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थोड़ी सी उलझन है कि बात कहां से शुरु की जाए। एक साथ कई विषय खुल गए हैं जैसे कि कभी स्क्रीन पर एक साथ कई चैटिंग विंडो खुल जाएं और समझ में न आए कि किस मित्र को पहले जवाब दिया जाए। जो विषय यहां खुल रहे हैं - एक कवयित्री की कविता का टेक्सट, कविता पर एक मित्र की आलोचनात्मक टिप्पणी, कविता के एक युग का नकार, महिला लेखन का स्तर, सुविधाभोगी लेखन (एसी कमरे में बैठकर लिखी गई रचना)और कविता के बहाने महिला-पुरुष मनोविज्ञान पर चर्चा। बात शुरु करें उस कविता से जिसके बहाने यह बहस शुरु हुई। इसके टेक्सट को देखें-
वही कहाँ कब मिल पाता है,
सब कुछ मिल जाता है लेकिन
कटा-फटा मन सिल कर लाएँ |
मित्र की आपत्ति शायद इस बात को लेकर अधिक है कि फेसबुक पर कुछ लोग बिना पढ़े समझे ही लाइक पर क्लिक कर देते हैं या वाह वाह--- जैसे हल्के फुल्के कमेंट लिखकर बात को समझने के रास्ते बंद कर देते हैं। पर मित्र हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं कि जिससे ये पता लग सके कि किसने सोच समझ कर लाइक या वाह किया है और किसने बस इसलिए कि उसे लगा कि चलो एक स्त्री की तारीफ की जाए--। रही बात मित्रों की -- तो मित्र ही तो कमेंट करेंगे, रचना पोस्ट ही उनके लिए की जाती है कि मित्र पढ़ें और अपनी राय दें, उत्साह बढ़ायें या कमी हो तो बताएं या कि कुछ ऐसे सुझाव दें कि रचनाकार अपनी बेहतरी कर सके। इसमें जानकार लोग भी होंगे और नए जानकार भी बनेंगे। और अगर बात यह कि स्त्री रचनाकार पर अधिक टिप्पणियां क्यूं आती हैं तो सवाल पुरुष खेमे की ओर उछाला जाना चाहिए न कि स्त्री की ओर।
मित्रों का कहना उचित ही है कि किसी रचना पर पाठकों को आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित है। पर अधिकार का प्रयोग भी सावधानी की मांग करता है। जहां दूसरे के अधिकार शुरु होते हैं वह आपके अधिकार की सीमा है---।
हमने स्त्री को दो ध्रुवों के बीच ला पटका है। धुर दक्षिणपंथी इसे देवी बनाने पर तुले रहे हैं और अब भी तुले हैं दूसरी ओर कथित प्रगतिशील इसे स्वतंत्रता का स्वपन दिखाकर परतंत्र बनाए रखने के तमाम हथकंडे अपनाए हुए हैं। किसी एक पोस्ट पर मित्र अरुण मिश्रा जी ने टिप्पणी की थी- "मैं हर उस स्त्री को विद्रोह के लिए उकसाता हूं, जो मेरी पत्नी नहीं है---।" ये कुछ शब्द पूरे एक रहस्य को बेनकाब करने के लिए काफी हैं।
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सपनों में जो महल चिनायें ,
शब्दों में जिसको आ गायें,वही कहाँ कब मिल पाता है,
सब कुछ मिल जाता है लेकिन
मन का सुमन न खिल पाता है,
चलो चलें फिर उसे मनायें,कटा-फटा मन सिल कर लाएँ |
एक स्त्री के भावुक क्षणों की सरल अभिव्यक्ति। जिसमें भले ही बौद्घिकता प्रखर ना हो, भले ही क्रांतिधर्मी चेतना इसमें न दिखती हो पर एक स्त्री के निजी पलों की बेचैनी इसमें जरुर झलकती है। ''कटा फटा मन सिलकर लाएं'' यह आखिरी पंक्ति अभिधा का अतिक्रमण करती है और इसमें निश्चय ही अभिव्यक्ति की सामर्थ्य भी झलकती है। इसे भावहीन कहने में काफी दिक्कत है, अभिव्यक्ति के स्तर पर आलोचना संभव है और जरुरी भी। अभिव्यक्ति में कच्चेपन पर बात करेंगे तो जानना रुचिकर होगा कि किसी भी बड़े रचनाकार की शुरुआती रचनाएं कैसी थीं---।
