Tuesday, December 27, 2011

देवताले की कविता और स्त्रियाँ : एक कृतग्य पुरुष का आख्यान... Ashok Kumar Pandey




(पिछले दिनों पहले महेश पुनेठा और फिर अलका सिंह के आलेख से चन्द्रकांत देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर एक बहस यहाँ शुरू हुई थी. अभी देवताले जी पर एक लंबा आलेख लिखते हुए उसका एक खंड मैंने भी स्त्री विषयक कविताओं पर लिखा...उसे ही प्रस्तुत कर रहा हूँ.)


देवताले के काव्यजगत में स्त्रियाँ आद्योपांत उपस्थित हैं. स्त्री के प्रति जितनी व्यापक, उदात्त और संवेदनशील दृष्टि उनके पास है, हिन्दी में शायद किसी दूसरे कवि के पास नहीं. अभी हाल में ही युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य ने उनकी स्त्री विषयक कविताओं का एक संकलन ‘धनुष पर चिड़िया’ तैयार किया है. हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श के प्रवेश के पहले ही देवताले और रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है. लीलाधर मंडलोई ने बिल्कुल सटीक टिप्पणी की है कि ‘कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियाँ किसी के पास नहीं.


देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर बात करने से पहले मैं दो बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ – पहली यह एक पुरुष की कविताएँ हैं और उन्हें कभी परकाया प्रवेश की ज़रूरत महसूस नहीं होती. प्रफुल्ल शिलेदार के पूर्वोद्धरित उद्धरण से उनके शब्द उधार लूँ तो वह अंतर्बाह्य के कवि हैं. और दूसरी यह कि ये एक कृतग्य और भावुक पारिवारिक कवि की कविताएँ हैं. परिवार उनकी कविताओं में जब भी आता है देवताले एक पारिवारिक पुरुष में तबदील हो जाते हैं. ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ में एक कविता है – ‘बबुआ और गुलामजादे’. यहाँ एक अधिकारी की सेवा में तैनात चार नौकर हैं जिनकी नौकरी का हिस्सा है साहब के बबुआ को खिलाना. साहब के घर पर अपने मनुष्यत्व को गिरवी रख देने वाले इन पुरुषों से देवताले सवाल करते हैं –


पर घर आते ही जोरू पर
तुम टूट पड़ते हो बाज की तरह
मर्द, बास्साह, ठाकुर बन तन जाते हो
अपने माँस के लोथड़ों खातिर
आदमी बनने में भी शर्म आती है
मूंछें शायद इससे ही कट जाती हैं

कन्हैया, मोती, मांगू,उदयराम
अपनी जोरू अपने बच्चे
क्यों तुमको दुश्मन लगते हैं?


इस विडंबना की पहचान देवताले जैसा संवेदनशील पारिवारिक कवि ही कर सकता है. इस आलेख के आरंभ में मैंने उनके संकलन ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ की एक कविता ‘इस पठार पर’ का ज़िक्र किया था जिसमें वह मालवा के अफीम पैदा करने वाले इलाके की पारंपरिक रूप से वैश्यावृति करने वाली बांछड़ा महिलाओं के जीवन की भयावह विडंबना का ज़िक्र करते हैं. इस कविता में उन स्त्रियों के साथ अनाज काटती, कोयला बीनती श्रमजीवी औरतें पत्थर तोड़ते, अफसरों के घर पर उनके घरेलू काम करते, खेतों में खटते पुरुषों के साथ उपस्थित हैं, जिनकी खुशी बस ‘चकमक पत्थर की चमक जितने देर की होती है’ और देवताले इस ज़ुल्म के खिलाफ आहिस्ता-आहिस्ता बदलते जा रहे मुट्ठियों के अर्थ को देख पा रहे हैं- ज़ाहिर है ये संयुक्त मुट्ठियाँ है – स्त्री-पुरुष श्रमजीवियों की संयुक्त मुट्ठियाँ. उनका यह आह्वान कैफी आजमी की प्रसिद्द नज़्म ‘उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे’ की याद दिलाता है. महिलाओं का श्रम और उसकी उपेक्षा देवताले की कविताओं में बार-बार आते हैं. और शायद इसीलिए स्त्रियों के प्रति वह एक गहरे कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं. 


