Wednesday, January 1, 2014

पाँच कवितायेँ ..... अनुज लुगुन




                                                           

समुद्र से लौटते हुए ____


समुद्र की देह पर
पिघल रहा है सूरज
उसकी लौ बुझने को है
और अब मैं लौट रहा हूँ
समुद्र से घर की ओर, इस वक़्त
मेरे घर की दिशा पूरब ही होनी चाहिए

मैं मुठभेड़ कर लौटता हूँ
समुद्र से घर की ओर
छोटी नाव के मछुवारे की तरह
कुछ छोटी मछलियां ही उपलब्धि होती हैं
मेरे जीवन की,
घर पहुँचने पर मेरी पत्नी कहती है कि
मुझे गहरे समुद्र में जाल फेंकना चाहिए
लेकिन मैं नेताओं, अधिकारियों, न्यायधीशों
और राज–कारिन्दों के सामने कम पड़ जाता हूँ,
अपनी छोटी सफलताओं पर ख़ुश होने का नाटक करते हुए
पत्नी से कहता हूँ कि आज सब्ज़ी कम दम पर मोल लाया हूँ

हर बार भिड़ता हूँ
रोजमर्रा की तू-तू-मैं से
भीड़-भाड़ की धक्का-मुक्की से
राजनीतिक जुलूसों में, प्रदर्शनों में
चिड़ी होकर चिड़ीमारों से
संविधान की धाराओं से, अनुच्छेदों से,

हर बार विशाल समुद्र से
लौटता हूँ घर की ओर
हर बार घर लौटते हुए
मेरे घर की दिशा पूरब ही होती है कि
अगले दिन सूरज की जगह मैं उदित होऊँगा
………








सुनो ___

माँ के वक्ष-सा
भू पर बिखरे पर्वत
आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में
ज़मीन पर खड़े वृक्ष 
धूप में सूखती नदी के गीले केश
पान कराते हैं जो दैनिक
चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत
मूक खड़े कह रहे हैं
कातर दृष्टि से-
मत ललकारों हमें
मूक हैं किन्तु
अपना अधिकार मालूम है
जो भी प्रतिक्रिया होगी
वह प्रतिशोध नहीं
हक़ की लड़ाई होगी
क्यों तोड़ रहे हो
हमारे घरौन्दों को
हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो
क्या ये जग केवल तुम्हारा है?
न तेरा न मेरा
हम दोनों का यह संसार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।
संवेदन शून्य हम नहीं
हममें भी पीड़ा है
यह तुम्हारी विवेकता का प्रमाण नहीं
शान्त, निर्दोष को छेड़ते हो
हमें भी उन्मुक्त उड़ान की चाह है
जितना पर काटोगे
हम उतना ही फड़केंगे ।
सुधार लो अपना चाल-चलन व्यवहार
हमारे साथ खुद भी मिट जाओगे
न हो जंग आर-पार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।
परीक्षा उचित है किन्तु
अपनी सीमा में
हमारे धैर्य का बाँध जब टूटेगा
टूटेगा मानव तुमपर
टपदाओं का पहाड़
हाथ ऊपर उठेंगें
आँखें बन्द होंगी
किन्तु इस दिखावे से कुछ न होगा
पूजना हो तो
अपने अस्तित्व को पूजो
जो हमसे जुड़ा है।
बाँट लें आपस में प्यार
दोनों का यह अधिकार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।

…………





सबसे बड़ा आश्चर्य ____

सबसे बड़ा  आश्चर्य वह  नहीं
जिसे हम देखना चाहते हों
और देख नहीं पाते
जैसे देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में बैठकर
देखना चाहते हों
ताजमहल या एफिल टावर।

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जो अंतरिक्ष से भी दीख पड़े
तिनके की तरह ही सही
जैसे दिखाई पड़ती है चीन की दीवार।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह नहीं
कि कितनी कलात्मकता से बनाया गया है
ताजमहल या एफिल टावर।

वे हाथ जो नंगे पैर
आवेशित धूप में
बालू, सीमेंट से काढ़ लेते हैं
ताजमहल की-सी कलात्मकता
या खड़ी कर देते हैं चीन की दीवार
जिनके स्मरण में होता है काम के बाद
रात में उनकी पत्नियों के हाथों
तवे पर इठलाती रोटियाँ
जिसके स्वाद का सीधा संबंध
उनके पेट से होता है
सबसे बड़ा आश्चर्य होता है,
जिसको पाने की जद्दोजहद में
रोज़ ईंटों से दबती हैं अँगुलियाँ
और अँगुलियाँ हैं जो
ईंटों का शुक्रिया अदा करती हैं ।

सबसे बड़ा  होता है रोटी
जो तरसी आँखों के सामने
दूसरों के हाथ खेलती दिखाई देती है
और आँखें केवल देखती रह जाती हैं
जिसके होने मात्र के आभास से
पृथ्वी सम लगती है ग्लोब की तरह
नहीं तो यहाँ भी काँटे हैं
खाईयाँ हैं, ऊबड़-खाबड़
………





मैं घायल शिकारी हूँ ____

मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी 
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था 

...हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़ 
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि 
फ़सल हमारी है और हमने ही उसे जोत–कोड कर उपजाया है 
हमने उन्हें बताया कि 
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना 
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है 
हमने हाथ जोड़े, गुहार की 
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे कि 
फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है 
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए 

हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके ख़ूब आते हैं 
लेकिन हमने पहले गीत गाए 
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं , 
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे 
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं ,

और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं 
मेरा बेटा जिसका ब्याह पिछली ही पूरणिमा को हुआ था 
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पडा 

यह टूट्ता हुआ समय है 
पुरखों की आत्माएँ ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं 
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं 
सेंदेरा से पहले हमने 
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए 

मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा 
फ़सलों को देख रहा हूँ 
फ़सलें रौन्दी जा चुकी हैं 
मेरे बदन से लहू रिस रहा है 
रात होने को है और 
मेरे बच्चे, मेरी औरत 
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही है
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ 
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ 
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता 
मुझे विश्वास है कि 
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे 

मैं उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ 
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं 
उसकी टहनियों में लोटते पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ 
जिनके तिंनकों में हमारा घर है 
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ 
जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की 
नदियों को कभी दुखी नहीं किया 
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के 
किसी के दुश्मन नहीं होते 

मैं एक बूढ़ा शिकारी 
घायल और आहत 
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है और 
उम्मीद हर हमले में 
मैं एक आख़िरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ 
.......... 




ग्लोब ___

मेरे हाथ में क़लम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिन्हें मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखाई दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गई लकीरें
उस पार के इंसानी ख़ून से
इस पार की लकीर, और
इस पार के इंसानी ख़ून से
उस पार की लकीर ।

मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेंढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ़ नही पाया
एक आदमी का चेहरा उभारने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह ही झुक गई
और मैं रोने लगा ।

तमाम सुने-सुनाए, बताए
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
ग्लोब झुका हुआ क्यों है
……… 


सम्पादक 
गीता पंडित 
साभार (कविता कोश से )

2 comments:

विभूति" said...

भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...

'साहिल' said...

बहुत अच्छी लगी आपकी कवितायें !