एक आलोचक मित्र ने इसे द्विवेदीयुगीन कविता कहा, कहने में कविता के एक पूरे युग के प्रति नकार भी ध्वनित हुई--। हिन्दी कविता के विकास क्रम में किसी भी युग को नकार कर विकास की बात करना वैसा ही होगा जैसे सीढ़ियों को नकार कर शिखर की चर्चा करना। द्विवेदी युग को कविता का अंधकार काल रहा हो, ऐसा मानना मौजूदा कविता की नींव खिसकाने जैसा ही काम होगा। आपत्ति शायद इस बात को लेकर की गई कि समय बदल गया है, युग के सच बदल गए हैं, समस्याएं और अनुभूतियां बदल गई हैं ऐसे में अभिव्यक्ति में आज भी कोई बीता युग क्यों बोलता है--। यह वाकई वैध प्रश्न है--- लेकिन भारतीय समाज में स्त्री को मिले अवसरों और स्वतंत्रता के प्रश्न से अलग करके इसे नहीं देखा जा सकता।
स्त्री मुक्ति के सवाल पर चर्चा किए बिना स्त्री लेखन पर बात करना एकांगी होगा। अभिव्यक्ति कैसी होगी-- यह आपकी आलोचना का विषय है, लेकिन किसकी अभिव्यक्ति कैसी होगी, यह समग्र विषय है। आप स्त्री लेखन को उसकी सामाजिक स्थिति से अलग करके नहीं देख सकते। सवाल यह कि हम स्त्री लेखन को समकालीन पुरुषों द्वारा किए जा रहे लेखन के साथ तुलनात्मक रुप से देखते समय उनकी सामाजिक हैसियत को नजरअंदाज करके उसी तरह की गलती कर रहे हैं जैसा कि हमने दलित लेखन के मामले में की है। जैसा कि हम आरक्षण के प्रश्न पर अक्सर कर बैठते हैं जाने अनजाने।
मित्र की आपत्ति शायद इस बात को लेकर अधिक है कि फेसबुक पर कुछ लोग बिना पढ़े समझे ही लाइक पर क्लिक कर देते हैं या वाह वाह--- जैसे हल्के फुल्के कमेंट लिखकर बात को समझने के रास्ते बंद कर देते हैं। पर मित्र हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं कि जिससे ये पता लग सके कि किसने सोच समझ कर लाइक या वाह किया है और किसने बस इसलिए कि उसे लगा कि चलो एक स्त्री की तारीफ की जाए--। रही बात मित्रों की -- तो मित्र ही तो कमेंट करेंगे, रचना पोस्ट ही उनके लिए की जाती है कि मित्र पढ़ें और अपनी राय दें, उत्साह बढ़ायें या कमी हो तो बताएं या कि कुछ ऐसे सुझाव दें कि रचनाकार अपनी बेहतरी कर सके। इसमें जानकार लोग भी होंगे और नए जानकार भी बनेंगे। और अगर बात यह कि स्त्री रचनाकार पर अधिक टिप्पणियां क्यूं आती हैं तो सवाल पुरुष खेमे की ओर उछाला जाना चाहिए न कि स्त्री की ओर।
मित्रों का कहना उचित ही है कि किसी रचना पर पाठकों को आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित है। पर अधिकार का प्रयोग भी सावधानी की मांग करता है। जहां दूसरे के अधिकार शुरु होते हैं वह आपके अधिकार की सीमा है---।
फेसबुक पर स्त्री लेखन का स्तर, यह रोचक विषय हो सकता है। साथ ही यह भी कि फेसबुक पर लेखन का कुल जमा स्तर क्या है---। और यह भी कि इस मंच ने पहली बार उन अनेकानेक मित्रों को अपने घर आँगन से बाहर निकलने का अवसर दिया है। मित्र इसे भले ही सुविधाभोगी स्त्रियों का लेखन कहकर खारिज करना चाहते हैं लेकिन क्या हमने कभी इन स्त्री जीवन को इतना मुक्त मान लिया है कि उसे असुविधा में आकर लिखने की अनुमति हो---। क्या हम अपने कथित प्रगतिशील समाज में स्त्री को अपने ही समान अवसर और अधिकार