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बज़ाहिर ज़िन्दगी का लिख के क़िस्सा रख दिया हमने
मगर सच वो था जो एक खाली पन्ना रख दिया हमने ........
हमारी आखिरी कोशिश थी ये, रिश्ता बचाने की
तेरे खंजर पे खुद ही हंस के सीना रख दिया हमने .............
मुहब्बत में तेरी ले क़ैद कर दी है अना अपनी
ले तेरे हाथ में चाभी का गुच्छा रख दिया हमने .................
वो घर वालों के आगे बेसबब रो भी नहीं सकती
बहुत मासूम सी आँखों में तिनका रख दिया हमने ........
अमीरी का हरेक रुतबा वहां बेदम नज़र आया
मुक़ाबिल जब भी ये अपना पसीना रख दिया हमने ......
हमी हैं वो जो अपने जिस्म पर सूरज को ओढ़े हैं
उजालों का भी देखो नाम भगवा रख दिया हमने ..........
.....
लिखा था जिसपे हक़ ,इंसानियत, चाहत, वफादारी
कहाँ जाने वो एक कागज़ का टुकड़ा रख दिया हमने ........
कोई दीवार इन रिश्तों में बेअदबी से बेहतर है
यही सब सोचकर आँगन में फीता रख दिया हमने ..........
ग़ज़ल तुमको तो सुनने में बहुत आसान लगती है
कि इसमें काटकर अपना कलेजा रख दिया हमने ...........
..........
झुक कर ज़मीं को देखिये सच्चाइयों के साथ
ये एहतियात भी रहे ऊचाईयों के साथ ..............
काँधे भी चार मिल न सके उस फ़कीर को
मैं भी खडा हुआ था तमाशाइयों के साथ ..............
राज़ी नहीं था सिर्फ मैं हिस्सों की बात पर
क्या दुश्मनी थी वरना मेरी भाइयों के साथ ..........
क्या बेवफाई , कैसी नमी , कैसा रंज ओ गम
रिश्ता ही ख़त्म कीजिये हरजाइयों के साथ .............
वो बेक़रार ही रहा दुनिया की बज़्म में
मैं अब भी मुतमई सा हूँ तन्हाइयों के साथ ..........
पत्थर उठा लिया है लो अब हक़ के वास्ते
मेरा भी नाम जोड़ दो बलवाइयों के साथ ......
खामोश रहने वाले उसी एक शख्स को
मैंने उलझते देखा है परछाइयों के साथ ..............
............
कोई बदलाव की सूरत नहीं थी
बुतों के पास भी फुर्सत नहीं थी ......
अब उनका हक़ है सारे आसमां पर
कभी जिनके सरों पर छत नहीं थी ...........
वफ़ा ,चाहत, मुरव्वत सब थे मुझमे
बस इतनी बात थी दौलत नहीं थी ........
फ़क़त प्याले थे जितने क़ीमती थे
शराबों की कोई क़ीमत नहीं थी ..............
मैं अब तक खुद से ही बेशक़ ख़फ़ा हूँ
मुझे तुमसे कभी नफरत नहीं थी .......
गए हैं पार हम भी आसमां के
वंहा लेकिन कोई जन्नत नहीं थी .........
वंहा झुकना पड़ा फिर आसमां को
ज़मीं को उठने की आदत नहीं थी .............
घरों में जीनतें बिखरी पड़ी हैं
मकानों में कोई औरत नहीं थी ..............
..........
किसी मासूम को रेशम में लिपटा फेक आई है
कोई शहज़ादी एक नन्हा फ़रिश्ता फेक आई है .......
यतीमों में इज़ाफा हो गया फुटपाथ पर फिर से
अमीरी फिर कोई नापाक़ रिश्ता फेक आई है .........
उसी बुनियाद पर देखो अमीर ए शहर बसता है
गरीबी जिस जगह अपना पसीना फेक आई है .......
वो पागल आँख में आंसू तो अपने साथ ले आई
मुहब्बत की निशानी था जो छल्ला,फेक आई है ......
ये मैं ही हूँ मुसलसल चल रहा हूँ नंगे पावों से
कि ये तक़दीर तो राहों में शीशा फेक आई है ...........
.............
कहाँ उल्लास ज़ख़्मी हो गए हैं
फ़क़त मधुमास ज़ख़्मी हो गए हैं ..........
बहुत ऐ चाँद तूने देर कर दी
सभी उपवास ज़ख़्मी हो गए हैं .............
कमी दरिया की जानिब से नहीं थी
ये लब बिन प्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ......
तेरी बेबाकियों का कुछ न बिगड़ा
मेरे एहसास ज़ख़्मी हो गए हैं .............
नयी दुनिया के मुंह लगने की जिद में
कई इतिहास ज़ख़्मी हो गए हैं ............
उन आँखों में हसीं ऐसी थी दुनिया
कि सब संन्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ........
तुम्हारे ख्वाब लौटाते हैं तुमको
हमारे पास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............
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तेरी हर बात सुनकर हंस दिए हम
तेरे उपहास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............
