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"क्या मैं केवल देह मात्र हूँ , इससे आगे बढे नहीं तुम,
गाती रही मैं तुमको केवल पर अपनी पर अड़े रहे तुम,
आज नहीं मैं और नहीं तुम, अदंर बाहर रीता है सब,
कैसी डगर हैं ये अनजानी जिन पर चलकर आज हुए ग़ुम||
..गीता पंडित ..
किसने लेखनी में ऐसे भाव भर दिये क्या आप कह सकेंगे... ?
सच कहूँ तो बहुत आश्चर्य होता है जब भी मुझे (स्त्री को) अबला का नाम दिया जाता है ... नाम कौन देता है -- पुरुष -- वो पुरुष जो मेरी कोख से जन्म लेता है और मुझी पर अबला नाम का ठप्पा जड़ देता है | हाँ... मैं कोमलांगी हूँ , देह से कमजोर हूँ तुमसे लेकिन मन से अधिक शक्तिशाली और सबल हूँ ये मैं जानती हूँ |
वाह !!!! रे मेरे भाग्य-विधाता ! मैं तो तुममें ही सिमटी रही भूल गयी अपने मन का छोटा सा आकाश ..... जहाँ इन्द्रधनुष था, परियां थीं, रिमझिम बरखा थी, सखियाँ थीं, कजरी थी, झूले थे सावन था, फागुन था, तीज-त्यौहार थे, हर्ष था, उल्लास था, आशा थी, विशवास था, प्रेम था | सब तुम्हें सौंप दिया सहर्ष लेकिन नहीं ये कम था तुम्हारे लियें मेरी निष्ठा, मेरी आस्था, मेरा प्यार मेरा समर्पण सब फीके पड़ गए |
मैं जो रागिनी थी, रस की मधुशाला थी, मीठे झरने की कहानी थी बनकर रह गयी मात्र रेत के टीले .........
क्यूँ क्या अपराध किया था मैंने
क्यूँ अभिशापित हुई मैं | मैंने तुम्हें जन्म दिया और तुम ही .....
नहीं ........ और नहीं ......... बस ......
साहित्य समाज का दर्पण है इसलियें जो आज स्त्री की दशा है लेखनी उससे अछूती कैसे रह सकती है "स्त्री-विमर्श" आज एक ऐसा विषय है जिस पर लेखनी बढ़ - चढ कर बोल रही है | कविवर " रविन्द्र दास " की लेखनी में उसी पीड़ा की गूँज सुनाई दे रही है .....
.......
खूबसूरत औरत का शरीर ख़ूबसूरत होता है
उसी शरीर में
औरतपन
और औरत-मन रहता है
तय है -
औरत का मतलब पत्नी नहीं
न माँ, न बहन
औरत का मतलब -जीवित औरत शरीर
कहीं कोई ग़लतफ़हमी नहीं,
कोई विरोधाभास नहीं ।
शरीर के आलावा कोई सबूत नहीं
कोई मर्द, कोई औरत, कोई...
००
एक दुनिया
एक बाज़ार, और रोज़ बनती बिगडती
तहजीबों की तकरीर
यानि दुनिया का क़ायदा
बाज़ार की तरकीब
००
युगों से गुज़ारकर , तकलीफ़ों से तराशकर
बचाया एक लफ़्ज़ -
मूल्य ।
दुनिया और बाज़ार
दोनों कैनवास पर यह जुमला
यूँ बैठा के दोनों एक-म-एक हो गए।
००
ख़ूबसूरती एक मूल्य है ,
नहीं छोड़ता है कोई मूल्य को ।
कलाकार , दुकानदार, पंडा चाहे दलाल
सभी करते बातें मूल्यों की
बेशक ,
ख़ूबसूरत औरत का मूल्य होता है
मूल्य ग्राहक देता है
कई बार पसंद आने पर ,
कई बार धोखे में
००
दुनिया या बाज़ार
नहीं बनते किसी की मर्ज़ी से
कोई बदलता है अपना मन
बदल जाती है -
उसकी दुनिया
दीखता है बदला हुआ बाज़ार
लेकिन हर जगह चलता सिक्का मूल्यों का
कोई माने या न माने,
ख़ूबसूरत औरतें नहीं, शरीर होता है
शरीर की ही दुनिया शरीर का ही बाज़ार
इसका मतलब यह नहीं
के मर्द बाहर होता है शरीर के
तो भी ,
बदली हुई दुनिया
मर्द के ही आजू-बाजू
आगे-पीछे... ......
बड़ी हिम्मत जुटा कर
सहमते हुए पूछती है माँ से
युवती हो रही किशोरी -
माँ! पापा भी मर्द हैं न ?
मुझे डर लगता है माँ ! पापा की नज़रों से ।
माँ! सुनो न ! विश्वास करो माँ !
