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1.
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे
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2.
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है
.......
3.
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह
बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह
सितम तो ये है कि वो भी ना बन सका अपना
कूबूल हमने किये जिसके गम खुशी कि तरह
कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह
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4.
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए, तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते
निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
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5.
सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उन को मत जगाओ चुप रहो
रात का पत्थर न पिघलेगा शुआओं के बग़ैर
सुब्ह होने तक न बोलो हम-नवाओ चुप रहो
बंद हैं सब मय-कदे साक़ी बने हैं मोहतसिब
ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो
तुम को है मालूम आख़िर कौन सा मौसम है ये
फ़स्ल-ए-गुल आने तलक ऐ ख़ुश-नवाओ चुप रहो
सोच की दीवार से लग कर हैं ग़म बैठे हुए
दिल में भी नग़मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो
छट गए हालात के बादल तो देखा जाएगा
वक़्त से पहले अँधेरे में न जाओ चुप रहो
देख लेना घर से निकलेगा न हम-साया कोई
ऐ मेरे यारो मेरे दर्द-आशनाओ चुप रहो
क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो |
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प्रेषिता
गीता पंडित
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1.
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील"
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे
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2.
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है
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3.
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चाँदनी की तरह
बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह
सितम तो ये है कि वो भी ना बन सका अपना
कूबूल हमने किये जिसके गम खुशी कि तरह
कभी न सोचा था हमने "क़तील" उस के लिये
करेगा हमपे सितम वो भी हर किसी की तरह
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4.
तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए, तुमसे, वो अफ़साने कहाँ जाते
निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
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5.
सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उन को मत जगाओ चुप रहो
रात का पत्थर न पिघलेगा शुआओं के बग़ैर
सुब्ह होने तक न बोलो हम-नवाओ चुप रहो
बंद हैं सब मय-कदे साक़ी बने हैं मोहतसिब
ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो
तुम को है मालूम आख़िर कौन सा मौसम है ये
फ़स्ल-ए-गुल आने तलक ऐ ख़ुश-नवाओ चुप रहो
सोच की दीवार से लग कर हैं ग़म बैठे हुए
दिल में भी नग़मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो
छट गए हालात के बादल तो देखा जाएगा
वक़्त से पहले अँधेरे में न जाओ चुप रहो
देख लेना घर से निकलेगा न हम-साया कोई
ऐ मेरे यारो मेरे दर्द-आशनाओ चुप रहो
क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील'
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो |
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प्रेषिता
गीता पंडित
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