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प्रेषिता
गीता पंडित
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बज़ाहिर ज़िन्दगी का लिख के क़िस्सा रख दिया हमने
मगर सच वो था जो एक खाली पन्ना रख दिया हमने ........
हमारी आखिरी कोशिश थी ये, रिश्ता बचाने की
तेरे खंजर पे खुद ही हंस के सीना रख दिया हमने .............
मुहब्बत में तेरी ले क़ैद कर दी है अना अपनी
ले तेरे हाथ में चाभी का गुच्छा रख दिया हमने .................
वो घर वालों के आगे बेसबब रो भी नहीं सकती
बहुत मासूम सी आँखों में तिनका रख दिया हमने ........
अमीरी का हरेक रुतबा वहां बेदम नज़र आया
मुक़ाबिल जब भी ये अपना पसीना रख दिया हमने ......
हमी हैं वो जो अपने जिस्म पर सूरज को ओढ़े हैं
उजालों का भी देखो नाम भगवा रख दिया हमने ..........
.....
लिखा था जिसपे हक़ ,इंसानियत, चाहत, वफादारी
कहाँ जाने वो एक कागज़ का टुकड़ा रख दिया हमने ........
कोई दीवार इन रिश्तों में बेअदबी से बेहतर है
यही सब सोचकर आँगन में फीता रख दिया हमने ..........
ग़ज़ल तुमको तो सुनने में बहुत आसान लगती है
कि इसमें काटकर अपना कलेजा रख दिया हमने ...........
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झुक कर ज़मीं को देखिये सच्चाइयों के साथ
ये एहतियात भी रहे ऊचाईयों के साथ ..............
काँधे भी चार मिल न सके उस फ़कीर को
मैं भी खडा हुआ था तमाशाइयों के साथ ..............
राज़ी नहीं था सिर्फ मैं हिस्सों की बात पर
क्या दुश्मनी थी वरना मेरी भाइयों के साथ ..........
क्या बेवफाई , कैसी नमी , कैसा रंज ओ गम
रिश्ता ही ख़त्म कीजिये हरजाइयों के साथ .............
वो बेक़रार ही रहा दुनिया की बज़्म में
मैं अब भी मुतमई सा हूँ तन्हाइयों के साथ ..........
पत्थर उठा लिया है लो अब हक़ के वास्ते
मेरा भी नाम जोड़ दो बलवाइयों के साथ ......
खामोश रहने वाले उसी एक शख्स को
मैंने उलझते देखा है परछाइयों के साथ ..............
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कोई बदलाव की सूरत नहीं थी
बुतों के पास भी फुर्सत नहीं थी ......
अब उनका हक़ है सारे आसमां पर
कभी जिनके सरों पर छत नहीं थी ...........
वफ़ा ,चाहत, मुरव्वत सब थे मुझमे
बस इतनी बात थी दौलत नहीं थी ........
फ़क़त प्याले थे जितने क़ीमती थे
शराबों की कोई क़ीमत नहीं थी ..............
मैं अब तक खुद से ही बेशक़ ख़फ़ा हूँ
मुझे तुमसे कभी नफरत नहीं थी .......
गए हैं पार हम भी आसमां के
वंहा लेकिन कोई जन्नत नहीं थी .........
वंहा झुकना पड़ा फिर आसमां को
ज़मीं को उठने की आदत नहीं थी .............
घरों में जीनतें बिखरी पड़ी हैं
मकानों में कोई औरत नहीं थी ..............
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किसी मासूम को रेशम में लिपटा फेक आई है
कोई शहज़ादी एक नन्हा फ़रिश्ता फेक आई है .......
यतीमों में इज़ाफा हो गया फुटपाथ पर फिर से
अमीरी फिर कोई नापाक़ रिश्ता फेक आई है .........
उसी बुनियाद पर देखो अमीर ए शहर बसता है
गरीबी जिस जगह अपना पसीना फेक आई है .......
वो पागल आँख में आंसू तो अपने साथ ले आई
मुहब्बत की निशानी था जो छल्ला,फेक आई है ......
ये मैं ही हूँ मुसलसल चल रहा हूँ नंगे पावों से
कि ये तक़दीर तो राहों में शीशा फेक आई है ...........
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कहाँ उल्लास ज़ख़्मी हो गए हैं
फ़क़त मधुमास ज़ख़्मी हो गए हैं ..........
बहुत ऐ चाँद तूने देर कर दी
सभी उपवास ज़ख़्मी हो गए हैं .............
कमी दरिया की जानिब से नहीं थी
ये लब बिन प्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ......
तेरी बेबाकियों का कुछ न बिगड़ा
मेरे एहसास ज़ख़्मी हो गए हैं .............
नयी दुनिया के मुंह लगने की जिद में
कई इतिहास ज़ख़्मी हो गए हैं ............
उन आँखों में हसीं ऐसी थी दुनिया
कि सब संन्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ........
तुम्हारे ख्वाब लौटाते हैं तुमको
हमारे पास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............
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तेरी हर बात सुनकर हंस दिए हम
तेरे उपहास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............
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प्रेषिता
गीता पंडित