अपने कस्बाई समाज में घर-परिवार-चूल्हे-चौके की आदमखोर चक्की में पिसती औरत उन्हें व्यग्र करती है. बिल्कुल शुरुआती दौर की उनकी एक कविता है – ‘घर में अकेली औरत के लिए’. बाहर कमाने गए पुरुष की प्रतीक्षा में घर की चहारदीवारी के अंदर घुटती औरत से वह कहते हैं कि ‘तुम नहाओ जी भर/ आईने के सामने कपडे उतारो/आईने के सामने पहन लो फिर/ आईने को देखो इतना कि वह/ तड़कने-तड़कने को हो जाए/पर उसके तड़कने के  पहले/ अपनी परछाई हटा लो/घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है.’ ‘लकडबग्घा हंस रहा है’ में उनकी बहुचर्चित कविता ‘औरत’ है, जहाँ कपड़े पछींटती, आटा गूंथती, सूप फटकती, दूध पिलाती, श्रम में संलग्न ‘खर्राटे भरते आदमी के बगल में निर्वसन जागती औरते हैं. कविता का अंत इन पंक्तियों से होता है –


एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कबसे   
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं.


देवताले इन बेचेहरा और बेरास्ता महिलाओं के लिए भीतर तक करुणा से भरे हैं. इसीलिए वह जब माँ पर लिखते हैं तो कहते हैं कि ‘माँ पर नहीं लिख सकता कविता’, बेटियों पर कविता लिखते हुए डर जाते हैं, ‘बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ’ लिखते हुए उन्हें याद आता है कि ‘कवि तो इस समय लेटे हुए अख़बार पढ रहे होंगे’ और खाना परोसती निम्न मध्यवर्गीय माँ के लिए लिखते हैं – ‘कम खुदा न थी परोसने वाली’. ऎसी तमाम कविताओं कि बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उनके संकलनों से उद्धरित किया जा सकता है. लेकिन उद्धरणों का ढेर लगाने की जगह मैं इन कविताओं की मूल प्रवृति पर थोड़ी सी बात करना चाहूँगा.


जैसा कि मैंने पहले कहा कि ये एक पुरुष की कविताएँ हैं. इनमें स्त्री के उस श्रम के प्रति एक करुणा और एक क्षोभ तो है, लेकिन इससे आगे जाकर स्त्री को चूल्हे-चौकी से आजादी दिलाने की ज़िद नहीं. जहाँ औरत आती है वहाँ सुस्वादु भोजन मन से खिलाती हुई (माँ के सन्दर्भ में और फिर पत्नी के सन्दर्भ में भी इन कविताओं में स्नेह से भोजन परसने के दृश्य आते हैं) औरत सामने आती है. उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.


लेकिन यहाँ यह कहे बिना बात पूरी नहीं होगी कि देवताले की कविताओं में स्त्रियों की जितनी उदात्त और मानवीय छवियाँ हैं उतनी उन तमाम कवियों के यहाँ नहीं जिन्हें स्त्री संबंधी कविताओं के लिए लगातार रेखांकित किया गया. उनका कवि कृतग्य पुरुष है जो अपनी पारिवारिकता को विस्तार देते हुए अपने चतुर्दिक उपस्थित स्त्रियों की विडंबनाओं की सटीक पहचान ही नहीं करता अपितु उसे लगातार प्रश्नांकित करता है. यह समकालीन स्त्री विमर्श की प्रगतिशील धारा की स्वाभाविक पूर्व-पीठिका है.

