Monday, February 25, 2013

पाँच गज़ल...... सचिन अग्रवाल

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बज़ाहिर ज़िन्दगी का लिख के क़िस्सा रख दिया हमने
मगर सच वो था जो एक खाली पन्ना रख दिया हमने ........

हमारी आखिरी कोशिश थी ये, रिश्ता बचाने की
तेरे खंजर पे खुद ही हंस के सीना रख दिया हमने .............

मुहब्बत में तेरी ले क़ैद कर दी है अना अपनी
ले तेरे हाथ में चाभी का गुच्छा रख दिया हमने .................

वो घर वालों के आगे बेसबब रो भी नहीं सकती
बहुत मासूम सी आँखों में तिनका रख दिया हमने ........

अमीरी का हरेक रुतबा वहां बेदम नज़र आया
मुक़ाबिल जब भी ये अपना पसीना रख दिया हमने ......

हमी हैं वो जो अपने जिस्म पर सूरज को ओढ़े हैं
उजालों का भी देखो नाम भगवा रख दिया हमने ..........
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लिखा था जिसपे हक़ ,इंसानियत, चाहत, वफादारी
कहाँ जाने वो एक कागज़ का टुकड़ा रख दिया हमने ........

कोई दीवार इन रिश्तों में बेअदबी से बेहतर है
यही सब सोचकर आँगन में फीता रख दिया हमने ..........

ग़ज़ल तुमको तो सुनने में बहुत आसान लगती है
कि इसमें काटकर अपना कलेजा रख दिया हमने ...........

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झुक कर ज़मीं को देखिये सच्चाइयों के साथ
ये एहतियात भी रहे ऊचाईयों के साथ ..............

काँधे भी चार मिल न सके उस फ़कीर को 
मैं भी खडा हुआ था तमाशाइयों के साथ ..............

राज़ी नहीं था सिर्फ मैं हिस्सों की बात पर
क्या दुश्मनी थी वरना मेरी भाइयों के साथ ..........

क्या बेवफाई , कैसी नमी , कैसा रंज ओ गम
रिश्ता ही ख़त्म कीजिये हरजाइयों के साथ .............

वो बेक़रार ही रहा दुनिया की बज़्म में
मैं अब भी मुतमई सा हूँ तन्हाइयों के साथ ..........

पत्थर उठा लिया है लो अब हक़ के वास्ते
मेरा भी नाम जोड़ दो बलवाइयों के साथ ......

खामोश रहने वाले उसी एक शख्स को
मैंने उलझते देखा है परछाइयों के साथ ..............


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कोई बदलाव की सूरत नहीं थी 
बुतों के पास भी फुर्सत नहीं थी ......

अब उनका हक़ है सारे आसमां पर 
कभी जिनके सरों पर छत नहीं थी ...........

वफ़ा ,चाहत, मुरव्वत सब थे मुझमे
बस इतनी बात थी दौलत नहीं थी ........

फ़क़त प्याले थे जितने क़ीमती थे
शराबों की कोई क़ीमत नहीं थी ..............

मैं अब तक खुद से ही बेशक़ ख़फ़ा हूँ
मुझे तुमसे कभी नफरत नहीं थी .......

गए हैं पार हम भी आसमां के
वंहा लेकिन कोई जन्नत नहीं थी .........

वंहा झुकना पड़ा फिर आसमां को
ज़मीं को उठने की आदत नहीं थी .............

घरों में जीनतें बिखरी पड़ी हैं
मकानों में कोई औरत नहीं थी ..............

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किसी मासूम को रेशम में लिपटा फेक आई है
कोई शहज़ादी एक नन्हा फ़रिश्ता फेक आई है .......

यतीमों में इज़ाफा हो गया फुटपाथ पर फिर से 
अमीरी फिर कोई नापाक़ रिश्ता फेक आई है .........

उसी बुनियाद पर देखो अमीर ए शहर बसता है
गरीबी जिस जगह अपना पसीना फेक आई है .......

वो पागल आँख में आंसू तो अपने साथ ले आई
मुहब्बत की निशानी था जो छल्ला,फेक आई है ......

ये मैं ही हूँ मुसलसल चल रहा हूँ नंगे पावों से
कि ये तक़दीर तो राहों में शीशा फेक आई है ...........

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कहाँ उल्लास ज़ख़्मी हो गए हैं 
फ़क़त मधुमास ज़ख़्मी हो गए हैं ..........

