Thursday, July 28, 2011

गीता पंडित की कविता के बहाने से ...माया मृग का एक आलेख

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थोड़ी सी उलझन है कि बात कहां से शुरु की जाए। एक साथ कई विषय खुल गए हैं जैसे कि कभी स्‍क्रीन पर एक साथ कई चैटिंग विंडो खुल जाएं और समझ में न आए कि किस मित्र को पहले जवाब दिया जाए। जो विषय यहां खुल रहे हैं - एक कवयित्री की कविता का टेक्‍सट, कविता पर एक मित्र की आलोचनात्मक टिप्‍पणी, कविता के एक युग का नकार, महिला लेखन का स्‍तर, सुविधाभोगी लेखन (एसी कमरे में बैठकर लिखी गई रचना)और कविता के बहाने महिला-पुरुष मनोविज्ञान पर चर्चा। बात शुरु करें उस कविता से जिसके बहाने यह बहस शुरु हुई। इसके टेक्‍सट को देखें-


सपनों में जो महल चिनायें ,
शब्दों में जिसको आ गायें,
वही कहाँ कब मिल पाता है,
सब कुछ मिल जाता है लेकिन
मन का सुमन न खिल पाता है,
चलो चलें फिर उसे मनायें,
कटा-फटा मन सिल कर लाएँ |


एक स्‍त्री के भावुक क्षणों की सरल अभिव्‍यक्ति। जिसमें भले ही बौद्घिकता प्रखर ना हो, भले ही क्रांतिधर्मी चेतना इसमें न दिखती हो पर एक स्‍त्री के निजी पलों की बेचैनी इसमें जरुर झलकती है। ''कटा फटा मन सिलकर लाएं''  यह आखिरी पंक्ति अभिधा का अतिक्रमण करती है और इसमें निश्‍चय ही अभिव्‍यक्ति की सामर्थ्‍य भी झलकती है। इसे भावहीन कहने में काफी दिक्‍कत है, अभिव्‍यक्ति के स्‍तर पर आलोचना संभव है और जरुरी भी। अभिव्‍यक्ति में कच्‍चेपन पर बात करेंगे तो जानना रुचिकर होगा कि किसी भी बड़े रचनाकार की शुरुआती रचनाएं कैसी थीं---।


एक आलोचक मित्र ने इसे द्विवेदीयुगीन कविता कहा, कहने में कविता के एक पूरे युग के प्रति नकार भी ध्‍वनित हुई--। हिन्‍दी कविता के विकास क्रम में किसी भी युग को नकार कर विकास की बात करना वैसा ही होगा जैसे सीढ़ियों को नकार कर शिखर की चर्चा करना। द्विवेदी युग को कविता का अंधकार काल रहा हो, ऐसा मानना मौजूदा कविता की नींव खिसकाने जैसा ही काम होगा। आपत्ति शायद इस बात को लेकर की गई कि समय बदल गया है, युग के सच बदल गए हैं, समस्‍याएं और अनुभूतियां बदल गई हैं ऐसे में अभिव्‍यक्ति में आज भी कोई बीता युग क्‍यों बोलता है--। यह वाकई वैध प्रश्‍न है--- लेकिन भारतीय समाज में स्‍त्री को मिले अवसरों और स्‍वतंत्रता के प्रश्‍न से अलग करके इसे नहीं देखा जा सकता।


स्‍त्री मुक्ति के सवाल पर चर्चा किए बिना स्‍त्री लेखन पर बात करना एकांगी होगा। अभिव्‍यक्ति कैसी होगी-- यह आपकी आलोचना का विषय है, लेकिन किसकी अभिव्‍यक्ति कैसी होगी, यह समग्र विषय है। आप स्‍त्री लेखन को उसकी सामाजिक स्थिति से अलग करके नहीं देख सकते। सवाल यह कि हम स्‍त्री लेखन को समकालीन पुरुषों द्वारा किए जा रहे लेखन के साथ तुलनात्‍मक रुप से देखते समय उनकी सामाजिक हैसियत को नजरअंदाज करके उसी तरह की गलती कर रहे हैं जैसा कि हमने दलित लेखन के मामले में की है। जैसा कि हम आरक्षण के प्रश्‍न पर अक्‍सर कर बैठते हैं जाने अनजाने।


