहीं
छोटे-छोटे अणुओं से
टूटकर परमाणु बनता है
केमिस्ट्री में।
या बीते दिनों की बातें
हो जाया करती हैं
क़ैद हिस्ट्री में।

नहीं जानती वह स्त्री
के भीतर के अंगों
का मनोविज्ञान और,
ना ही पुरूष के भीतरी
अंगों की संरचना।
ज्योमेट्री से भी वह

अनभिज्ञ ही है,
रेखाओं के नाप-तौल
और सूत्रों का नहीं
है उसे ज्ञान।

वह जानती है,
चरखे पर सूत बुनना
और फिर उस सूत को
गोल-गोल फिरकी
पर भरना

वह जानती है
अपनी नन्ही-नन्ही उँगलियों से
धारदार सूत से
बुनना एक शाल,
वह शाल, जिसका
एक तिकोना भी
उसका अपना नहीं।

फिर भी वह
कात रही है सूत,
जिसके रूँये के
मीठे ज़हर का स्वाद
नाक और मुँह से
रास्ते उसके शरीर में
घर कर रहा है

वह नहीं जानती
जो देगा उसे
अब्बा की तरह अस्थमा
और अम्मी की तरह
बीमारियों की लम्बी लिस्ट
और घुटन भरी ज़िदंगी
जिसमें क़ैद होगा
यासमीन की
बीमारियों का एक्सरे।
.......


मैं ___

मैं क़ैद हूँ
औरत की परिभाषा में

मैं क़ैद हूँ
अपने ही बनाए रिश्तों और
संबंधों के मकड़जाल में।

मैं क़ैद हूँ
कोख की बंद क्यारी में।

मैं क़ैद हूँ
माँ के अपनत्व में।

मैं क़ैद हूँ
पति के निजत्व में

और
मैं क़ैद हूँ
अपने ही स्वामित्व में।

मैं क़ैद हूँ
अपने ही में।
......


कराची से आती सदाएं __

रोती हैं मज़ारों पर
लाहौरी माताएँ
बाँट दी गई बेटियाँ
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान
की सरहदों पर

अम्मी की निगाहें
टिकी है हिन्दुस्तान की
धरती पर,
बीजी उड़िकती है राह
लाहौर जाने की
उन्मुक्त विचरते
पक्षियों के देख-देख
सरहदें हो जाती है
बाग-बाग।

पर नहीं आता कोई
पैग़ाम काश्मीर की वादियों
से, मिलने हिन्दुस्तान की
सर-ज़मीं पर
सियासी ताक़तों और
नापाक इरादों ने कर दिया
है क़त्ल, अम्मी-अब्बा
के ख़्वाबों का, सलमा की उम्मीदों का
और मचा रही है स्यापा
लाहौरी माताएँ, बेटियों के
लुट-पिट जाने का,

मौन ग़मगीन है
तालिबानी औरतों-मर्दों के
बारूद पे ढेर हो
जाने पर।

लेकिन कराची से
आ रही है सदाएँ
डरो मत....
मत डरो....
उठा ली है
शबनम ने बंदूक !!
......


मुनिया ___

उस वृक्ष की पत्तियाँ
आज उदास हैं
और उदास है
उस पर बैठी वो काली चिड़िया

आज मुनिया
नहीं आई खेलने
अब वो बड़ी हो गई है
उसका ब्याह रचाया जायेगा
 
गुड्डे-गुड्डी
खेल-खिलौनों
की दुनिया छोड़
मुनिया हो जायेगी
अब उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्ध

और हो जाएगी
उसकी जिंदगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है उदास
उस वृक्ष की टहनी पर।
.......

तस्लीमा के नाम एक कविता __

टूटते हुए अक्सर तुम्हें पा लेने का एहसास 
कभी-कभी ख़ुद से लड़ते हुए 
अक्सर तुम्हें खो देने का एहसास
या रिसते हुये ज़ख़्मों में 
अक्सर तुम्हे खोजने का एहसास
तुम मुझ में अक्सर जीवित हो जाती हो तस्लीमा 
बचपन से तुम भी देखती रही मेरी तरह,
अपनी ही काँटेदार सलीबो पर चढ़ने का दुख 
बचपन से अपने ही बेहद क़रीबी लोगो के 
बीच तुम गुज़रती रही अनाम संघर्ष–यात्राओं से 
बचपन से अब तक की उड़ानों में,
ज़ख़्मों और अनगिनत काँटों से सना 
खींचती रही तुम 
अपना शरीर या अपनी आत्मा को 

शरीर की गंद से लज्जा की सड़कों तक 
कई बार मेरी तरह प्रताड़ित होती रही 
तुम भी वक़्त के हाथों, लेकिन अपनी पीड़ा ,
अपनी इस यात्रा से हो बोर 
नए रूप में जन्म लेती रही तुम 
मेरे ज़ख़्म मेरी तरह एस्ट्राग नही 
ना ही क़द में छोटे हैं, अब सुंदर लगने लगे हैं 
मुझे तुम्हरी तरह !

रिसते-रिसते इन ज़ख़्मों से आकाश तक जाने 
वाली एक सीढ़ी बुनी हैं मैंने 
तुम्हारे ही विचारों की उड़ान से 
और यह देखो तस्लीमा 
मैं यह उड़ी 
दूर... चली
अपने सुंदर ज़ख़्मों के साथ 

कही दूर क्षितिज में 
अपने होने की जिज्ञासा को नाम देने 
या अपने सम्पूर्ण अस्तित्व की पहचान के लिए 

तसलीमा,
उड़ना नही भूली मैं....
अभी उड़ रही हूँ मैं...
अपने कटे पाँवों और 
रिसते ज़ख़्मों के साथ
....... 



प्रेषिता
गीता पंडित 

साभार 
कविता कोश से 






1 comment:

shikha said...

simple language and beautiful emotions! powerful writing which goes straight to the heart n tugs at the strings.
would like to read of her writings.