साभार 

( देवताले पर अलका सिंह का लिखा आलेख भी यहीं ब्लॉग में है )

प्रेषिका 
गीता पंडित 

Sunday, December 18, 2011

अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि ...अपने प्रिय गीतकार श्री "भारत भूषण " को ...उन्ही के गीतों से ..


आज मैं उस व्यक्तित्व की बात कर रही हूँ जिनका जन्म ही गीत के लिए हुआ ....    
" मेरठ "  में जन्में  ... वरिष्ठ गीतकार "श्री भारत भूषण"  थोड़े से गीतों के रचनाकार होते हुए भी  
वह कितने बड़े गीतकार थे यह शब्दों में व्यक्त कर पाना उतना ही असम्भव है  
जितना ये अनुमान लगाना कि वह गीतकार से बड़े इंसान थे और इंसान से  
बड़े गीतकार|  


 "सागर के सीप" 1958 और  "ये असंगति" 1993 __ दो संग्रह उपलब्ध है |



मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि ... उन्ही के गीतों से ___    







.....

चक्की पर गेँहू लिए खड़ा मै सोच रहा उखड़ा उखड़ा
क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई ।



लेखनी मिली थी गीतव्रता
प्रार्थना- पत्र लिखते बीती
जर्जर उदासियों के कपड़े
थक गई हँसी सीती- सीती
हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई।



कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी
ज़िद करती है गुब्बारों की
यत्नों से कई गुनी ऊँची
डाली है लाल अनारों की
प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई।



गीतों की जन्म-कुंडली में
संभावित थी ये अनहोनी
मोमिया मूर्ति को पैदल ही
मरुथल की दोपहरी ढोनी
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।
.........








सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ
प्रिय मिलने का वचन भरो तो !



पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ
फूट पडे पतझर से लाली
तुम अरुणारे चरन धरो तो !



रात न मेरी दूध नहाई
प्रात न मेरा फूलों वाला
तार-तार हो गया निमोही
काया का रंगीन दुशाला
जीवन सिंदूरी हो जाए
तुम चितवन की किरन करो तो !



सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आँजूँ अँधियारी
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी
साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो|
.......







ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ ।
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ ।



है दर्द-कीट ने 
युग-युग इन्हें बनाया
आँसू के 
खारी पानी से नहलाया



जब रह न सके ये मौन, 
स्वयं तिर आए
भव तट पर 
काल तरंगों ने बिखराए



है आँख किसी की खुली 
किसी की सोती
खोजो, 
पा ही जाओगे कोई मोती



ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ
.......








राम की जल समाधी ___


पश्चिम में ढलका सूर्य 
उठा वंशज 
सरयू की रेती से,
हारा-हारा,
रीता-रीता, 
निःशब्द धरा, 
निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर 
पर रोम-रोम 
था टेर रहा सीता-सीता।


किसलिए रहे अब ये शरीर, 
ये अनाथ-मन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, 
धरती मुझको किसलिए सहे।


तू कहाँ खो गई वैदेही, 
वैदेही 
तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीव 
नयन बोले, 
काँपी सरयू, 
सरयू काँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, 
नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, 
अब साँस-साँस 
संग्राम हुई।


ये राजमुकुट, 
ये सिंहासन, 
ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन 
जीवन मेरा, 
सामने नदी की अगम धार,
माँग रे भिखारी, 
लोक माँग, 
कुछ और माँग 
अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में 
नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जल महल बना, 
फिर राम मिलें न मिलें तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।


ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, 
किस ठौर कहां तुझको जोडूँ,
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, 
बोलूँ भी तो किससे बोलूँ,


सिमटे 
अब ये लीला सिमटे, 
भीतर-भीतर गूँजा भर था,
छप से पानी में पाँव पड़ा, 
कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, 
रतिमुख सखियाँ, 
नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, 
पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। 


फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा,
लहरों-लहरों, 
धारा-धारा, 
व्याकुलता फिर 
पारा-पारा।