मित्र की आपत्ति शायद इस बात को लेकर अधिक है कि फेसबुक पर कुछ लोग बिना पढ़े समझे ही लाइक पर क्लिक कर देते हैं या वाह वाह--- जैसे हल्‍के फुल्‍के कमेंट लिखकर बात को समझने के रास्‍ते बंद कर देते हैं। पर मित्र हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं कि जिससे ये पता लग सके कि किसने सोच समझ कर लाइक या वाह किया है और किसने बस इसलिए कि उसे लगा कि चलो एक स्‍त्री की तारीफ की जाए--। रही बात मित्रों की -- तो मित्र ही तो कमेंट करेंगे, रचना पोस्‍ट ही उनके लिए की जाती है कि मित्र पढ़ें और अपनी राय दें, उत्‍साह बढ़ायें या कमी हो तो बताएं या कि कुछ ऐसे सुझाव दें कि रचनाकार अपनी बेहतरी कर सके। इसमें जानकार लोग भी होंगे और नए जानकार भी बनेंगे। और अगर बात यह कि स्‍त्री रचनाकार पर अधिक टिप्‍पणियां क्‍यूं आती हैं तो सवाल पुरुष खेमे की ओर उछाला जाना चाहिए न कि स्‍त्री की ओर।

मित्रों का कहना उचित ही है कि किसी रचना पर पाठकों को आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित है। पर अधिकार का प्रयोग भी सावधानी की मांग करता है। जहां दूसरे के अधिकार शुरु होते हैं वह आपके अधिकार की सीमा है---।


फेसबुक पर स्‍त्री लेखन का स्‍तर, यह रोचक विषय हो सकता है। साथ ही यह भी कि फेसबुक पर लेखन का कुल जमा स्‍तर क्‍या है---। और यह भी कि इस मंच ने पहली बार उन अनेकानेक मित्रों को अपने घर आँगन  से बाहर निकलने का अवसर दिया है। मित्र इसे भले ही सुविधाभोगी स्त्रियों का लेखन कहकर खारिज करना चाहते हैं लेकिन क्‍या हमने कभी इन स्‍त्री जीवन को इतना मुक्‍त मान लिया है कि उसे असुविधा में आकर लिखने की अनुमति हो---। क्‍या हम अपने कथित प्रगतिशील समाज में स्‍त्री को अपने ही समान अवसर और अधिकार देने पर राजी हो गए हैं। स्‍त्री के अनुभव का दायरा हमने ही समेटा, हमने ही उसे घर की दीवारों में चिनवाया, हमने ही उसे किचन की कब्र में दफनाया--- ि‍फर हम ही उसके अनुभवों को सीमित बताकर उसकी हर बात को स्‍तरहीन कह देते हैं। आप कह सकते हैं कि मध्‍यवर्गीय नागरी स्त्रियां तो स्‍वतंत्र हैं--- पर क्‍या सचमुच--। दिल पर हाथ रखकर सोचें-- । एसी कमरें भी बंद जेल हो सकते हैं यह स्‍वीकार पाने में थोड़ी कठिनाई तो होगी पर इसे समझ और जान लेना सच को पहचानने की ओर जरुरी कदम होगा। कभी उस स्थिति में किसी को ना जीना पड़े, यही दुआ कीजिए। 
हमी लोग हैं जिन्‍होंने स्त्रियां ज्‍यादा बोलती हैं, स्त्रियां चुगली करती हैं के जुमले रचे, हमीं ने स्त्रियों पर चुटकुले बनाए---। खुद स्‍त्री कब हमारे इस षड़यंत्र में शामिल होकर हमारे स्‍टीरियो में बोलने लगी, उसे पता भी नहीं लगा। तब हमें आसानी हुई ये कहने में स्‍त्री ही स्‍त्री की दुश्‍मन है।


