....
.......
मेरे मौन में तुम भाप की तरह निकलती हो मेरे मुंह से
सुबह का सारा कोहरा इसलिए बना है
कि मौन रहकर मैं तुम्हारा नाम उच्चारता हूं
अलस्सुबह इस जगह कोई नहीं है
सड़क किनारे जमे पानी में मैं कोई नहीं बनकर झांकता हूं
सड़क तुम्हारी विलंबित हां है जो वहां से नहीं शुरू होती जहां मैं खड़ा हूं
मैं वहीं ख़त्म होता हूं जहां तुम खड़ी हो
शिव की जटा से गिरने के बाद मैंने गंगा को अपनी हथेली पर रोपा था
नदी रेखा बनकर मेरी हथेली पर दौड़ती है
दो पहाडि़यों के बीच तुम्हारे केश की इकलौती लट तुम्हारा वृक्ष है
मैं तुम्हारी कार को दूर से पहचान लेता हूं
तुम मेरी बग़ल से मुझे खोजती गुज़र जाती हो ग़ाफि़ल
शिव के शाप के बाद से अनंग हूं मैं
मुझे हमेशा अपनी उपस्थिति का अहसास ख़ुद कराना पड़ता है
एक सुबह हमारे पास बहुत समय था
तुम रात के बचे खाने के तरह मुझे संजो देना चाहती थी
हम एक पत्ती पर देर तक टहलते रहे
तब से तुम्हारे तलवों का रंग हरा हो गया
तुमने कहा तुम्हारा मन अब से तुम्हारे तलवों में रहेगा
यह भी कि मुझे सबसे पहले तुम्हारा मन चूमना था
लौटते समय मैंने मुड़कर देखा था तुम्हें रिवायत के मुताबिक़
कुछ दरवाज़े हमेशा भीतर की तरफ़ खुलते हैं
मेरे भीतर शुक्र कभी अस्त नहीं होता
शौर्य का मंगल बहुत दूर उगता है मुझसे
अंतरिक्ष अंधेरे का काढ़ा है
तुम यहां हो प्रकाश का पर्णवृंत बनकर
कोई ज़रूरी नहीं कि क़लम ही लिखा करे काग़ज़ पर
तुम वह पढ़ना जो काग़ज़ लिखा करते हैं क़लमों पर
ऐसे तुम इंतज़ार और सियाही का संबंध समझ जाओगी
तुम्हारी देह पर नक्षत्र की नौकाएं तिरेंगी
तुम्हारा बढ़ा हुआ हाथ एक मछली है
मेरे विचार का पानी सांस लेता है उससे
मैं तुम्हारी देह ब्रेल लिपि में पढ़ता हूं
......
तुम्हारी परछाईं पर गिरती रहीं बारिश की बूंदें
मेरी देह बजती रही जैसे तुम्हारे मकान की टीन
अडोल है मन की बीन
झरती बूंदों का घूंघट था तुम्हारे और मेरे बीच
तुम्हारा निचला होंठ पल-भर को थरथराया था
तुमने पेड़ पर निशान बनाया
फिर ठीक वहीं एक चोट दाग़ी
प्रेम में निशानचियों का हुनर पैबस्त था
तुमने कहा प्रेम करना अभ्यास है
मैंने सारी शिकायतें अरब सागर में बहा दीं
धरती को हिचकी आती है
जल से भरा लोटा है आकाश
वह एक-एक कर सारे नाम लेती है
मुझे भूल जाती है
मैं इतना पास था कि कोई यक़ीन ही नहीं कर सकता
जो इतना पास हो वह भी याद कर सकता है
स्वांग किसी अंग का नाम नहीं
आषाढ़ पानी का घूंट है
छाती में उगा ठसका है पूस.
........
तुम गुब्बारा हो
मैं तुममें हवा भरता हूं
तुम मुझसे दूर उड़ जाती हो
मैं ईश्वर का खिलौना हूं तुम्हारा भी
जितना तपती है किनारे की रेत
बीच धार की बूंदें उतनी ही शीतल होती हैं
समंदर अपने भीतर जितनी रेत रखता है उतनी ही लहरें भी
जीवन का सारा पीला कविता में आकर लाल हो जाता है
भूगर्भ लिखता है मेरी कविता
जंगल सुंदर कविताओं की प्रतिध्वनि हैं
बहुत तेज़ी से काटे जा रहे हैं जंगल
एक सुबह उठकर मैंने एक पेड़ उखाड़ दिया
उस ज़मीन की छांव की आदत छूट नहीं रही
मेरी छत से एक हाथ ऊपर बैठी है बारिश रूठी हुई
किसी को मनाना बिना ठहरे बरस जाने का हुनर है
पृथ्वी पर मैं चलता हूं
मुझे अपनी गोद में लिये पृथ्वी चलती है
मैं चल-चलकर कहीं तो भी पहुंचता हूं
पृथ्वी मुझसे ज़्यादा चलती है और कहीं नहीं पहुंचती
इस तरह इतना चल-चलकर भी
अंतत: मैं कहीं नहीं पहुंचता
वृहत्तर रूप से मैं ठहरा हुआ हूं
ख़ुद के और पृथ्वी के लगातार चलते चले जाने के बाद भी
एक भावनात्मक भय मेरी कानी उंगली की अंगूठी है
शब्द कच्चा दूध था तुम्हारी इच्छाएं शहद
इन दोनों से तुम मेरे चेहरे के दाग़ धोना चाहती थीं
कई बार प्रतीक्षा भी आवेग का मर्दन कर देती है
मौन एक शिकारी घूंघट है
मेरी उत्सुकताओं को उकसाता हुआ
दिन तुम्हारी देह की यष्टि है
रात तुम्हारे साथ का अनुच्छेद
एक दिन अलार्म से ठीक पहले यह घड़ी बंद पड़ जाएगी
मैं चलते-चलते पृथ्वी की कगार पर पहुंच जाऊंगा
एक क़दम बढ़ाऊंगा अनंत में गिर जाऊंगा
........
प्रेषिका
गीता पंडित
साभार
गीत चतुर्वेदी जी की प्रोफाइल से...
10 comments:
बहुत-बहुत ही अच्छी भावपूर्ण रचनाये है......
तीनों कविता अपने भाव-प्रवाह में बहा रही है..चतुर्वेदी जो को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार..
ऐसी कविताएँ पढकर मन नहीं भरता, बस मुझे तो ऐसे फैले हुए तिनकों की पूरी किताब कहीं से मिल जाए ... अछि नज्में हैं.
वाह बहुत खुबसूरत , शुक्रिया
वाह,बहुत सुन्दर कवितायेँ
तीनों ही कवितायें उन्नत धरातल पर स्थित हैं...
सादर आभार.
बहुत बेहतरीन रचना....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बढ़िया रचनायें...
कुछ शब्दों को पढना आसान नहीं और जब वे,अनंत पीडाओं को समेटे हों तो
कविताएं नहीं बनतीं पुनः पीडा बन जाती हैं.
पंक्तियां जो मन को छू गयीं--\
कुछ दरवाजे—कोई जरूरी नहीं—तुमने कहा—शिकायतें अरब सागर में बहा दीं
-------अनंत में गिर जाऊंगा.
कुछ शब्दों को पढना आसान नहीं और जब वे,अनंत पीडाओं को समेटे हों तो
कविताएं नहीं बनतीं पुनः पीडा बन जाती हैं.
पंक्तियां जो मन को छू गयीं--\
कुछ दरवाजे—कोई जरूरी नहीं—तुमने कहा—शिकायतें अरब सागर में बहा दीं
-------अनंत में गिर जाऊंगा.
Post a Comment