पापा वैसे ही घूरते हैं जैसे कोई अजनबी मर्द।
माँ! पापा मेरे कमरे में आए
माँ! उनकी नज़रों के आलावा हाथ भी अब मेरे बदन को टटोलते हैं
माँ! पापा ने मेरे साथ ज़बरदस्ती की
माँ! पापा की ज़बरदस्ती रोज़-रोज़ .........
माँ! मैं कहाँ जाऊं !
माँ! पापा ने मुझे तुम्हारी सौत बना दी
माँ! कुछ करो न !
माँ ! कुछ कहो न!
माँ! मैं पापा की बेटी नहीं , बस एक औरत हूँ ?
माँ! औरत अपने घर में भी लाचार होती है न !
माँ! मेरा शरीर औरताना क्यों है!
बोलो न! बोलो न! माँ !
.........
काफी नहीं था उसका सिर्फ़ स्त्री होना
दुनिया की और भी रवायतें थीं
खुले आसमान में
मुक्त उड़ान के लिए चाहिए था पंख भी ....
पर जब समझ में आया
हो चुकी थी शाम
नए दिन का नया अँधेरा !
करना होगा इंतजार रात ख़त्म होने का
करनी होगी तैयारी नई शुरुआत की ।
दूर ही रखा गया था उसे
असल पाठ से
व्याख्याओं के उत्तेजक तेवर ने
भरमा दी थी बुद्धि
कि कानून के लिहाज से
मिलेगी सज़ा हर अपराधी को
यह सुनना सुखद है जितना
उतना ही मुश्किल है -
साबित करना अपराधी का अपराध।
काफी नही था उसका विद्रोह करना
चूँकि तय नहीं थी मंजिल
कोई रास्ता भी नहीं था मालूम
घूर रही थी
पेशेवर विद्रोहियों की रक्तिम आँखें
भाग तो सकती है अभी भी
पर कहाँ ? रस्ते का पता जो नहीं है ! .........
खूबसूरत किन्तु दरिद्र स्त्रियाँ कुढ़ती हैं
बदसूरत औरत अमीर क्यों है !
और बदसूरत अमीर स्त्रियाँ कोसती हैं
खूबसूरत निर्धन औरतों को
कि क्यों नागिन बन बलखाती फिरती हैं
हमारी गिरस्ती खसोटने को।
और चलती रहती है खींचतान
और अजमाइश ताकतों की
कि तभी बीच में खड़ा होता है कोई
कला साधक
जो बनाता है रास्ता , कहीं बीच का
कला के कद्रदान
देना शुरू करते हैं अनुदान
जिससे चल पड़ती है दुकान
जहाँ ,
अमीर गरीब
सुन्दर बदसूरत
स्त्री-पुरुष
लिंग-अतीत आयोजकों से साधते हैं संपर्क
पुरानी सड़कों की मरम्मत भी होती है
नए रंग रोगन भी लगते हैं
इस तरह शुरू होता है
सिलसिला खुशहाली का
निम्न मध्य वर्ग के शिक्षित -कुंठित मर्द
ऐन मौके पर उठाता है मुद्दा
नैतिकता का ,
मानव मूल्य के पतन का।
.......
एक लड़की सांवली-सी
हँस-मुख भी
पढ़ती है किताब नए ज़माने की
सिखती है सबक
दुनिया बदलने की
करती है कोशिश
रूढ़ियाँ मिटाने की
और करती है भरोसा पेशेवर अध्यापकों का।
पेशेवर अध्यापक चलाते हैं ब्यूरो
नए ज़माने का
दुनिया बदलने का
रूढ़ियां मिटाने का
इनमें से कुछ तो कमाते हैं
कुछ खुजली मिटाते हैं
कुछ मन मसोसकर रह जाते हैं।
सांवली-सी मासूम लड़की
गरीब न होती तो बन जाती
फैशन-डिज़ायनर
या अमेरिका जाकर पढ़ती मैनेजमेंट
कभी न करती--प्रेम या क्रांति
प्रेमकथा और क्रांतिकथा के मध्यवर्गीय पाठ ने
भरमा दी बुद्धि
कि तौल न पाई अपना वजन
गलती तो हुई उससे
फिर क्यों करे अफ़सोस कोई
उसकी आत्म-हत्या पर!
नहीं टूटे थे पुराने संस्कार उसके
मांग करती थी आज भी
इंसानियत की
वफादारी की
इज्ज़त और नैतिकता की
जबकि
बता दिया गया था उसे पहले ही
सिद्धान्त उसके विरूद्ध हैं। .......