हमने  अपनी  कथित  क्रांतिकारी  चेतना  में  स्‍त्री  को  साथ  लेने की  कोशिश्‍ा  ही  कितनी  की  है,  जो  की  है  उसमें  ईमानदारी  का  अंश  कितना  रहा--  उसके  नतीजों  पर  हमने  खुद  को  कटघरे  में  खड़ा  क्‍यूं  नहीं  किया--- हम स्‍त्री  के  तमाम  पिछड़ेपन  के  जिम्‍मेदार  लोग  उसे  उसके  पिछड़ेपन  के  लिए  गरियाते  हैं  तो  ये  गालियां  आसमां  की  ओर  मुंह  करके  थूकने  जैसी  बात  लगती  है।  कितनी  स्त्रियों  को  पढ़ने  लिखने  का  अधिकार  ि‍मला,  आइये बात  करें कि  हमारे  समाज  में  स्‍त्री  शिक्षा  के  नाम  पर  चल  क्‍या  रहा  है--।  आइये  बात  करें  कि हमने  स्‍त्री  को  लिखने-पढ़ने  की  छूट  कितनी  दी  है।  आइये बात  करें  कि  हमने  स्‍त्री  के  अनुभवों  को  चारदीवारी से  बाहर विस्‍तार  देने  के  लिए  किया  क्‍या  है---। 


हमने स्‍त्री को दो ध्रुवों के बीच ला पटका है। धुर दक्षिणपंथी इसे देवी बनाने पर तुले रहे हैं और अब भी तुले हैं दूसरी ओर कथित प्रगतिशील इसे स्‍वतंत्रता का स्‍वपन दिखाकर परतंत्र बनाए रखने के तमाम हथकंडे अपनाए हुए हैं। किसी एक पोस्‍ट पर मित्र अरुण मिश्रा जी ने टिप्‍पणी की थी- "मैं हर उस स्‍त्री को विद्रोह के लिए उकसाता हूं, जो मेरी पत्‍नी नहीं है---।" ये कुछ शब्‍द पूरे एक रहस्‍य को बेनकाब करने के लिए काफी हैं।


अंत में सवाल यह कि हम लिखने पढ़ने की संस्‍कृति के लगातार कम होते जाने पर चिंता जताने वाले लोग क्‍या इसी तरह से हतोत्‍साहित करके, तीखी टिप्‍पणी से अपनी उच्‍चता का भान कराकर, नए लिखने वालों को, भिन्‍न भिन्‍न वर्गों से आ रहे नए रचनाकारों को स्‍तरहीनता का बोध कराने में तुष्टि पाते हैं या कि किसी के लिखे में जितना अंश भी अच्‍छा भी लगे उसे अच्‍छा बताकर उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। सहानुभूति शब्‍द का प्रयोग किया एक मित्र ने--- यह मुझे अहंपूर्ण शब्‍द लगता है, सहानुभूति जताने वाला कहीं ऊंचे से देखता है नीचे की ओर--- यह प्रोत्‍साहन का तरीका नहीं, अपनी गुरुता जताने का तरीका है। 'पंगु' शब्‍द तो हमारी अपनी लघुता दर्शाता है, शारीरिक चुनौती झेल रहे व्‍यक्ति के लिए इस शब्‍द का प्रयोग हमारी उस तथाकथित सहानुभूति की पोल खोल देता है जो हम बेहद दयाभाव से जता रहे होते हैं।

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प्रेषिका
गीता पंडित

Monday, July 25, 2011

तीन कवितायेँ .... ऋषभ देव शर्मा की...आपके लियें...

 
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1) गर्भ भार
 
संभल कर , बहुरिया ,
त्रिशला देवी के सोलहों सपनों का सच
तेरे गर्भ मे है |
 
नहीं,
दिव्यता का आलोक
केवल तीर्थंकरों की माताओं के ही
आनन पर नहीं विराजता ,
हर बेटी , हर बहू
जब गर्भ भार वह करती है
उतनी ही आलोकित होती है |
 
हिरण्यगर्भ है
हर स्त्री !
उसके भीतर प्रकाश उतरता है ,
प्रभा उरती है ,
प्रभामंडल जगमगाते हैं ,
प्रकाश फूटता है
उसी के भीतर से |
 
प्रकाश सोया रहता है
हर लड़की के घट में ,
और जब वह माँ बनती है
नहा उठती है
अपने ही प्रकाश में ,
अपनी प्रभा में |
अपने प्रभामंडल में |
 
संभल कर , बहुरिया ,
तेरे अंग-अंग से किरणें छलक रही हैं |
........ 
 