बहुत ऐ चाँद तूने देर कर दी
सभी उपवास ज़ख़्मी हो गए हैं .............

कमी दरिया की जानिब से नहीं थी
ये लब बिन प्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ......

तेरी बेबाकियों का कुछ न बिगड़ा
मेरे एहसास ज़ख़्मी हो गए हैं .............

नयी दुनिया के मुंह लगने की जिद में
कई इतिहास ज़ख़्मी हो गए हैं ............

उन आँखों में हसीं ऐसी थी दुनिया
कि सब संन्यास ज़ख़्मी हो गए हैं ........

तुम्हारे ख्वाब लौटाते हैं तुमको
हमारे पास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............
...
तेरी हर बात सुनकर हंस दिए हम
तेरे उपहास ज़ख़्मी हो गए हैं ...............

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प्रेषिता 

गीता पंडित 

Saturday, February 16, 2013

चार कवितायें .... बसंत जैतली.

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उमराव जान


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कैसी थी,
कैसी दीखती थी,
कैसी रही होगी वह
जिसके बारे में
चर्चे होते हैं आज
सदियों के बाद भी |
कहते हैं
वह सुन्दर थी,
कितनी सुंदर थी
रीतिकाल की नायिका सी
या तिलोत्तमा
कालिदास की ?
कैसा रहा होगा
उसका रंग,
दूध सा गोरा
या कृष्ण सा श्याम ?
क्या इस दुनिया को
चकित हरिणी सी बड़ी-बड़ी आँखों से
निहारती होगी वह,
क्या अनारदानों सी
समतल रही होगी
उसकी दन्तावली
और बिम्बाफल से लाल होंठ,
क्या किसी भंवर सी गहरी थी
उसकी नाभि,
क्या उरोजों का भार
किंचित झुकाता था
उसकी देहयष्टि,
क्या श्रोणी-भार ने
अलसगमना बनाया था उसे ......
पता नहीं |
लेकिन यह सवाल
सालता है लगातार
कि अपने घर से दूर
कहीं और रोप दी गई
उस लड़की को
कैसा लगता था
जिसने नहीं जाना था बचपन,
भाई से
झगड़ नहीं पाई थी,
ज़िद नहीं कर पाई थी
अम्मी या अब्बू से,
बस बचपन से जवानी तक
सीखती रही गुर
नाच- गाना
तौर-तरीके
एक मशहूर रक्कासा
या तवायफ़ बन जाने के |
कहते हैं
एक नवाब और एक डाकू से
प्रेम किया था उसने,
तो इतना तो तय है
कि एक दिल तो धडकता था
सीने में उसके,
शायद इसी दिल ने
शायरा बनाया था उसे
लेकिन वे प्रेमी
प्रेम किसे करते थे ....
उमराव जान को
या उसकी देह को ?
यह भी नहीं पता मुझे
कब तक ज़िन्दा रही वह,
पर यह मालूम है
किसी एक दिन
लुटी -पिटी सी
वह पहुंची थी अपने घर
और वहाँ से
शिला बन कर लौट गई थी वापस
लुटे-पिटे उसी कोठे पर |
सुनते हैं
फ़ैजाबाद था
उसका अपना घर,
वही जगह
जिसकी बगल में
विराजे हैं रामलला,
कहते हैं
शिला बन गई
अहिल्या के तारक थे वह
लेकिन यह
महज़ एक कथा है,
वास्तव में किसका उद्धार करते हैं वे
कौन जानता है
लेकिन यह जानते हैं सब
कि उसको नहीं तारा उन्होंने
जिसका नाम था
उमराव जान |
.........




