राजू मिश्र। फेसबुक को लेकर यह भ्रम टूटा है कि आत्म प्रचार का अखाड़ा या फिर टाइमपास का ही माध्यम मात्र है। यह भी साबित हुआ है कि सकारात्मक कर गुजरने की गुंजाइश हर जगह और हर परिस्थिति में होती है। इस बात की गवाह है-'स्त्री होकर सवाल करती है..!' इस पुस्तक में ऐसी कविताओं को संकलन सूत्र में पिरोया गया है, जो फेसबुक पर सक्रिय 383 महिला रचनाकरों की हैं। यह ऐसी रचनाएं हैं, जिन्हें अपनी वाल पर टैग देखकर मित्र सराहना करते, कुछ दो शब्द लिखने में भी सकुचाते, तो कुछ लाइक का बटन दबाकर काम चलाते रहे। इन रचनाओं को संकलित किया है साहित्यकार मायामृग ने।
यह संकलन उस धारणा को भी बकवास करार देता है कि किचन में आटा रांधने वाली घरेलू स्त्री का सृजनात्मकता से कोई वास्ता नहीं। संकलन निकालने का विचार कैसे कौंधा? इस सवाल पर मायामृग कहते हैं-'..विचार लगातार रचनाओं को पढ़ते हुए बना। महसूस हुआ कि यहां मौजूद रचनाकारों पर जो आक्षेप साहित्यिक गोष्ठियों में बहुधा लगाए जाते हैं, वे वैसे नहीं हैं।'
बहरहाल फेसबुक पर इस संकलन की चर्चा बुलंदी पर है। रचनाकार अपनी कविताओं को किताबी शक्ल में पाकर फूली नहीं समा रहीं। कवि ललिता प्रदीप पांडेय का मानना है कि संकलन का यह प्रयोग सर्वथा नया है और स्वस्तिमयी आश्वस्ति देने वाला है। संकलन की संपादक डा. लक्ष्मी शर्मा कहती हैं कि यह पूरी परंपरा को चुनौती है, जिसने सवालों का सदा कत्ल किया। पुरुष सत्ता स्त्री के सवाल को हमेशा दबाती आई है। मायामृग कहते कैं कि रिस्पांस वाकई उत्साह बढ़ाने वाला है। नई योजनाओं के लिए प्रोत्साहित करता है। अभी आगे के लिए कुछ स्पष्ट तय नहीं किया है, लेकिन फेसबुक पर मौजूद रचनाकारों से विषय के बंधन से रहित कविताएं, गजलें आमंत्रित करने पर विचार चल रहा है। उम्मीद है जल्द कुछ तय हो पाएगा।
प्रमुख रचनाएं
अनवरत युद्ध [आभा], प्रेम करने वाली औरतें [अतुल कनक], नदी [अर्पण], ए आदमी [अलका], तुम्हारा यह घर [अनुज], स्त्री और स्त्री [अर्पिता], औरत [बेबी], कमरा, बच्ची और तितलियां [गोपीनाथ], पहचान हूं मैं [गीता], डर है [हिमांशु], दोष [प्रयास], स्तब्ध [कविता], सोचना तो होगा [अजय], भरोसे की कीमत [ललिता पांडेय], अभाव [निशा], कैसे कर लेते हो ? [निधि ] नई युद्ध नीति [प्रेम], मैं हूं स्त्री [प्रेरणा], स्त्रियां [रमेश], स्त्रियों के नाम [रवि], परिचय [शर्मिष्ठ], कल जब मैं न रहूंगी [सुमन]।
...
.....
आज
अभी हैं
सिक्त नयन
पहले
उनको
सपने दे दूँ
अधरों
के
कंपन
को पहले
सहलाकर
मुस्काहट दे दूँ
फिर
आऊँगी
द्वार
तुम्हारे
नेह
भरे ले
रस के प्याले
तुम
मुक्ति
के
द्वार खोलना
स्वप्न
वही हूँ
मन में पाले ||
..... गीता पंडित .
4 comments:
इस उपलब्धि के लिए बधाई और शुभकामनाएं। मायामृग जी ने सचमुच एक नई पहल की है।
Geeta ji kam shabdon me gahre bhav ...vah kamal ki abhivykti ...badhai
han aaj ye khabar maine bhi padi newspaper me. acchhi pahal hai.
बहुत बेहतरीन....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
Post a Comment