 
 
 
2)   मुझे पंख दोगे
 
 
मैंने किताबें मांगी
मुझे चूल्हा मिला ,
मैंने  दोस्त मांगा
मुझे दूल्हा मिला |
 
मैंने सपने मांगे
मुझे प्रतिबंध मिले ,
मैंने संबंध मांगे
मुझे अनुबंध  मिले |
 
कल मैंने धरती मांगी थी
मुझे समाधि मिली थी ,
आज मैं आकाश माँगती हूँ
मुझे पंख दोगे ?
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4) अम्मा , ग़रज़  पड़े चली आओ चूल्हे की भटियारी !
 
दो बेटे हैं मेरे
बहुत प्यार से धरे थे मैंने
इनके नाम बलजीत और बलजोर |
 
गबरू जवान निकले दोनों ही
जब जोट मिलाकर चलते ,
सारे गाँव की छाती पर साँप लॉट जाता
मेरे छातियाँ उमग उमग पड़तीं ,
मैं बलि बलि जाती
अपने कलेजे के टुकड़ों की |

वक्त बदल गया
कलेजे के टुकड़ों ने
कलेजे के टुकड़े कर दिये
ज़मीन का तो बँटवारा किया ही
मां भी बाँट ली |
 
ज़मीन के लिए लड़े दोनों
-अपने अपने पास रखने को  ,
मां के लिए लड़े दोनों
-एक दूसरे के मत्थे मढने को |

बलजोर ने बरजोरी लगवा लिया अंगूठा
तो मां उसके काम की न रही ,
बलजीत के भी तो किसी काम की न रही |
 
दोनों ने दरवाज़े बंद कर लिए ,
मैं बाहर खड़ी तप रहीं हूँ भरी दुपहरी ,
            दो जवान बेटों की मां |
 
जीवन भर रोटी थेपती आई
आज भी जिसका चूल्हा झोंकूँ ,
रोटी दे दे ___ शायद | |
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साभार (कविता कोष) से


प्रेषिका
गीता पंडित

Monday, July 18, 2011

५ कवितायेँ ..आकांक्षा पारे .....जिनमें राग है, प्रेम है,, प्रतीक्षा है, औरत होने का खूबसूरत अहसाह है

 
 
 
1)
देहरी पर आती
पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम
प्रखर रश्मियों के बीच

कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम
पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी
तुम्हारी याचना
,
पिता का क्रोध
भाई की अकड़
माँ के आँसू

शाम बुहारने लगी जब दालान
मैंने चुपके से समेट लिया
गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा
क़ैद है आज भी वो
मखमली डिबिया में

रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया
नहीं खोलती मैं

सितारे निकल भागें दुख नहीं
बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं
गर निकल जाए
डिबिया से
तुम्हारी परछाई का टुकड़ा
तो क्या करूंगी मैं?
......


2) दक्ष गृहिणी

गुस्सा जब उबलने लगता है दिमाग में
प्रेशर कुकर चढ़ा देती हूँ गैस पर
भाप निकलने लगती है जब
एक तेज़ आवाज़ के साथ
ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाता है दिमाग
पलट कर जवाब देने की इच्छा पर
पीसने लगती हूँ, एकदम लाल मिर्च
पत्थर पर और रगड़ कर बना देती हूँ
स्वादिष्ट चटनी

जब कभी मन किया मैं भी मार सकूँ
किसी को
तब
धोती हूँ तौलिया, गिलाफ़ और मोटे भारी परदे
जो धुल सकते थे आसानी से वॉशिंग मशीन में
मेरे मुक्के पड़ते हैं उन पर
और वे हो जाते हैं
उजले, शफ़्फ़ाक सफ़ेद

बहुत बार मैंने पूरे बगीचे की मिट्टी को
कर दिया है खुरपी से उलट-पलट
गुड़ाई के नाम पर
जब भी मचा है घमासान मन में

सूती कपड़ों पर पानी छिड़क कर
जब करती हूं इस्त्री
तब पानी उड़ता है भाप बन कर
जैसे उड़ रही हो मेरी ही नाराज़गी
किसी जली हुई कड़ाही को रगड़ कर
घिसती रहती हूँ लगातार
चमका देती हूँ
और लगता है बच्चों को दे दिए हैं मैंने इतने ही उजले संस्कार

घर की झाड़ू-बुहारी में
पता नहीं कब मैं बुहार देती हूँ अपना भी वजूद
मेरे परिवार में, रिश्तेदारों में, पड़ोस में
जहाँ भी चाहें पूछ लीजिए
सभी मुझे कहते हैं
दक्ष गृहिणी।
.......
 
