Tuesday, March 13, 2012

पाँच कवितायें .... सुमन केशरी

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औरत ___


रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटियाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
…औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया ।

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बहाने से जीवन जीती है औरत ___


बहाने से जीवन जीती है औरत 
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना 
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना 
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना 
रामायण और भागवत सुनने का बहाना 

घूमने के लिए चलिहा[1] बद मन्दिर जाने का बहाना 
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना 
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना 
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना 

सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना 
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना 
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना 
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना 
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना 

अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत 
इसी तरह जीवन को जीती है औरत 
बहाने से जीवन जीती है औरत…..

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प्रेम __

ओम् की मूल ध्वनि-सा
तुम्हारा प्यार
मस्तिष्क की भीतरी शिराओं तक गूँज गया है
और मुझे हिलोर गया है अंदर तक

एक गहरी सी टीस रह-रह कर उठती है
और मन शिशु की तरह माँ का वक्ष टटोलता है

मैंने तुम्हारे प्रेम को कुछ इस तरह महसूसा
जैसे कि माँ बच्चे के कोमल नन्हें अनछुए होंठों को
पहली बार अनचीन्हे से अंदाज में महसूसती है

दर्द का तनाव अपने सिरजे को छाती से लगाते ही
आह्लाद की धारा में फूट बहता है क्रमश:

गालों पर दूध की बुँदकियाँ लगाए नन्हें से
बच्चे से तुम
अपने विशाल कलेवर के साथ खड़े हो
मेरे सम्मुख

मैं गंगोत्री की तरह फूट पड़ी हूँ ।

2.रात के उस पहर में
जब कोई न था पास
सिवाय कुछ स्मृतियों के
सिवाय कुछ कही-अनकही चाहों
और कुछ अस्फुट शब्दों के
सिवाय एक अधूरे सन्नाटे के

उस वक़्त मैंने तुम्हारे शब्दों को अपना बना लिया

सुनो
अब वे शब्द मेरे भी उतने ही
जितने तुम्हारे
या शायद अब वे मेरे ही हो गये हैं-- गर्मजोशी से थामे हाथ ।
.....

बा ___

कितना कठिन है
शब्दों में तुम्हें समेटना
बा

तुम एक परछाईं-सी सूरज की
उसी के वृत्त में अवस्थित

चंदन लेप के समान
उसको उसी के ताप से दग्ध होने से बचातीं
उसे भास्कर बनातीं
..... 

बा और बापू __

चलते चलते आख़िर थक ही गई
इशारे भर से रोक लिया उसे भी
उस ढलती शाम को
जो जाने कब से तो चल रहा था
प्रश्नो की कँटीली राह पर
नंगे पाँव

नियम तोड़ रुक गया वह
भीग गई आत्मा
लहलहाई
कोरों पर चमकी
यह जानते हुए भी
कि देह भर रुकी है उसकी
शय्या के पास
मन तो भटक ही रहा है
किरिच भरी राहों पर
उन प्रश्नों के समाधान ढ़ूँढ़ता
जो अब तक पूछे ही न गए थे...

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प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार (कविता कोष) से 

3 comments:

Dr.Anita Kapoor said...

बहुत सुंदर कवितायें.....खासकर बहाने से जीती है औरत.....
http://bikharemotee.blogspot.com/

Suman said...

सुमन केशरी: शुक्रिया गीता...कुछ इसी बहाने जीती हैं हम...

Suman said...

आप लोगों ने इन कविताओं को सराहा...शुक्रिया गीता...