फिर एक हिरन-सी 
किरन देह, 
दौड़ती चली आगे-आगे,
आँखों में जैसे बान सधा, 
दो पाँव उड़े 
जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, 
आया लो नाभि-नाभि पानी,


जल में तम, 
तम में जल बहता, 
ठहरो बस और नहीं 
कहता,
जल में कोई 
जीवित दहता, 
फिर 
एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक धक लपटों में 
निर्विकार, 
सशरीर सत्य-सी 
सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, 
पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।


आगे लहरें 
बाहर लहरें, 
आगे जल था, 
पीछे जल था,
केवल जल था, 
वक्षस्थल था, 
वक्षस्थल तक 
केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, 
बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, 


फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक 
जगर-मगर, 
दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, 
बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, 
लो शून्य राम 
लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, 
लहरें-लहरें 
सरयू-सरयू, 
सरयू-सरयू 
लहरें- लहरें,
लहरें-लहरें  
केवल तम ही तम, 
तम ही तम, 
जल जल ही 
जल ही जल केवल,
हे राम-राम, 
हे राम-राम
हे राम-राम, 
हे राम-राम ||
........


प्रेषिका 
गीता पंडित 

Tuesday, December 13, 2011

तीन कवितायें .....कविता वाचक्नवी की..

....
......

1 
घर__ 


(दस भाव) .__     


1
ये बया के घोंसले हैं,
नीड़ हैं, घर हैं- हमारे
जगमगाते भर दिखें
सो
टोहती हैं
केंचुओं की मिट्टियाँ
हम।

2
आज
मेरी बाँह में
घर आ गया है
किलक कर,
रह रहे
फ़ुटपाथ पर ही
एक नीली छत तले।

3
चिटखती
उन
लकड़ियों की गंध की
रोटी मिले,
दूर से
घर लौटने को
हुलसता है
मन बहुत।

4
सपना था
काँच का
टूट गया झन्नाकर
घर,
किरचें हैं आँखों में
औ’
नींद नहीं आती।

5
जब
विवशता
हो गए संबंध
तो फिर घर कहाँ,
साँस पर
लगने लगे प्रतिबंध
तो फिर घर कहाँ?

6
अंतर्मन की
झील किनारे
घर रोपा था,
आँखों में
अवशेष लिए
फिरतीं लहरें।

7
लहर-लहर पर
डोल रहा
पर
खेल रहा है
अपना घर,
बादल!
मत गरजो बरसो
चट्टानों से
लगता है डर।

8
घर
रचाया था
हथेली पर
किसी ने
उंगलियों से,
आँसुओं से धुल
मेहंदियाँ
धूप में
फीकी हुईं।

9
नीड़ वह
मन-मन रमा जो
नोंच कर
छितरा दिया
तुमने स्वयं
विवश हूँ
उड़ जाऊँ बस
प्रिय!
रास्ता दूजा नहीं।

10  
साँसों की
आवाजाही में
महक-सा
अपना घर
वार दिया मैंने
तुम्हारी
प्राणवाही
उड़ानों पर।

.......












2 __


अश्रु __



इस चेहरे के अक्षर
गीले हैं, सूरज!
कितना सोखो
सूखे,
और चमकते हैं।
........



3  
औरतों के नाम ___
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास 
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुँह भी
कैसे मुस्कुरा लेते हैं इतना,

और, आप !
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के 
पारदर्शी चमड़े
के नीचे
लाल से नीले
और नीले से हरे
उँगलियों के निशान
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढँके
आँचलों में सिमटे
नंगई सँवारते हैं। 

टूटे पुलों के छोरों पर 
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतो !
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं - चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
दल-दल बन गए हैं
पानी लगातार तुम्हारे डूबने की
साजिशों में लगा है, 

अंधेरे ने छीन ली है भले
आँखों की देख 

पर मेरे पास 
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला ।|
.....


