Tuesday, September 11, 2012

महादेवी वर्मा के गद्य ....... मन्नू भंडारी



महादेवी वर्मा के काव्य की तरह ही उनका गद्य विशेषकर उनके संस्मरण भी बहुत ही लोकप्रिय हुए। गद्य में उन्होंने कभी कहानियाँ तो नहीं लिखीं पर उनके संस्मरणों में कहानियाँ की रोचकता के साथ-साथ काव्य की करुणा, संवेदना और लयात्मकता तो है ही, उनके गहरे सामाजिक सरोकार की झलक भी मिलती है। आज तो जीवनी, आत्मकथा और संस्मरण बेहद प्रचलित और लोकप्रिय विधा हो गई है पर महादेवी जी के समय यह विधा कुछ विरल ही थी। आम तौर पर व्यक्ति या तो अपने मित्रों, परिचितों पर संस्मरण लिखता है या फिर ऐसे सम्मानित व्यक्तियों पर, जिनका सहयोग लेखक के अपने व्यक्तित्व को भी सहेजता-संवारता है और इसीलिए वे उसकी स्मृति का एक अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं। 

लेकिन ‘स्मृति की रेखाएं’ और ‘अतीत के चलचित्र’ में संकलित महादेवीजी के इन संस्मरणों के पात्र न तो मित्र-परिचितों की कोटि में आते हैं और न सम्मानित व्यक्तियों की कोटि में। ये तो गांव के निरक्षर, निसहाय निर्धन, विपन्न लोग हैं जो अपने अस्तित्व के कठिन संघर्ष को झेलते हुए ही अपनी ज़िंदगी काट रहे हैं. पर ऐसे अति सामान्य लोगों के व्यक्तित्व का भी कोई सकारात्मक, कोई उज्जवल पक्ष होता ज़रूर है। बस, उसे देखने के लिए महादेवी वर्मा जैसी सहदय मन और संवेदनशील दृष्टि चाहिए। 

झूँसी गाँव में स्कूल के अभाव में हुड़दंग मचाते बच्चों को देखकर वे पेड़ के नीचे ही एक पाठशाला खोल देती हैं और वहीं परिचय होता है समाज के तिरस्कृत, बेहद-बेहद ग़रीब बच्चे धीसा से। उसकी पढ़ने की अदम्य लालसा और निश्छल गुरुभक्ति देखकर वे भीतर तक भींग उठती हैं। बचपन में संपर्क में आई उस बाल-विधवा के जीवन की भयंकर त्रासदी ने कैसे उस उम्र में भी अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि बरसों बाद भी मिटना तो दूर, वह धुंधली तक नहीं हुई। कॉलेज में आकर रोज़ सब्ज़ी बेचने वाला अंधा अलोपी, दंगे के दिन भी जिसके मन में अपने प्राणों से ज़्यादा चिंता बच्चियों के खाने की है, जैसे-तैसे सब्ज़ी ले आता है। 

उसका सरल, स्नेही समर्पित व्यक्तित्व महादेवी जी की नज़रों से बच सकता था भला? जीवन की भयंकर यातनाएँ सहकर भी हमेशा प्रसन्न रहने वाली लछमा का अद्भुत जीवन-दर्शन, जो तीन-चार दिन तक भूखे रहने पर मिट्टी के गोले बनाकर खा लेती है और उन्हें ही लड्डू समझकर तृप्त भी हो लेती है और हँसकर कहती है, ‘‘यह सब तो सोच की बात है, जो सोच लो, वही सच.’’ अपने इसी सोच से चकित कर देती हैं वह महादेवी वर्मा को. मार्मिक कथा में लिपटी चीनी फेरीवाले की देशभक्ति को सेविका मलिन की प्रगल्भयुक्त स्वामीभक्ति. बस, ऐसे ही हँसते-रोते अनेक पात्र हैं। इन संस्मरणों के जो जीवन में चाहे जितने आम हों महादेवी जी की कलम के कौशल ने साहित्य में तो इन्हें विशेष बना ही दिया। 

इन संस्मरणों के संदर्भ में जहाँ तक महादेवी जी के सामाजिक सरोकार का प्रश्न है तो इतना तो स्पष्ट है कि इनमें इन्होंने कहीं भी समाज की विकृतियों पर प्रहार करना तो दूर, एक-दो अपवादों को छोड़कर उनका उल्लेख तक नहीं किया। पर समाज का जो वर्ग उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा है, समाज के जिन बेबस, असहाय लोगों पर उन्होंने अपनी सहानुभूति उड़ेली है, क्या वही उनके गहरे सामाजिक सरोकार का प्रमाण नहीं? 

संस्मरण की दूसरी पुस्तक है-’पथ के साथी’। इसमें इन्होंने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है. अपने अग्रज कवींद्र रवींद्र और मैथिलीशरण गुप्त के प्रति यदि सम्मान का स्वर प्रमुख है तो निराला और सुभद्राकुमारी चौहान के प्रति लगाव भरी आत्मीयता का। ये एक ओर संस्मरण हैं तो दूसरी ओर इनमें इन्होंने अपने पथ के साथियों के जीवन-दर्शन को परखने का प्रयत्न भी किया है। 

और अंत में इन संस्मरणों की भाषा. इसमें कोई संदेह नहीं कि गद्य में मैं हमेशा से सरल, सहज और पारदर्शी भाषा की समर्थक रही हूँ, जो पाठक को सीधे कथ्य के साथ जोड़ दे। महादेवी की भाषा सरल, सहज तो कतई नहीं है पर उनकी क्लिष्ट भाषा में भी एक ख़ास तरह की लय, पारदर्शिता और चित्रात्मकता ज़रूर है। आप पढ़ते चलिए और बिना किसी अवरोध के अपने पूरे परिवेश के साथ उस चरित्र का ऐसा सजीव चित्र आपके सामने खड़ा हो जाएगा कि भाषा की सारी कठिनाई उसी में तिरोहित हो जाएगी। यह उनकी भाषा का ही कमाल है कि इन अत्यंत साधारण से पात्रों के व्यक्तित्व के सारे उज्जवल और त्रासद पक्ष आपकी स्मृति का भी अभिन्न हिस्सा हुए बिना नहीं रह सकते। 

मन्नू भंडारी (बीबीसी से साभार)



प्रेषिका 
गीता पंडित 




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