अजन्मी संतान का सवाल 

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मैं जन्मना नहीं चाहती थी,
सुन रखे थे अनेक किस्से
अजन्मी या जन्म लेते ही
सदा के लिए सुला दी गयीं
लड़कियों से |
मुझे नहीं थी शिकायत
अपने लिंग से
लेकिन तुम्हे थी,
एक बेटे की चाहत में
सयानों से मशीनों तक
भटकते थे तुम,
प्रस्तुत रहते थे
देने को उत्कोच
कि तुम जान सको जन्म से पहले ही
होने वाली संतान का लिंग |
तुम्हे सिखाया गया था
बेटे से ही चलता है वंश,
वही होता है कुल का तारणहार,
उसीसे उतरते हैं सनातनी ऋण,
और वही होता है
अंतिम मुक्ति का प्रदाता |
इन्ही सब चक्करों के बीच
कभी – कभी
बेशर्मी से जनम जाती थी मैं,
और तब
अनेक रास्ते होते थे तुम्हारे पास
मुझसे मुक्त हो जाने के |
मेरा भवितव्य होता था
चारपाई का पाया,
पशुवत पिलाया गया
आटे का घोल,
डुबा देने वाला
पानी का तसला,
घोटा गया गला
या ज़हर की एक बूँद |
कभी कहीं भूले से
जब दया आती थी तुम्हे
ज़िंदा भी छोड़ देते थे तुम मुझे
किसी नाले या कचरे के डिब्बे में
यह सोचे बिना
कि उसी दिन होती थी
दुर्गा पूजा की अष्टमी
और तुम देवी को पूजकर
जिमाने वाले होते थे मोहल्ले की लडकियां,
पूजने-पखारने वाले होते थे
उनके चरण |
मैं जन्मना ही नहीं चाहती थी,
तुम्हारे अंतरण क्षणों में भी
बहुत लड़ा था मेरी माँ का एक डिम्ब
तुम्हारे शुक्राणुओं में अनुपस्थित
एक ‘ वाई ‘ से जुड जाने को,
नहीं चाहती थी माँ
कि इस बार भी लड़की जने वह
और सुने वह गालियाँ
जो उसके हिस्से की नहीं थीं |
हे मेरे पिता
अवांछित – अजन्मी तुम्हारी यह संतान
आज पूछती है बस एक सवाल,
भले ही शास्त्र न देते हों मुझे
तुम्हारी मुक्ति के लिए
दाह, पिंड-दान या तर्पण का अधिकार,
फिर भी
यदि नरक बना दिया तुम्हारा जीवन
पुत्र नामक जीव ने
तो किस नरक से त्राण पा लोगे तुम
मरने के बाद ?
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शकुन्तला के प्रश्न 

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विश्वामित्र के
तपभंग को प्रेषित
अप्सरा माता के गर्भ से
अनचाहे जन्मी थी मै |
इसमे कसूर न तुम्हारा था
न मेरा,
यह अलग बात है
कि आज तक
बूझ नहीं पाई मै
अनेक ऋषियों का संयम |
जन्मते ही छोड़ गयी माँ,
समझा नहीं पिता ने
अपना दायित्व |
मृगछौने सहलाती
भागती – दौडती
कब हो गई युवा
और तुमने कब कहा मुझे
‘ प्रभा – तरल ज्योति ‘
नहीं जानती मै |
दुनियादारी नहीं थी मुझमे
जब शुरू किया तुमने
यकायक एक खेल |
आश्रम में भेज दिया तुमने
अचानक एक राजा,
वह भी तब
जब नहीं थे वहाँ
मेरे पालक पिता |
उसकी शिकारी नज़रों में
मै थी अनाघ्रात पुष्प,
नखों से अस्पृष्ट किसलय,
अनबिंधा रत्न,
अनास्वादित मधु,
और मन में था
बस एक सवाल
कि यदि मै नहीं
तो भला और कौन होगा
इसका भोक्ता ?
भोगी गई मै,
शापग्रस्त हुई मै,
त्यागी गई मै,
क्या था मेरा अपराध,
वह प्रेम जो हो गया
या तुमने लिख दिया ?
प्रेम का दंड मिला मुझे,
उसे नहीं
जो था उत्तरदायी,
तुम्हे भी नहीं
जो थे इसके सूत्रधार |
बस मेरा था दोष,
मै ही थी हतभागी,
मै थी
सिर्फ एक भोग्या
जिसे भूल सकता था
कोई भी भोक्ता |
विदा की वेला में
पिता के सारे उपदेश भी
मेरे लिए थे,
पति कहाँ था जवाबदेह
यह नहीं कहा तुमने,
नहीं कहा पिता ने |
तुम्हारे सारे विमर्श में
क्या यह ही थी
एक औरत,
मीठे बोलों से ठगा जाना
और गर्भावस्था में परित्याग ही
हो सकती है जिसकी नियति ?
महाकवि !
आज प्रश्नाकुल हूँ मै,
सिर झुकाए
चुप बैठे हो तुम
जैसे रीत गई हो
तुम्हारी सारी कल्पना |
उस क्षण
जो एक दुष्यंत रचा था तुमने
आज क्यों
रक्तबीज हो गए हैं वह ?
और क्यों
आज भी वही है
हर शकुन्तला का भवितव्य 
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आदिम असावधानी 