 
 
 
3) बदलती परिभाषा

बचपन में कहती थी माँ
प्यार नहीं होता हँसी-खेल
वह पनपता है दिल की गहराई में
रोंपे गए उस बीज से
जिस पर पड़ती है आत्मीयता की खाद
होता है विचारों का मेल।

साथ ही समझाती थी माँ
प्रेम नहीं होता गुनाह कभी
वह हो सकता है कभी भी
उसके लिए नहीं होते बंधन
न वह क़ैद है नियमों में

आज अचानक बदल रही है माँ
अपनी ही परिभाषा
उसके चेहरे पर उभर आया है भय
जैसे किया हो कोई अपराध उसने

अब समझाती है वह
परियों और राजकुमारियों के किस्सों में
पनपता है प्यार
या फिर रहता है क़िताबों के चिकने पन्नों पर
लेकिन एक दिन आएगा
जब तुम कर सकोगी प्यार, सच में

ज़माना बदल जाएगा
प्रेम का रेशमी अहसास
उतर आएगा, खुरदुरे यथार्थ पर
तब तक, बस तब तक
बन्द रखो अपनी आँखें
और समेट लो सुनहरे सपने।
.......
 
 
4)
बित्ते भर की चिंदी
पीले पड़ गए उन पन्नों पर
सब लिखा है बिलकुल वैसा ही
कागज़ की सलवटों के
बीचबस मिट गए हैं कुछ शब्द।

अस्पष्ट अक्षरों को
पढ़ सकती हूं बिना
रूके आज भीबित्ते भर की चिंदी मेंसमाई हुई हूँ मैं।

अनगढ़ लिखावट
से
लिखी गई है एक अल्हड़ प्रणय-गाथा
उसमें मौज़ूद है
सांझे सपने,
सांझा
भयझूले से भी लंबी प्रेम की पींगेउसमें मौज़ूद है

मुट्ठी में दबे
होने का गर्म अहसासक्षण भर को खुली हथेली की ताजा साँस
फिर पसीजती हथेलियों
में क़ैद होने की गुनगुनाहट
अर्से से पर्ची ने
देखी नहीं है धूम
न ले
पाई है वह चैन की नींद
कभी डायरी
तो कभी संदूकची में
छुपती रही
है यहाँ-वहाँताकि कोई देख न ले
और जान न जाए
चिरस्वयंवरा होने का राज।
.......


५)
इस बार
 
 
इस बार मिलने आओ तो फूलों के साथ र्दद भी लेते आना
बांटेंगे, बैठकर बतियाएंगे
मैं भी कह दूंगी सब मन की।

इस बार
मिलने आओ तो
जूतों के साथ
तनाव भी
बाहर छोड़ आना
मैं कांधे पे तुम्हारे रखकर सिर
सुनाऊंगी रात का सपना।

इस बार
मिलने आओ तो
आने की मुश्किलों के साथ दफ़्तर के किस्से मत सुनाना
तुम छेडऩा संगीत
मैं देखूंगी तुम्हारे संग
चांद का धीरे-धीरे आना।

इस बार
मिलने आओ तो
वक़्त मुट्ठी में भर लाना
मैं कस कर भींच लूंगी
तुम्हारे हाथ
हम दोनों संभाल लेंगे
फिसलता हुआ वक़्त

यदि
असम्भव हो इसमें से कुछ भी
मत सोचना कुछ भी
मैं इंतज़ार करूंगी फिर भी।
.....
 
 
 आकांक्षा पारे
साभार (कविता कोष)
 
प्रेषिका
गीता पंडित
 
 

Tuesday, July 12, 2011

टंगी हुयी फ्राक और सुपर डैड .. [कहानी] - श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’

मेरी प्रतीक्षा नहीं,
मेरे आगमन पर प्रसन्नता नहीं,
उदास लटके हुए चेहरे ... ............ आखिर क्यूँ...?????






