बतियाता है रात-रातभर ___
गीता पंडित
करे प्रतीक्षा
बेला जाने किसकी
सुरभित मन- आंगन के द्वारे
लग जाती है हिचकी
बतियाता है रात - रातभर छेड़े मन के साज
अंतस की खोली में बैठा
भूल रहा है लाज
वैसे अच्छी
लगती बातें
करता है वो जिसकी
मंदिर की ड्योढ़ी आ बैठे पावन मन कर जाए करता है वो जिसकी
मीरा की अलकों में आकर
सपने नये जगाए
झुमके से हंसकर बतियाये सपने नये जगाए
हँसी रुके ना उसकी
विरह-वेदना की अग्नि में जो मनवा हैं पलते
बेला की सुरभित बेला में
उनके तन-मन जलते
जबकि बेला की साधें है उनके तन-मन जलते
देखो सारी रस की |
गीता पंडित
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