साभार ( कविता कोश से )

प्रेषिका गीता पंडित 

Monday, December 5, 2011

चंद्रकांत देवताले की कविता और स्त्री विमर्श..... अलका सिंह




आज चन्द्र्कांत देवताले जी के कविता संग्रह ‘धनुष पर चिडिया’ पर महेश पुनेठा का आलेख पढा तब से सोच में हूँ. सोच में हूँ कि कहाँ से शुरु करुँ जो कुछ कहना चहती हूँ? कैसे शुरु करुँ अपनी बात? दरअसल पुनेठा जी ने स्त्री होने के मतलब और् उसके दुख दर्द जैसे विषय चन्द्रकांत देवताले जी की कविताओं के माध्यम से उठाये हैं. मैं अपनी बात कहते हुये दोनों महनुभावों से विनम्रता पूर्वक माफी चाहूंगी क्योंकि यदि बात स्त्री विमर्श की हो और कविता उसका माध्यम हो मैं लिखने और बोलने की गुस्ताखी जरूर करुंगी. और यह गुस्ताखी आज मैं देवताले जी की कविताओं के माध्यम से कर रही हूँ.


 दरअसल बहुत दिनों से मन में था कि पुरुष रचनाकार और स्त्री विमर्श पर कुछ लिखा जाये. पिछ्ले कई महीनो से मैं काफी गम्भीरता से कई पुरुष् रचनाकारों को पढ रही हूँ. और समझने की कोशिश में हूँ कि ये रचनाकार अपनी कविता में स्त्री को किस रूप में देखते और प्रतिस्थापित करते हैं. स्त्री को लेकर उनकी समझ समाज को क्या दे रही है. 


मेरा मानना है कि जब भी कोई रचनाकार स्त्री को केन्द्रबिन्दु बनाकर लिखता है तो उसकी कविताओं के माध्यम से उसका पूरा परिवेश, समाज, सामाजिक मान्यता, उसकी शिक्षा और उस कवि द्वारा स्त्री को समझ लेने की क्षमता का आभास उसकी कविताओं के माध्यम से होता है. कुलमिलाकर  कहा जाये तो आपके सामने कवि का पूरा का पूरा काल खंड किसी चलचित्र की तरह घूम जाता है. इसीलिये जब पुनेठा जी ने देवताले जी की कविता में स्त्री के दुख और स्त्री होने के मतलब की बात की तब __


मन सोच में पड गया कि क्या पुरुष की कलम सही मयनो में आज भी समझ पायी है स्त्री को? क्या उसकी कलम अपने समाज के आधे हिस्से के साथ सम्वाद कर पायी है आज तक? सच कहूँ तो जब भी मैं पुरुष रचनाकारों को स्त्री के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करती हूँ एक गहरे दुख से भर उठती हूँ. लगता है इस  पृथ्वी पर ईश्वर ने स्त्री और पुरुष के रूप में मानव के दो हिस्से दिये हैं किंतु कैसी विड्म्बना है कि दोनो कई सम्बन्धो मे समाजिक और किसी खास सम्बन्ध में शारीरिक रूप से एक दूसरे से कितने पास होते हुए भी मानसिक  रूप से कितने दूर हैं. 


सच कहूं तो यह दूरी और एक खास तरह का छद्म मुझे पुरुष रचनाओं में निरंतर नज़र आता है. बात देवताले जी की हो रही है तो उन्हीं की रचनाओं से ही शुरु करती हूँ. यहां मैं स्पष्ट कर दूं की मैं उन्हीं कविताओं पर बात कर रही हूँ जिन कविताओं का उल्लेख पुनेठा जी ने अपने आलेख में किया है. एक बात और मैं इस सन्दर्भ में कुछ और कवियों और उनकी स्त्री पर लिखी कविता को भी रखूंगी किंतु शुरुआत चन्द्रकांत देवताले के स्त्री विमर्श से होगी. बहरहाल अब बात सबसे पहले देवताले जी की कविता की इन पंक्तियोंपर –
सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से


नहीं सोचता कभी कोई बात 
जुल्म और ज्यादती के बारे में 
अगर नही होती 
प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही 
मैने अपने आपको पह्चाना है...


