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जब मैं बुखार में तप रही थी तुम मेरे माथे पर हाथ रखे सारी रात
बैठी रहीं, इंजेक्शन लगने पर मुझे दर्द हुआ तो आँसू तुम्हारी आँख
में थे. खेलते - खेलते मैं गिर गयी. चोट मेरे माथे पर लगी तो तुम
बिलबिला उठीं. मैं तुम्हें देखती थी अच्छा लगता था तुम्हें अपने पास
पाकर गर्व होता था, तब मैं उस ममता को महसूस तो करती थी
लेकिन समझ नहीं पायी, आज जब मैं दरिंदों के बीच में घिरी तो तुम
कहाँ थीं माँ, मैं कितना चीखी चिल्लाई किसी ने भी नहीं सुना, तुमने
भी नहीं माँ .....
मुझे अपनी कोख से बाहर क्यूँ आने दिया माँ$$$$$$ ? ?
गीता पंडित
30/ 7/12
6 comments:
मार्मिक रचना .हाँ तदानुभूती सिर्फ माँ को होती है काँटा हमें लगता है आतुर वह हो जाती है ...
मार्मिक ..... उस समय यदि मान साथ होती तो काली का अवतार बन जाती ...
दी बहुत मार्मिक एक बच्ची के दर्द को ब्यान करती एक सच्चाई..............अह्ह्ह्ह सच दी रूह कांप उठती है जब ऐसा कुछ देखते सुनते है उस बच्ची को लगता है अपने आँचल में समेत लें और उसके समूचे दर्द को भी............. एक माँ की प्रसव पीड़ा से भी कहीं अधिक पीड़ादाई है ये व्यथा.... दी इसके पीछे बहुत से तथ्य है सबसे पहले तो एक विकृत मानसिकता जो स्त्री को केवल भोग्य की नजरो से देखती समझती है और उसके साथ ही स्त्री का खुद पर पूर्ण विश्वास ना होना दी गर हम सच में सुधार चाहते है तो पहल स्वयं खुद से अपने घर से करनी होगी लडकियो को शुरू से ही सबल और आत्मविश्वासी बनाना होगा और लडको को सिखाना होगा की घर में ही नहीं बाहर भी हर नारी सम्मान की अधिकारिणी है.........
दी बहुत मार्मिक एक बच्ची के दर्द को ब्यान करती एक सच्चाई..............अह्ह्ह्ह सच दी रूह कांप उठती है जब ऐसा कुछ देखते सुनते है उस बच्ची को लगता है अपने आँचल में समेत लें और उसके समूचे दर्द को भी............. एक माँ की प्रसव पीड़ा से भी कहीं अधिक पीड़ादाई है ये व्यथा.... दी इसके पीछे बहुत से तथ्य है सबसे पहले तो एक विकृत मानसिकता जो स्त्री को केवल भोग्य की नजरो से देखती समझती है और उसके साथ ही स्त्री का खुद पर पूर्ण विश्वास ना होना दी गर हम सच में सुधार चाहते है तो पहल स्वयं खुद से अपने घर से करनी होगी लडकियो को शुरू से ही सबल और आत्मविश्वासी बनाना होगा और लडको को सिखाना होगा की घर में ही नहीं बाहर भी हर नारी सम्मान की अधिकारिणी है.........
दी बहुत मार्मिक एक बच्ची के दर्द को ब्यान करती एक सच्चाई..............अह्ह्ह्ह सच दी रूह कांप उठती है जब ऐसा कुछ देखते सुनते है उस बच्ची को लगता है अपने आँचल में समेत लें और उसके समूचे दर्द को भी............. एक माँ की प्रसव पीड़ा से भी कहीं अधिक पीड़ादाई है ये व्यथा.... दी इसके पीछे बहुत से तथ्य है सबसे पहले तो एक विकृत मानसिकता जो स्त्री को केवल भोग्य की नजरो से देखती समझती है और उसके साथ ही स्त्री का खुद पर पूर्ण विश्वास ना होना दी गर हम सच में सुधार चाहते है तो पहल स्वयं खुद से अपने घर से करनी होगी लडकियो को शुरू से ही सबल और आत्मविश्वासी बनाना होगा और लडको को सिखाना होगा की घर में ही नहीं बाहर भी हर नारी सम्मान की अधिकारिणी है.........
मार्मिक ... गहरा एहसास और करुणा लिए ...
शायद इस कड़वी सच्चाई को पचा पाना ही सबसे मुश्किल है ...
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