“स्त्री” नाम एक रूप अनेक |
माँ के रूप में ममता का आगार है तो पत्नी के रूप में प्यार का, बेटी के रूप में नेह का विस्तार करती है तो बहन के रूप में मंगल - कामनाओं का बरगद बनती है | हर सम्बंध को मन का नीर देकर अपने में पालती है | अथक निरंतर चलती है सुबह से साँझ बिना किसी उदासी के या अवहेलना के हर पल को अंतिम पल सा समझकर पीती हुई | चाहती क्या है केवल थोड़ा सा नेह जो उसका संबल बनता है हर उस पथ पर जहाँ विषाद है, निराशा है, खिन्नता है, समय के थपेड़े हैं |
आह !!!!!!!!!!
मिल पाता है क्या ????????????
वही नेह, वही संबल जब अशोक पाण्डेय के कविता संग्रह “ लगभग अनामंत्रित “ में दिखाई दिया तो पलभर विश्राम करने के लियें मैं यहीं बैठ गयी | इस लेखनी में जो शीतल बयार बही ....वो ऐसी है...
मां की डिग्रियां
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
मां की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है मां को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
....
मं के चेहरे पर तो
कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
काॅलेज़ के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हमउम्रो के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?
क्या सोचती होगी
रात के तीसरे पहर
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज़ की चहारदीवारी पर बैठा
कोई करता होगा इंतज़ार?
(जैसे मै करता था तुम्हारा)
क्या उसकी क़िताबों में भी
कोई रख जाता होगा
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात
क्या हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात
पंख लगाये डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
.....
इतना तो समझ सकता हूँ
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे
दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियां.
मैं चाहता हूँ –
मैं चाहता हूँ
एक दिन आओ तुमइस तरहकि जैसे यूँ ही आ जाती है ओस की बूंदकिसी उदास पीले पत्ते परऔर थिरकती रहती है देर तक
________
मैं चाहता हूँएक दिन आओ तुमजैसे यूँ हीकिसी सुबह की पहली अंगड़ाई के साथहोठों पर आ जाता है
वर्षों पहले सुना कोई सादा-सा गीत_______
तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश
तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निशइस तरह चाहता हूँ तुम्हारा साथजैसे वीणा के साथ उंगलियाँ प्रवीणजैसे शब्द के साथ संदर्भजैसे गीत के साथ स्वरजैसे रुदन के साथ अश्रुजैसे गहन अंधकार के साथ उम्मीदऔर जैसे हर हार के साथ मजबूत हैती ज़िदबस महसूसते हुए तुम्हारा साथसाझा करता तुम्हारी आँखों से स्वप्नपैरों से मिलाता पदचापऔर साथ साथ गाता हुआ मुक्तिगानतोड़ देना चाहता हूँ सारे बंध
मत करना विश्वास
मत करना विश्वासअगर रात के मायावी अंधकार मेंउत्तेजना से थरथराते होंठों सेकिसी जादुई भाषा में कहूँसिर्फ तुम्हारा यूँ ही मैं_____
मत करना विश्वासअगर लौटकर किसी लंबी यात्रा सेबेतहाशा चूमते हुए तुम्हेंएक परिचित सी भाषा में कहूँसिर्फ तुम ही आती रहीं स्वप्न में हर रात_____
हँसो मतज़रूरी है यहविश्वास करोतुम्हें खोना नहीं चाहता मैं
दे जाना चाहता हूँ तुम्हें
लेकिन कुछ भी नहीं बचा मेरे पासतुम्हें देने के लिए !__फूलों के पत्ते तक अब नहीं पहुँचती ओसऔर अगर पहुँच भी जाए किसी तरहबिल्कुल नहीं लगती मोतियों सी____समंदर हैं तो अभी भी उतने हीअद्भुत और उद्दामपर हर लहर लिख दी गई हैकिसी और के नाम !____सच मानोइस सपनीले बाज़ार मेंनहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारीजिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम सी आँखों को |नहीं बचा किसी भी शब्द में इतना सचजिसे दे सकूँ तुम्हारे अंखुआते होंठों को |नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्रजिसे दे सकूँ तुम्हें पहचान की तरह !