दोस्तों, पुनेठा जी ने इस कविता पर जो कुछ भी लिखा मैं उसपर कोई टिप्प्णी ना करते हुए बस अपनी बात कहने की कोशिश कर रही हूँ बस इस आशय  से कि पुरुष कविता में स्त्री क्या है और कहां है. पुरुष रचनाकार स्त्री को लेकर किस तरह से सोचता है? क्या वह स्त्री को महज़ अपने लिये (पुरुष के लिये ) बनायी गयी समझता है या फिर वह उसे भी एक इंसान के रूप में अपनी कविताओं में प्रतिस्थपित करता है? यह सही है कि कवितायें कवि का वक्तव्य होती हैं किंतु वह अपने साथ एक बडे द्रिश्य भी लेकर आती हैं यही वज़ह है कि  मैं यहाँ देवताले जी के ‘मैं’ को व्यापक् रूप से देखते हुए भी बात करुंगी और एक पुरुष् की अभिव्यक्ति के रूप में भी सम्झने की कोशिश करुंगी. साथ ही उनकी औरत को भी कुछ ऐसे ही समझने  का प्रयास करुंगी.


मुझे यकीन है कि देवताले जी की इस कविता को बहुत पसन्द किया गया होगा. और सच कहूँ तो एक नज़र में यह कविता दाद के कबिल भी है  मैने इस कविता की इन लाइनों को कैईयों बार पढा और कई कोणों से समझने का प्रयास किया किया. हर बार मुझे लगा यह कविता आज भी उसी मोड पर खडे समाज का चित्रण कर रही है जब कहा जाता था ‘’एक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है’’. 


यह कविता एक इंच भी उस वक्त से नही आगे बढी है.  आप देखिये इस वक्तव्य को जब वो कहते हैं ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर् ही मैने अपने आपको  पह्चाना. क्योंकि ‘’अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरत इस पृथ्वी पर’’ मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से, नहीं सोचता कोई बात जुल्म और ज्यदती के बारे में.


आखिर क्या मतलब लगाया जाये इस वक्तव्य का ? 


क्या समझा जाये ? पूरी कविता पढ कर मन में सवाल उठता है कि क्या यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष नकारा होता ? यदि स्त्री नहीं होती तो वो भगोडा होता? यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष कोई समजिक दयित्व नहीं निभाता? अगर ऐसा है तो यह दुनिया पुरुष प्रधान कैसे है ? और फिर सहज़ ही सवाल उठता है कि कहीं यह स्त्री को उसी रूप में यथावत बनाये रखने का प्रयास तो नहीं है जिसमें आजतक् वो जीती आयी है? एक शंका हो उठती है और मन  फिर सवाल कर उठता है कि क्या यह मात्र कवि की बात है? या फिर यह कविता आज के समाज के पुरुष के मनोभाव को सहज़ ही हमारे सामने रख रही है?


क्योंकि अगर यह कविता मात्र कवि के मनोभाव हैं तब तो आसानी से कहा जा सकता है कि कवि का अंतर्मन एक अद्भुत आभार् से भरा है. वह अपनी सभी सफलताओं और कर्मों के पीछे स्त्री के संग और सहयोग की बात कह उस स्त्री जिसके संग ने उसे जीवन का अर्थ समझाया को  एक तरह का सन्देश देना चाहता है कि सब


 ‘तुम्हारे’ कारण की सम्भव हुआ है और तुम्हारा प्रेम महान है'