टंगी हुयी फ्राक और सुपर डैड ---कहानी
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“अंश ...."मोबाइल के स्क्रीन पर नाम देखते ही आंखों में आश्चर्य के साथ उसने पूछा।

“अरे ऎसा कुछ नहीं.. यह तो बस घर का नाम ... मैंने पहले ही कहा था| नाम बस अंग्रेजी के ए अक्षर से ही आरम्भ होगा। एग्जामिनेशन रोल वगैरा में ऊपर आता है। बाकी आप सब लोग जो भी नाम रखना चाहें। कृति ने मन की भावनायें छुपाने का असफल प्रयास किया।


 
“मुझे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता .. ’अंश’ अच्छा नाम है। इसे ही रख लेंगे पहले उसे इस दुनिया में आने दो...” वर्षों की आकुल प्रतीक्षा के बाद मातृत्व सुख की देहरी पर खड़ी उस नव मां के उभरे हुये पेट पर उसने एक दृष्टि डाली और बात टालने के लिये दूसरे कमरे में चला आया।
 
बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। ... उसके मष्तिष्क में विचारों की आंधी उठ रही थी।
उसका मस्तिष्क बस यही सोच रहा था कि सारे नाम...... सारी चर्चा ऎसी क्यों जिससे आभास हो कि बेटा ही आयेगा... कपड़े .. बातें भावी योजनायें सब से ऎसा प्रतीत होता कि आने वाले बेटे की बातें हो रही हैं... दादी, नानी, ताई और सम्भावी मां सब.. परिवार में छोटे बच्चे से बात करते तो उसके आने वाले भाई की बातें ही करते ...
.
 
वह यह सब देखता सुनता और स्वयं को आहत अनुभव करता। ..... बेटा और बेटी के बीच भेद भावना उसे प्रमुख रूप से महिलाओं में अधिक प्रतीत होती। उसका अपना जीवन तो महिलाओं के संरक्षण को सपर्पित था। पारिवारिक और सामाजिक विरोध की प्रतिकूल आंधी में भी वह अपनी सामाजिक संस्था के कार्य से जुड़ा रहा। 
 
 
उसने सोचा यदि वह स्वयं भी इसी भेदभाव की भावना से विचार करता तो उसके कन्या समतामूलक आन्दोलन का क्या होता। अपने संगठन के माध्यम से आर्थिक रूप से वंचित तथा इसी भेदभाव का शिकार  कई बेटियों को उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सहयोग कर समाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का रास्ता उसने कैसे दिखाया होता। किन्तु आज वह आहत था।

 
अपने ही घर में सबकी दृष्टि से ओझल इस अनजाने से होने वाले व्यवहार को वह अपने चिन्तन में भी नहीं सहन कर पा रहा है। उसने अनुभव किया कि सामाजिक कार्य के लिये अपने वैचारिक आन्दोलन को एकबार फिर उसे घर से ही आरम्भ करना होगा अन्यथा आन्दोलन से सम्बद्ध अनेकों बेटियों के माध्यम से समाज में वैचारिक परिवर्तन के उद्देश्य को प्राप्त करने का उसका आजीवन प्रयास व्यर्थ हो जायेगा।

 
“ पापा आप भी आ जायें कृति दी को आपरेशन थियेटर में ले गये हैं...” सेल पर छोटी बेटी की आवाज उसका चिन्तन भंग करती है।

 
 
“ हां बेटा मैं अभी आता हूं ....” फोन रखते ही वह घर से निकल पड़ा।
 
उसने सोचा.. नवजात तो कोई भी हो सकता है ...... कन्या भी। इन महिलाओं का पता नहीं उसको ध्यान में रखकर कोई कपड़े रखे हों अथवा नहीं। यदि बेटी हुई तो ... बाद में यह सब जानकर क्या उसे हीन भावना नहीं होगी कि मैं तो अनाहूता हूं। मेरे लिये किसने तैयारी की थी। बस आ गयी तो ठीक है अन्यथा कोई विशेष बात नहीं।

