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मी लार्ड ! अपराध किया है मैंने , स्वीकार करती हूँ।
अपराधी हूँ, मुझे सज़ा दीजिये वो भी ऐसी, जिसे सुनकर आने वाली नारी पीढ़ी की रूह तक कंपकंपा जाए और भविष्य में ऐसा अपराध करने से पहले कोई भी स्त्री असंख्य बार सोचे।
सम्भ्रान्त परिवार में जन्मी। संस्कार घुट्टी में पिलाए गए, माता-पिता सर्वोच्च संस्था थे और उसके कथन सर्वदा सत्य। जीवन यज्ञ में उतरी थी सो कलावे की तरह बाँध लिए ये शब्द मन में।
समय बढ़ता गया। बचपन वैसा व्यतीत हुआ जैसा माता-पिता चाहते थे लेकिन यौवन की अपनी इच्छायें थीं। अपने सपने थे जो मन-मस्तिष्क की दहलीज़ पर आकर माथा टेकने लगे। पढ़कर कुछ कर गुजरने की आकांक्षा मन-आकाश में पींगे लेने लगी।
पर स्त्री का मन क्या होता है ? क्या होती है उसकी चाहत, उसके सपने, उसकी इच्छाएं ?
मी लार्ड ! अंतत: हुआ वही जो एक संस्कारी बेटी से अपेक्षा की जाती है।
'लड़की है विज्ञान पढ़कर क्या करेगी / पढ़ना ही है तो गृह-विज्ञान पढ़ ले '
और न चाहते हुए भी वही शिक्षा मैंने प्राप्त की जिसे मेरे माता-पिता चाहते थे।
मी लॉर्ड ! यह मेरा पहला अपराध था जानबूझकर स्वयं को नकारने का। दोषी हूँ।
दूसरा अपराध मेरा और भी भयानक है सचमुच बेड़ियों में जकड़े जाने के लिए पर्याप्त है और यह अपराध मैंने तब किया जब अपने सपनों को उन्हीं संस्कारों की बलि चढ़ाते हुए , असमय और बिना अपनी सहमति के निरीह भेड़ बकरी की तरह विवाह बंधन में बंध गयी।
सच कहूं विरोध करती तो आ-संस्कारी और निर्लज्ज कहलाती।
हाँ दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपने मन का हास किया । मी लॉर्ड यही मेरा दूसरा अपराध था।
और तीसरा अपराध और भी जघन्य।- माता-पिता की तरह सास-ससुर की इच्छाओं को भी शिरोधार्य करके किया -
'तुम नौकरी करके क्या करोगी ? पैसे की आवश्यकता हो तो कहो । नहीं कर पायी नौकरी भी।
आत्म-निर्भरता तो दूर आत्म-चैतन्यता भी खो बैठी ।
मी लॉर्ड ! दोषी तो मैं ही हूँ ना।
माँ बन गयी । सच कहूँ तो आज बीस वर्ष के बेटे की माँ कहलाकर प्रसन्न हूँ लेकिन इस प्रसन्नता का बोझ मेरे यानी एक संस्कारी स्त्री के काँधे सम्भाल नहीं पा रहे हैं । कारण तो आपके सामने है -
आज खड़ी हूँ उम्र के इस पड़ाव पर जहाँ मेरे पति को मुझसे तलाक़ चाहिए क्योंकि उन्हें किसी दूसरी स्त्री स प्यार हो गया है ।
मी लॉर्ड ! यह मेरा तीसरा अपराध था।
एक अपराध और भी है जो अक्षम्य है।
आस्था प्रेम और विशवास का दीप जलाए हमेशा चलती रही आँधियों के विपरीत लेकिन आज ना लड़ पायी उस पल से जिसने मुझे और मेरे आत्म-सम्मान को भरे बाजार नीलाम कर दिया।
मी लॉर्ड ! मेरे जैसे अपराधी को कब तक खुला छोड़ेंगे । सज़ा दीजिये मुझे प्लीज़ सज़ा दीजिये।
वाह!! उचित है। मेरे जैसी स्त्री के साथ होना भी यही चाहिए था।
'द्रोपदी का चीर - हरण सब ने सुना लेकिन आत्म - हरण या स्वाभिमान - हरण किसने सुना और किसने समझा।
जो स्त्री परिवार के लिए पूर्ण समर्पित होकर अपने आप को भी भूल जाए , ये तो पागलपन हुआ ना मी लॉर्ड ! और पागलों के लिए इस सभ्य - संस्कारी समाज में कोई जगह नहीं।
एक बात और , दिला दीजिये तलाक मी लॉर्ड! लेकिन वो ना दिलाइये जिसे मेरे नाते-रिश्तेदार , मेरे वकील चाहते है मासिक-भत्ते या जायदाद के कुछ हिस्से के रूप में।
मुझे कतई स्वीकार नहीं .... नहीं !!!!!!!! नहीं !!!!
अब और अपराध नहीं , बिलकुल नहीं।
मैं इस सभ्य-सुसंस्कृत समाज के लायक नहीं हूँ।
प्लीज़ पगली डिक्लेयर करके मुझे पागलखाने भेज दीजिये मी लॉर्ड !!!!!!!
गीता पंडित
( 2008 )
7 comments:
विचारणीय लघु कथा .. अपने अस्तित्व को पहचानना ज़रुरी है ..
क्या कहूँ गीता जी…………एक कटु सत्य कह दिया आपने …………शायद ऐसे गुनाह के लिये नारी खुद जिम्मेदार है अब उसे अपनी सोच कोबदलना होगा शायद तभी उसका आत्मसम्मान सुरक्षित रह सके।
गीता जी
अद्भुत है आपका अपराध . वाकई आपको सज़ा मिलनी चाहिए. ऐसी सच्ची लघुकथा पढ़कर लगा कि अब स्त्री देह से आजाद होगी और दिमाग से दुनिया जीतेगी... मेरी शुभकामनाएं
अनवर सुहैल
bahut .. achchhi kahani hai .
badhayi
मर्म को बेधती, कई प्रश्न उठाती केवल एक नारी से ही नहीं अपितु हर उस शख्श से - उसके माता-पिता,सास-ससुर, पति और पुत्र से भी! जो नारी से त्याग की साधिकार, सहर्ष अपेक्षा रखते हैं किंतु उसके दुर्भाग्य के आगे मौन, निर्विकार रह जाते है। प्रतिदान में क्या उसके आत्म-सम्मान का वादा दे सकता है ये सभ्य समाज और ये रिश्ते?
अत: नारी को भी चाहिये कि सबको सहेजने में खुद को न खो दे।
मन को बाँधती और अपना प्रभाव छोड़्ती सुंदर लघु कथा। बधाई गीता जी!
आधी दुनिया इन्ही अपराधों में अपने को समर्पित किये बैठी है इन को न्याय हेतु कटघरे में लाने हेतु बधाई गीता दी..
आधी दुनिया स्वयं को ऐसे ही अपराधों में समर्पित किये खोयी हुई है इन्हें न्याय हेतु कटघरे में लाने हेतु बधाई गीता दी ..
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