किसी स्त्री पुरुष के आपसी जीवन के लिये यह वक्तव्य एक अनुभूति है जो स्त्री के लिये गर्व पैदा करती है किंतु जैसे ही इस कविता के मैं को बडे अर्थों मे लेकर देखने का प्रयास करती हुँ जैसे इसके सारे मायने ही उलट जाते हैं और कविता की ये लाइने कहने लगती हैं जैसे ये एक् प्रयास है यह कहने का कि स्त्री और उसका प्रेम पुरुष जीवन के लिये जैसे सफलता और जिन्दगी के मायने समझने  की जैसे गारंटी है और इसिलिये वह जैसे  यह सन्देश दे रहा है कि स्त्री एक ऐसी प्रजाति है जो सिर्फ पुरुष को प्रेम करने के लिये ही पृथवी पर आयी है और इस जगत के सारे काम तब ही सम्भव होते हैं जब वह पुरुष को प्रेम करती है. इतिहास उठा कर देखा जाये तो पुरुष के इस तरह के कथन पर स्त्री हमेशा ही मुग्ध रही है और आज भी है.


वह प्रेम के कुछ पलों को आज भी बटोर कर ही जीती आयी है और इसी को उसकी ताकत कहा गया है.
तो क्या स्त्री पात्र पुरुष लेखन में ऐसे ही उभरते रहने चहिये ?  क्या यह ही स्त्री का रूप होना चाहिये ? क्या पुरुष ऐसे ही स्त्री को निरंतर देखना चहता है? और यह भी कि  कविता और पुरुष कवि के मन में ‘वह’ कब एक इंसान के रूप में उभर कर आयेगी? कब उसके प्रेम की जगह उसकी सफलता और उसके मनोभाव पुरुष कलम का हिस्सा बनेगे? मेरे यह सवाल उस कवि से हैं जिसकी कलम से उपरोक्त पंक्तियां निकली हैं क्योंकि यहां मैं कवि और उसके अंतर्मन में नारी को देख रही हूँ. यह सवाल इसलिये भी कि यह बात अकेले देवताले जी नहीं कह रहे ठीक इसी भाव से मंगलेश डबराल भी लिख चुके हैं


 ‘’ तुम्हारे भीतर बची रही एक स्त्री एक स्त्री के करण’’. 


अन्य कवि भी जो स्त्री को अपनी कविताओं को अपना विषय बनाते हैं.


कई बार मुझे हर ऐसी कविता में स्त्री के सन्दर्भ को पढ्कर लगता  है कि इस  दौर के कवि स्त्री को लेकर एक तरह का छद्म ओढे रहते हैं और औपचारिकता वश या यों  कहें कि अपने को सबसे बेहतर सोच वाले कवि या विचारक के रूप में दर्शाने की कोशिश करते हैं. यही वज़ह है कि  पुरुष जब भी स्त्री को विषय बनाकर इस तरह की कवितायें करता है जहां कहा जता है कि स्त्री का प्रेम महान है तो सहज़ ही मन कह उठता है कि ‘’ यह पुरुष अंतर्मन का एक छद्म है’’ एक अज़ीब सी औपचारिकता किंतु इन कवितओं का दूसरा पक्ष बेहद खतरनाक होता है. आप देखें  - ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है’’. स्त्री की सामाजिक स्थितियों को यदि सन्दर्भ में रख्कर देखा जाये तो यह कविता बेहद आत्म्केद्रित दीखती है ऐसा लगता है कि . स्त्री के विषय उठाकर भी पुरुष् सिर्फ और सिर्फ अपनी ही बात करता है. अगर भरोसा ना हो तो आप देखें – सचमुच मैं भाग जाता ........................नहीं सोचता ....... आदि आदि.
दूसरी रचना की कुछ पंक्तियां देखें


ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं  
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं


इन लाइनों को पढने से यह बात सबसे पहली बात जो जहन में आती है कि स्त्री जैसे आदमी नहीं होती.?  दूसरी बात जो साफ - साफ दिखती है कि कि पुरुष को अपनी , अपने पुरुष समाज, उसकी स्थिती और उसके हालत  की कितनी चिंता है. और ‘वह’ तो बस एक एक थके – मान्दे पस्त आदमी को हरे – भरे गाते दरख्त में बदल  देने के लिये होती है.मन सवाल करता है कि क्या कभी किसी ने  सोचा कि आखिर ‘वो’ ऐसा क्यों करती है? क्या वह यही करना चाह्ती है? या फिर उसे ऐसा करने के लिये ही तैयार किया जाता है? यहां मैं सिमोन का वक्तव्य याद दिलान चाहुंगी कि ‘ स्त्री वह है जो बनयी गयी है’’. देवताले जी से माफी के साथ एक रचना की कुछ और पंक्तियाँ यहां रखना चाहूंगी-


तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत प्रपात
जीवन तुम्हारी धडकनो से
मैं जुगनू
चमकता
तम्हारी अन्धेरी
नाभी के पास


मैं इन पंक्तियों को पढ्कर हैरान हूँ.


हैरान इसलिये नही कि कविता बहुत अच्छी है बल्कि इसलिये कि स्त्री की देह आज भी उतनी ही प्रभवी है जितनी कि रितिकाल में थी. और हैरान इसलिये भी कि यहां भी बात बस अपनी उस स्त्री की देह और उसके माध्यम से और कुछ पा लेने का स्वार्थ ऐसा कि मैं जुगनू ................... 


बहरहाल  मेरा मानना है कि कविता एक सामाजिक सरोकार को लेकर हामारे सामने आती है. उसका अपना एक दायित्व होता है अगर कविता अपने इस दायित्व का वहन नही करती तो निश्चय ही वह कविता कविता होने के अपने अर्थ खो देती है. यही वज़ह है कि मैं उपर की कविता की सभी पक्तियोंको उसके सामजिक दायित्व के तराजू  में रखकर भी देखने की कोशिश कर रही हूं. इसिलिये सोचती हूँ कि पुरुष कलम से चित्रित की गयी स्त्री आज भी वैसी ही है जैसी वह आज से जमाने पहले थी तो इस कविता के समाजिक सरोकार को किस सन्दर्भ में लिया जाये? 


क्या पुरुष के अंतर्मन के रूप में? या फिर स्त्री को उस रूप में जिस रूप में उसे कविता में रखा गया है? जहिर है स्त्री के प्रेम का जो रूप चित्रित किया गया है उसे बडे सरोकारों में रख देने से स्त्री केलिये खतरे बढ जायेंगे तो फिर इसे किस रूप में देखना होगा? इसीलिये पहली कविता की लाइनों को बडे सरोकारों के सन्दर्भ में रखते ही मेरा मन फिर सवाल कर उठता है कि 


क्या आज के पुरुष स्त्री को उसी रूप में देखने के पक्षधर हैं जैसे कि उनके पूर्वजों ने स्त्री को देखा है? क्या आज भी स्त्री उनकी प्रेरणा श्रोत है? क्या वह आज भी स्त्री के भीतर रह्कर अपने को पह्चान पाता है? क्या उसे भी एक अदद प्रेम करने वाली स्त्री के होने के बाद ही दुनिया के मायने समझ  में आते हैं? 


जवाब निश्चय ही कविता नही देती वह महज अपनी बात कह्कर अलग हो जाती है किंतु जवाब के लिये हमें समाज में जाना ही होगा और समझना ही होगा कि आज का पुरुष क्या है ? उसकी स्त्री को लेकर सोच क्या है? क्या वह वही सोचता है जो कविता कहती है? यदि हाँ तो आज की स्त्री को चौकन्ना रहन होगा और यदि नही तो भी चौकन्ना रह्कर देखना होगा कि वह किस दिशा में उसे ले ज़ाने के प्रयास में है.


साभार 




प्रेषिका 
गीता पंडित