एक लड़की गुजरती जा रही
बीचो-बीच वाली सड़क से
बाज़ार के।
शायद कुछ खरीदने
शायद कुछ बेचने
बाज़ार में साथ-साथ है दोनों संभावनाएँ।
बाज़ार में कुछ लोग
जो देख रहे हैं अकेली लड़की को
बाज़ार में कुछ लोग
जो नहीं देख रहे अकेली लड़की को
जबकि कुछ देखकर अनदेखा कर रहे
अनदेखा किया जाना
नागवार गुजरता है अकेली लड़की को।
बाज़ार की सड़क
गोल घुमावदार है
अकेली लड़की उसी रास्ते बढ़ जाना चाहती है
आगे
घूम कर बार-बार
उत्तेजित हो जाती है अकेली लड़की
थकती नहीं
आगे निकल जाना चाहती है इस बार
अकेली लड़की.
कहीं सड़क के बीचो-बीच
सहमती है अकेली लड़की
कुछ इंकार करती है अचानक
मुस्कुराती है उसके बाद
निश्चित विश्वास के साथ बढ़ जाती है आगे
अकेली लड़की।
.......
रचनाकार " रवीन्द्र दास "
कालिदास विरचित "मेघदूत" के काव्य-अनुवादक
प्रेषक
गीता पंडित
11 comments:
" हम और हमारी लेखनी की तरफ से रवीन्द्र दास जी आपका अभिनन्दन
और आभार...
शुभ कामनाएं
गीता पंडित
बेहद सशक्त लेखन हुआ है इन कविताओं के रूप में ! गीता जी आपका आभार इन रचनाओं तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ! रचनाकार को ह्रदय से बधाई !
रवीन्द्र दास जी को पढवाने के लिये आभार्।
बेहद पसंद आयीं आपकी कवितायेँ रवीन्द्र जी...... स्त्री के विषय में आपकी दृष्टि औरों से भिन्न है....
बहुत संवेदनशील कवितायेँ....
बधाई आपको और आभार...
शुभ कामनाएँ
गीता पंडित
इसी विषय पर भविष्य में भी आपकी कवितायेँ और पढ़ने के लियें मिलेंगी....
आभार...
शुभ कामनाएँ
गीता पंडित
गीता जी आपका अभिनन्दन स्वीकार करते हुए मैं आनन्द और गौरव का अनुभव कर रहा हूँ. मैं आपकी चयन-प्रतिभा की भी प्रशंसा करना चाहता हूँ. लेकिन तीन साल से ब्लोगिंग करने के बाद मेरा निष्कर्ष है कि हिन्दी का पाठक अभी इन्टरनेट के माध्यम के लिए तैयार और परिपक्व नहीं हुआ है... यहाँ उसे गंभीर रचनाएँ पढ़ने का धैर्य नहीं आ पाया है. आपके स्नेह और अपनापन मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. धन्यवाद पुनः पुनः
आदर सहित ,
रवीन्द्र दास
ये त्रासदी है लेखनी की विशेष रूप से हिन्दी की...पाठक वर्ग बहुत कम है हम सभी इसी त्रास को झेल रहे हैं....... हमारे बीच में पाठक है हम केवल उस तक पंहूचा सकते हैं...इसीलियें ये प्रयास किया गया है....... :))
मैं ऐसा मानती हूँ कि एफ बी पर अच्छी लेखनी के धनी अधिक संख्या में दिखाई दे रहे हैं...दूसरी और सुधि पाठकों की भी कमी नहीं है.....वो पढते हैं चाहे कमेंट्स ना कर पायें...
आपकी रचनाएँ श्रेष्ठ रचनाओं में अपना विशेष स्थान रखती हैं अरुण मिसिर जी ने अपने कमेन्ट में कहा भी है....और यहाँ जो स्त्री पर विचार विमर्श हो रहा था या होता है वो कविताओं के आधार पर ही होता रहा है......स्त्री की दुर्दशा आपकी रचनाओं में विशेष रूप से आयी और वही चर्चा का केन्द्र बनी.... हाँ नाम लेकर नहीं.....
मैं आभारी हूँ आपकी...
शुभ कामनाएं...
आपका स्वागत है रवीन्द्र जी...
यहाँ गंभीरता से लिखने और पढ़ने वाले लोग भी हैं...मेरा ऐसा मानना है... धीरे-धीरे पाठक और लेखक के बीच की दूरी कम हो रही है..
हाँ ब्लॉग पर अपने पद -चिन्ह नहीं छोड़ते अभी भी... एफ.बी.पर ऐसा नहीं है....
आभार
शुभ-कामनाएँ
गीता
एक सशक्त किन्तु भिन्न नज़रिये की रचनाएँ | ;हमारी लेखनी के माध्यम से सशक्त हस्ताक्षरों की रचनाओं से रू-ब-रू होने का सुयोग मिल रहा है |अच्छा लगता है |
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