सोती हुई बच्ची को देख कर
अभी अभीहुलस कर सोयीं हैंइन साँसों में स्वरलहरियाँ____अभी अभीथक कर डूब गया हैइन पैरों में बेचैन सूरज_____अभी अभीउगा है इन आँखों मेंनीला चाँद_____अभी अभीमिला हैमेरे उम्मीदों कोएक मजबूत दरख़्त
साभार
" लगभग अनामंत्रित " अशोक पाण्डेय
प्रेषक
गीता पंडित
16 comments:
शुक्रिया गीता जी...पाठकों के लिए बस इतना इशारा कि यहाँ कविताओं के अंश हैं...पूरी कविताएँ नहीं...
बहुत बढिया गीता जी ! बहुत अच्छी टिप्पणी ,अशोक जी की कविताओं पर !
शा्नदार सोच का परिचायक है हर कविता…………एक से बढकर एक्…………बेहतरीन रचनायें।
माँ - बहन - बेटी और बनके जाया
चौखट दर चौखट रिश्ता तुमने ही निभाया.
गीता जी, सबसे पाले सुन्दर ब्लॉग रचना के लिए हार्दिक बधाई ...
और सुन्दर व सार्थक रचना के लिए साधुवाद !!
गीता जी सर्वप्रथम सुन्दर ब्लॉग रचना के लिए हार्दिक बधाई !
एवं सुन्दर व सार्थक
रचना के लिए साधुवाद!!
क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
....
इतना तो समझ सकता हूँ कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे दब जाने के लिये नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियां.
कितनी गहरी संवेदनाएं छिपी हैं इन पंक्तियों में...
कितनी ही स्त्रियों की ये पीड़ा है जो सहजता के साथ अशोक जी आपकी लेखनी में सिमट आयी |
आभार...
उम्मीद और जैसे हर हार के साथ मजबूत होती ज़िद बस महसूसते हुए तुम्हारा साथ साझा करता तुम्हारी आँखों से स्वप्न पैरों से मिलाता पदचाप और साथ साथ गाता हुआ मुक्तिगान तोड़ देना चाहता हूँ सारे बंध
आहा !!!!
प्रेम का कैसा पावन रूप ...
सोती हुई बच्ची को देख कर
अभी अभी हुलस कर सोयीं हैं इन साँसों में स्वरलहरियाँ
कितने कोमल उदगार...
अशोक पाण्डेय जी स्त्री के हर रूप को आपने सराहा सहेजा और बड़ी बारीकी से उसे देखा ...आभार आपका...
"हम और हमारी लेखनी " पर आपका अभिनन्दन....
सस्नेह
गीता पंडित
सच मानो इस सपनीले बाज़ार में नहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारी जिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम सी आँखों को | नहीं बचा किसी भी शब्द में इतना सच जिसे दे सकूँ तुम्हारे अंखुआते होंठों को
पीड़ा मन की शब्दों में आकर पसर गयी है...देखो तो ....
यहाँ अशोक कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह "लगभग अनामंत्रित" के
अंश ही दिए गए हैं जो उत्सुकता पैदा करते हैं सम्पूर्ण काव्य-संग्रह को पढने की....
हम अशोक कुमार पाण्डेय जी के आभारी हैं...
शुभ-कामनाएं के साथ
सस्नेह
गीता पंडित
सुन्दर रचना और खूबसूरत ब्लॉग के लिए बहुत बधाई गीता जी ...
प्यार करना माँ से सीखे,
तुम ममता की मूरत ही नही,
सब के दिल का एक टुकड़ा हो,
मैं कहता हूँ माँ ,
तुम हमेशा ऐसी ही रहना
मातृदिवस की शुभकामनाएँ!
"
बेहतरीन रचनायें।
अशोक भाई !
सुयोग से 'लगभग अनामंत्रित " की कविताओं को एकाधिक बार पढ़ा | लगता है कि जीवन के ही जीवंत दृश्यों को शब्दों का आकार दे दिया गया है | सब कुछ बेहद अपना सा प्रतीत होता है |
sapno ke sansar me bikhre hue yatharth ke reshe. anupam kritiyan. man ke gahre paith banati hui. sabhar.
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