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खुली पडी हैं पोथियाँ
वेद-पुराण
महाभारत-स्मृतियाँ
कुछ नहीं दिखता कहीं भी |
बीत गयीं सदियाँ
फिर भी झाँक रहे हैं
कुछ आदिम सम्बन्ध |
एक वे थे जो धाए
अपनी पुत्री के पीछे,
एक और थे
जो कर रहे थे तपस्या
वंश-वृक्ष में लगाए समाधि,
स्खलित हो गए
नदी में नहाती रानियों को देख
और बन गए
कीचकों के जन्मदाता |
कोई हो गया मुग्ध
किसी मत्स्यगंधा पर
भूल कर विवाह योग्य पुत्र.
कुछ करीबी रिश्तेदार
भरी सभा में
कपडे नोच निर्वस्त्र करते रहे
अपनी ही कुलवधू,
पति का वेश बना
लूट गया कोई
ऋषि-पत्नी की आबरू |
वह क्रम जो शुरू हुआ था तब
चल रहा है आज तक,
ये थीं तुम्हारी विरासतें
ये टंगे वेताल ,
बहुतेरे कंधे
आज भी ढो रहे हैं
अतीत की वही लाश |
किस-किस को गिनूं मै,
क्यों लिखता रहूँ उनके नाम,
क्यों न कर दूं छिन्न – भिन्न
शोषण का असमान समाज ?
कर क्या रहा हूँ मै ?
यहाँ-वहाँ कुछ लिख भर रहा हूँ,
क्या मतलब है इसका ?
सड़क के किनारे
बिना किसी आड़ के
खड़ा होकर मूत रहा है कोई
और मै
बेटी को दे रहा हूँ हिदायत
“ अपनी चुन्नी
ज़रा ठीक से लपेटा करो |
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 प्रेषिता 

गीता पंडित 







Friday, February 1, 2013

पार्वती योनि ...... नेहा नरुका .

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एक कविता धर्म के प्रतीक पर... अप्रश्नेय मिथक पर एक प्रश्नचिन्ह ____




पार्वती योनि____

ऐसा क्या किया था शिव तुमने ?
रची थी कौन-सी लीला ? ? ? 
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग
माताएं बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए
पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र के लिए
अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ 
पूजती है तुम्हारे लिंग को,

दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह
अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर
रोली, चंदन, महावर से
आड़ी-तिरछी लकीरें काढ़कर,
सजाया जाता है उसे
फिर ढोक देकर बारंबार
गाती हैं आरती
उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम

तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर
माथे पर लगाती है टीका
जीभ पर रखकर
बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं
लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को

वे नहीं जानती कि यह
पार्वती की योनि में स्थित
तुम्हारा लिंग है,
वे इसे भगवान समझती हैं,
अवतारी मानती हैं,
तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता
समाया रहता है पार्वती योनि में,
और उससे बहता रहता है
दूध, दही और नैवेद्य...
जिसे लाँघना निषेध है
इसलिए वे औरतें
करतीं हैं आधी परिक्रमा

वे नहीं सोच पातीं
कि यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती लिंग क्यों नहीं ?
और यदि लिंग केवल पुरूषांग है
तो फिर इसे पार्वती योनि भी
क्यों न कहा जाए ?

लिंगपूजकों ने
चूँकि नहीं पढ़ा ‘कुमारसंभव’
और पढ़ा तो ‘कामसूत्र’ भी नहीं होगा,
सच जानते ही कितना हैं?
हालांकि पढ़े-लिखे हैं

कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी
वे अगर पढ़ते और जान पाते
कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का,

अगर कहीं वेद-पुराणऔर इतिहास के
महान मोटे ग्रन्थों की सच्चाई!
औरत समझ जाए
तो फिर वे पूछ सकती हैं
संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के-
स्त्री-पुरूष के समरस होने की मुद्रा के-
दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?
वे पढ़ लेंगी
तो निश्चित ही पूछेंगी,
कि इस दृश्य को गढ़ने वाले
कलाकारों की जीभ
क्या पितृसमर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी
क्या बदले में भेंट कर दी गईं थीं
लाखों अशर्फियां,
कि गूंगे हो गए शिल्पकार
और बता नहीं पाए
कि संभोग के इस प्रतीक में
एक और सहयोगी है
जिसे पार्वती योनि कहते हैं

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प्रेषिता 
गीता पंडित