देने पर राजी हो गए हैं। स्त्री के अनुभव का दायरा हमने ही समेटा, हमने ही उसे घर की दीवारों में चिनवाया, हमने ही उसे किचन की कब्र में दफनाया--- िफर हम ही उसके अनुभवों को सीमित बताकर उसकी हर बात को स्तरहीन कह देते हैं। आप कह सकते हैं कि मध्यवर्गीय नागरी स्त्रियां तो स्वतंत्र हैं--- पर क्या सचमुच--। दिल पर हाथ रखकर सोचें-- । एसी कमरें भी बंद जेल हो सकते हैं यह स्वीकार पाने में थोड़ी कठिनाई तो होगी पर इसे समझ और जान लेना सच को पहचानने की ओर जरुरी कदम होगा। कभी उस स्थिति में किसी को ना जीना पड़े, यही दुआ कीजिए।
हमी लोग हैं जिन्होंने स्त्रियां ज्यादा बोलती हैं, स्त्रियां चुगली करती हैं के जुमले रचे, हमीं ने स्त्रियों पर चुटकुले बनाए---। खुद स्त्री कब हमारे इस षड़यंत्र में शामिल होकर हमारे स्टीरियो में बोलने लगी, उसे पता भी नहीं लगा। तब हमें आसानी हुई ये कहने में स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है।
हमने अपनी कथित क्रांतिकारी चेतना में स्त्री को साथ लेने की कोशिश्ा ही कितनी की है, जो की है उसमें ईमानदारी का अंश कितना रहा-- उसके नतीजों पर हमने खुद को कटघरे में खड़ा क्यूं नहीं किया--- हम स्त्री के तमाम पिछड़ेपन के जिम्मेदार लोग उसे उसके पिछड़ेपन के लिए गरियाते हैं तो ये गालियां आसमां की ओर मुंह करके थूकने जैसी बात लगती है। कितनी स्त्रियों को पढ़ने लिखने का अधिकार िमला, आइये बात करें कि हमारे समाज में स्त्री शिक्षा के नाम पर चल क्या रहा है--। आइये बात करें कि हमने स्त्री को लिखने-पढ़ने की छूट कितनी दी है। आइये बात करें कि हमने स्त्री के अनुभवों को चारदीवारी से बाहर विस्तार देने के लिए किया क्या है---।
हमने स्त्री को दो ध्रुवों के बीच ला पटका है। धुर दक्षिणपंथी इसे देवी बनाने पर तुले रहे हैं और अब भी तुले हैं दूसरी ओर कथित प्रगतिशील इसे स्वतंत्रता का स्वपन दिखाकर परतंत्र बनाए रखने के तमाम हथकंडे अपनाए हुए हैं। किसी एक पोस्ट पर मित्र अरुण मिश्रा जी ने टिप्पणी की थी- "मैं हर उस स्त्री को विद्रोह के लिए उकसाता हूं, जो मेरी पत्नी नहीं है---।" ये कुछ शब्द पूरे एक रहस्य को बेनकाब करने के लिए काफी हैं।
अंत में सवाल यह कि हम लिखने पढ़ने की संस्कृति के लगातार कम होते जाने पर चिंता जताने वाले लोग क्या इसी तरह से हतोत्साहित करके, तीखी टिप्पणी से अपनी उच्चता का भान कराकर, नए लिखने वालों को, भिन्न भिन्न वर्गों से आ रहे नए रचनाकारों को स्तरहीनता का बोध कराने में तुष्टि पाते हैं या कि किसी के लिखे में जितना अंश भी अच्छा भी लगे उसे अच्छा बताकर उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। सहानुभूति शब्द का प्रयोग किया एक मित्र ने--- यह मुझे अहंपूर्ण शब्द लगता है, सहानुभूति जताने वाला कहीं ऊंचे से देखता है नीचे की ओर--- यह प्रोत्साहन का तरीका नहीं, अपनी गुरुता जताने का तरीका है। 'पंगु' शब्द तो हमारी अपनी लघुता दर्शाता है, शारीरिक चुनौती झेल रहे व्यक्ति के लिए इस शब्द का प्रयोग हमारी उस तथाकथित सहानुभूति की पोल खोल देता है जो हम बेहद दयाभाव से जता रहे होते हैं।
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प्रेषिका
गीता पंडित