.....
......
कथा देह की थी
यात्रा देह की थी
कई देह मिट्टी से सने थे
कई देह धूल पहचानते नहीं थे
कई देह अकाल भुगत रहे थे
कई शीशे की तरह चमकदार थे
कई बिक रहे थे मण्डी में
कई खरीदार थे
देह ने नंगा रहने से नंगेपन की यात्रा पूरी कर ली थी
कपड़े पहनकर भी लोग सरे बाजार नंगे हो रहे थे .
कई देह कपड़ों के बिना नंगे हो रहे थे
कई देह कपड़ों के लिये नंगे हो रहे थे
देह कपड़ों की तरह बदलते थे
देह कपड़ोँ को अमरता का कवच बना रहे थे .
कपड़ों की तरह बदलनेवाले देह कपड़ों को शाश्वत और सनातन घोषित कर रहे थे .
देह ने देह से पसीने छुड़ाये थे
देह ने देह पर चाबुक चलाये थे
देह की अपनी सत्ता थी
अपने विधान थे
अपनी कथा थी
सभी सुन रहे थे और सच मान रहे थे .
..............
क्षितिज को सभी तान रहे थे
यह जरूरी था
कि फैलाये हुए क्षितिज के तवे पर
सपनों की रोटियाँ पकें.
मिट्टी से उतना ही नाता रह गया था
कि बचपन में लिथड़े थे
सभी अपनी शर्ट और स्कर्ट पर सूखे दाग लिये
और फिर एक दिन
सन जाना था उसमें .
बदलती हुई दुनिया की रफ्तार के घोड़ों पर
बरसा रहे थे चाबुक
सभी बेरहमी से
और समय की नब्ज टटोल रहे थे
अपने दुःखों की अंतिम साँस के लिये .
कुल्हाड़ियों की धार पर सान चढायी जा रही थीं
और सभी हतप्रभ थे
जंगल की चमड़ियाँ छील कर
उसे कृशकाय कर देखने की आदत पर .
समुद्र में उतारी गयी थी ड़ोंगियाँ
बालिश्त भर बढे हुए
हौसले के साथ
विराट पहाड़ के विशाल सीने पर
चलाने को वृहदाकार हथौड़े ढाल लिये गये थे
लोहे को पिघलानेवाली गर्म भट्ठियों में.
नदियों को सागर बनाने की
पुरजोर तैयारी चल रही थी
कि दूर खेतों में पहुँचनेवाले नाले
नदियों की मानिन्द दिख सकें .
बढे हुए हौसलों के लिये
क्षितिज का फैलाव जरूरी था
उनके लिये ही
तो फैलाया जा रहा था क्षितिज
.............
चाह कर भी
तुम नहीं ढूँढ नहीं सकते
अपना मनपसंद ठिकाना .
चाह कर भी तुम नहीं पाते
मनमुताबिक काम .
चाह कर भी नहीं होते
पसंदीदा व्यंजना मयस्सर .
चाह कर भी नहीं मिलते
मनमाफिक मित्र.
चाह कर भी
जो नहीं होते पूरे अरमान,
चाहते क्यों हो .
चाह कर भी
नहीं ले पाते
उथली संयत साँस .
चाह कर भी नहीं छोड़ते तुम
चाहना दरअसल .
............
हर शहर में एक रामलीला मैदान होता है
बरस में एक बार रामलीला होती है वहाँ
अौर बरस में एक बार रावण-दहन .
बरस भर रैलियाँ होती हैं वहाँ
हरेक पाँचवे बरस कुछ ज्यादा .
बरस भर युगान्तकारी परिवर्तन की रणभेरियाँ फूँकी जाती हैं वहाँ.
हरेक शहर में एक हड़ताली चौक होता है
सजे होते हैं रंग-बिरंगे पताकाअों से बरस भर .
रामलीला मैदान से फूँकी गयी रणभेरियों के स्वर दम तोड़ते हैं वहाँ.
युगान्तकारी परिवर्तन के गले बैठ जाते हैं वहाँ चिल्ला -चिल्ला कर.
परिवर्तन चुप-चाप इंतजार में सोता है वहाँ .
............
माचिस की तीलियाँ बिन बरसात
गीली पड़ी थीं
माचिस की तीलियाँ भीषण गरमी के बावजूद महरायी हुई थीं
दिन भर काम के बाद
अौरत जब फूँकना चाह रही चूल्हा
बेदम पड़ी थीं तीलियाँ
बिन पानी बादलों की तरह .
खतरनाक दौर था जब
विधेयक खो रहे थे अपना पाठ
अौर न्याय को संभाले हुए थी
एक तिरछी तराजू .
चाक गढ रहे थे कच्चे बरतन
पकानेवाली भट्ठियाँ आग के बिना सूनी अौर ठंडी पड़ी थीं
ठंडेपन का आलम यह था कि जब लोग मिला रहे थे हथेलियाँ
बर्फ के ठंडेपन की सूईयाँ चुभ रही थीं
आग गायब हो रही थी लोगों के जेहन से
शहर के हड़ताली चौक से बुझी हुई आग समेट रहे थे लोग
सीली हुई माचिस की तीलियाँ
सूखने के इंतजार में थीं .
