Tuesday, February 21, 2012

तीन कवितायें और दो गजल ..... कविता किरण

...
.....

व्यर्थ नहीं हूँ मैं ___


व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।

मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊँचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।

मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!

हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष

मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित, तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।

सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
.....






मैं नहीं हिमकन हूँ जो गल जाऊँगी ___

वत्सला से 
वज्र में 
ढल जाऊंगी,
मैं 
नहीं हिमकण हूँ 
जो गल जाऊंगी।

दंभ के 
आकाश को 
छल जाऊंगी,
मैं 
नहीं हिमकण हूँ 
जो गल जाऊंगी।

पतझरों की पीर की 
पाती सही,
वेदना के वंश की 
थाती सही।
कल मेरा 
स्वागत करेगा सूर्योदय,
आज दीपक की 
बुझी बाती सही।

फिर 
स्वयं के ताप से 
जल जाऊंगी
मैं 
नही हिमकण हूँ 
जो गल जाऊंगी|
....






रिश्ते __


रिश्ते!
गीली लकड़ी की तरह
सुलगते रहते हैं 
सारी उम्र।

कड़वा कसैला धुँआ
उगलते रहते हैं।

पर कभी भी जलकर भस्म नही होते
ख़त्म नही होते।

सताते हैं जिंदगी भर
किसी प्रेत की तरह!
.....




गज़ल __


नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं,
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं।

आँसू पोंछ न पाए अपनी आँखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं।

पानी बरस रहा है जंगल गीला है,
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं।

होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं,
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं।

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं।
....






गज़ल ___


धूप है, बरसात है, और हाथ में छाता नहीं
दिल मेरा इस हाल में भी अब तो घबराता नहीं

मुश्किलें जिसमें न हों वो जिंदगी क्या जिंदगी
राह हो आसां तो चलने का मज़ा आता नहीं

चाहनेवालों में शिद्दत की मुहब्बत थी मगर
जिस्म से रिश्ता रहा, था रूह से नाता नहीं

मांगते देखा है सबको आस्मां से कुछ न कुछ
दीन हैं सारे यहाँ, कोई भी तो दाता नहीं

पा लिया वो सब कतई जिसकी नहीं उम्मीद थी
दिल जो पाना चाहता है बस वही पाता नहीं

जिंदगी अपनी तरह कब कौन जी पाया 'किरण'
वक्त लिखता है वो नगमें दिल जिसे गाता नहीं |
....




प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार ( कविता कोष )

16 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति ...व्यर्थ नहीं हूँ मैं ...एक सच्ची कविता

vandana gupta said...

किरण जी की तीनो कवितायें दोनो गज़लें बेजोड हैं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है

..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

बहुत सुन्दर रचनाएं हैं गीता दी...
आदरणीय कविता जी बधाईयाँ खुबसूरत सृजन के लिए...
सादर आभार.

Madhuresh said...

..व्यर्थ नहीं हूँ मैं..
बहुत सुन्दर रचनाएँ!
सादर

vidya said...

वाह!!!
बहुत अच्छी रचनाएँ..
शुक्रिया

Yashwant R. B. Mathur said...

एक से बढ़ कर एक


सादर

virendra sharma said...

तीनों कवितायें और दोनों गज़लें भाव सागर में डुबो गईं अर्थों के ,भावों के ,रिश्तों के ,.......

विभूति" said...

बहुत ही प्यारी और भावो को संजोये रचना......

Asha Lata Saxena said...

यथार्थ को जीती यह रचना बहुत अच्छी लगी |
बधाई |
आशा

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 26/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

hariom said...

wah,,kiran ji ,,chitron per muskane dharne nikle hain

hariom said...

wah,,kiran ji ,,chitron per muskane dharne nikle hain

hariom said...

wah,,kiran ji ,,chitron per muskane dharne nikle hain

hariom said...

किरण जी की तीनो कवितायें दोनो गज़लें बेजोड हैं

Unknown said...

बहुत सुंदर