“नहीं नहीं ...ऎसा नहीं है। मैं हूं ना तुम्हारी मां का पापा ... तुम्हारा पापा ... तुम्हारी छॊटी मासी की हास्टल फ़्रेंडस, सभी लड़्कियों का सुपर डैड” उसने अपने आप से कहा।

 
 
“तुम्हारे लिये वैसी ही फ्राक ला रहा हूं जो कभी, तुम्हारी मां के लिये पहली बार ली थी। तुम अपनी मां और अपने पापा की नहीं अपितु अपने “सुपर डैड” की बेटी होगी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं तुम्हारी..... अपनी बेटी की फिर से अपनी बाहों में लेने के लिये। हम दोनों मिलकर बदलेंगे इस सामाजिक सोच को। मैं पुरूषों में और तुम महिलाओं में ... ”
 
 
अपने आपमें बुदबुदाते हुये उसकी दृष्टि नर्सिंग होम के रास्ते में शोरूम में टंगी हुयी फ्राक पर अटक गयी और उसके कदम तेजी से काउण्टर की ओर बढ़ चले।
 
 
 
प्रेषिका
गीता पंडित
 

Monday, July 4, 2011

चार कवितायेँ --हेमंत शेष के काव्य-संग्रह "प्रपंच –सार –सुबोधनी" से ( साभार ) ..

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1)     
चाँद और औरत ---

 
चाँद को हाथ में लिए एक मामूली
चमकीला पत्थर समझ कर
महीनों तक एक स्त्री पता नहीं कैसे प्रेम की नींद में चलती रही |
सपना टूटने पर वह फिर अंधकार में थी |
अकेली |
उधर आसमान में टंगा हुआ था
चमचमाता  चाँद ,स्त्री के सपने पर हँसता
और रोता , उस तरह
अपने चाँद होने पर |
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2)
वह---


वह फिर आई |
जैसे आती हैं स्त्रियाँ  
जीवन में
वैसे नहीं |
वह कोई स्त्री थी ही नहीं |
स्त्री के शरीर में
स्त्री से कुछ अधिक थी |
वह जब जाएगी
मुझ में से ले जाएगी
न जाने कितनी मेरी  मृत्यु |
मेरा कितना एकांत
मैं फिर भी जीऊँगा |
अकेला |
और
उसके लौटने की प्रतीक्षा करूँगा
अपनी हर मृत्यु के बाद |
अपने हर एकांत में ||
.....

 


 
3)
उपन्यास जैसी प्रेम –कहानी ---
 

 
मुझे तुमसे कुछ कहना है –मैंने फोन पर कहा |
रुकिए , मुझे जाना है - वहाँ |
सबसे छोटी उँगली उठाते शायद उसने कहा हो |
टोयलेट जाने को उद्यत एक स्त्री से
प्रेम-निवेदन नहीं किया जा सकता
मुझे लगा |
और टूट गया वहीं
वह संवाद
उस बात को आज कई बरस हुए |
प्रतीक्षा में अब और
बूढ़ा हो गया हूँ |
अब वह भी , अधेड़ होने की तरफ अग्रसर
क्या वहीं होगी
भीतर
बाहर आने से डरती हुई |
कि पता नहीं उससे मैं क्या कह बैठुंगा | |
.....
 
 



4)
एक अदृश्य उपस्थिती की तरह बचे रहना---
 

 
कभी तुम्हारे अकेलेपन में चला आऊँगा
जैसे
दरवाज़े पर दस्तक
और खोजने पर
किसी को बाहर खड़ा नहीं पाओगी
रहूँगा
तुम्हारे भीतर
नि:शब्द , उम्र भर
और तुम्हें लगेगा
तुम बातें कर रही हो
अपने मौन से ----

जब नहीं रहूँगा
तब भी होऊंगा
कि न होना , तब किसी भी होने से ज़्यादा वाचाल होगा
कितना भूलोगी , क्या – क्या याद रखोगी
भूलना और
याद रखना , तब
दोनों अर्थहीन हो जाते हैं , जब हमें अकारण लगता है
जैसे अभी-अभी हुई है दस्तक
और बाहर
कोई खड़ा है प्रतीक्षारत |
.....

साभार

प्रेषिका
गीता पंडित