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प्रेषिका
गीता पंडित
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कथा देह की थी
यात्रा देह की थी
कई देह मिट्टी से सने थे
कई देह धूल पहचानते नहीं थे
कई देह अकाल भुगत रहे थे
कई शीशे की तरह चमकदार थे
कई बिक रहे थे मण्डी में
कई खरीदार थे
देह ने नंगा रहने से नंगेपन की यात्रा पूरी कर ली थी
कपड़े पहनकर भी लोग सरे बाजार नंगे हो रहे थे .
कई देह कपड़ों के बिना नंगे हो रहे थे
कई देह कपड़ों के लिये नंगे हो रहे थे
देह कपड़ों की तरह बदलते थे
देह कपड़ोँ को अमरता का कवच बना रहे थे .
कपड़ों की तरह बदलनेवाले देह कपड़ों को शाश्वत और सनातन घोषित कर रहे थे .
देह ने देह से पसीने छुड़ाये थे
देह ने देह पर चाबुक चलाये थे
देह की अपनी सत्ता थी
अपने विधान थे
अपनी कथा थी
सभी सुन रहे थे और सच मान रहे थे .
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क्षितिज को सभी तान रहे थे
यह जरूरी था
कि फैलाये हुए क्षितिज के तवे पर
सपनों की रोटियाँ पकें.
मिट्टी से उतना ही नाता रह गया था
कि बचपन में लिथड़े थे
सभी अपनी शर्ट और स्कर्ट पर सूखे दाग लिये
और फिर एक दिन
सन जाना था उसमें .
बदलती हुई दुनिया की रफ्तार के घोड़ों पर
बरसा रहे थे चाबुक
सभी बेरहमी से
और समय की नब्ज टटोल रहे थे
अपने दुःखों की अंतिम साँस के लिये .
कुल्हाड़ियों की धार पर सान चढायी जा रही थीं
और सभी हतप्रभ थे
जंगल की चमड़ियाँ छील कर
उसे कृशकाय कर देखने की आदत पर .
समुद्र में उतारी गयी थी ड़ोंगियाँ
बालिश्त भर बढे हुए
हौसले के साथ
विराट पहाड़ के विशाल सीने पर
चलाने को वृहदाकार हथौड़े ढाल लिये गये थे
लोहे को पिघलानेवाली गर्म भट्ठियों में.
नदियों को सागर बनाने की
पुरजोर तैयारी चल रही थी
कि दूर खेतों में पहुँचनेवाले नाले
नदियों की मानिन्द दिख सकें .
बढे हुए हौसलों के लिये
क्षितिज का फैलाव जरूरी था
उनके लिये ही
तो फैलाया जा रहा था क्षितिज
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चाह कर भी
तुम नहीं ढूँढ नहीं सकते
अपना मनपसंद ठिकाना .
चाह कर भी तुम नहीं पाते
मनमुताबिक काम .
चाह कर भी नहीं होते
पसंदीदा व्यंजना मयस्सर .
चाह कर भी नहीं मिलते
मनमाफिक मित्र.
चाह कर भी
जो नहीं होते पूरे अरमान,
चाहते क्यों हो .
चाह कर भी
नहीं ले पाते
उथली संयत साँस .
चाह कर भी नहीं छोड़ते तुम
चाहना दरअसल .
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हर शहर में एक रामलीला मैदान होता है
बरस में एक बार रामलीला होती है वहाँ
अौर बरस में एक बार रावण-दहन .
बरस भर रैलियाँ होती हैं वहाँ
हरेक पाँचवे बरस कुछ ज्यादा .
बरस भर युगान्तकारी परिवर्तन की रणभेरियाँ फूँकी जाती हैं वहाँ.
हरेक शहर में एक हड़ताली चौक होता है
सजे होते हैं रंग-बिरंगे पताकाअों से बरस भर .
रामलीला मैदान से फूँकी गयी रणभेरियों के स्वर दम तोड़ते हैं वहाँ.
युगान्तकारी परिवर्तन के गले बैठ जाते हैं वहाँ चिल्ला -चिल्ला कर.
परिवर्तन चुप-चाप इंतजार में सोता है वहाँ .
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माचिस की तीलियाँ बिन बरसात
गीली पड़ी थीं
माचिस की तीलियाँ भीषण गरमी के बावजूद महरायी हुई थीं
दिन भर काम के बाद
अौरत जब फूँकना चाह रही चूल्हा
बेदम पड़ी थीं तीलियाँ
बिन पानी बादलों की तरह .
खतरनाक दौर था जब
विधेयक खो रहे थे अपना पाठ
अौर न्याय को संभाले हुए थी
एक तिरछी तराजू .
चाक गढ रहे थे कच्चे बरतन
पकानेवाली भट्ठियाँ आग के बिना सूनी अौर ठंडी पड़ी थीं
ठंडेपन का आलम यह था कि जब लोग मिला रहे थे हथेलियाँ
बर्फ के ठंडेपन की सूईयाँ चुभ रही थीं
आग गायब हो रही थी लोगों के जेहन से
शहर के हड़ताली चौक से बुझी हुई आग समेट रहे थे लोग
सीली हुई माचिस की तीलियाँ
सूखने के इंतजार में थीं .
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प्रेषिका
गीता पंडित