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नदी फिर नहीं बोली __
नदी पहली बार
तब बोली थी
जब तुम्हारी नाव
उसका पक्ष चीरकर
सुदूर बढती गई थी,
लहरों ने उठ-उठ विरोध दर्शाया
पर तुम्हारे मज़बूत हाथों में थे
चप्पुओं ने विरोध नहीं माना,तब तुमने
लौह का, विशाल दैत्य-सा
घरघराता जहाज उसकी छाती पर उतार दिया,
तुमने खूब रौंदा
उसकी कोमल देह को।
लहरों के हाथ
दुहाई में उठे पर
तुमने नहीं सुना।
फिर कितने ही युद्धपोत
कितने ही जंगी बेड़े
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाड़ा बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने,
बोलो!क्या कहती हो?
नदी नहीं बोली
नदी फिर कभी नहीं बोली ।
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स्त्री पूजन __
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नदी फिर नहीं बोली __
नदी पहली बार
तब बोली थी
जब तुम्हारी नाव
उसका पक्ष चीरकर
सुदूर बढती गई थी,
लहरों ने उठ-उठ विरोध दर्शाया
पर तुम्हारे मज़बूत हाथों में थे
चप्पुओं ने विरोध नहीं माना,तब तुमने
लौह का, विशाल दैत्य-सा
घरघराता जहाज उसकी छाती पर उतार दिया,
तुमने खूब रौंदा
उसकी कोमल देह को।
लहरों के हाथ
दुहाई में उठे पर
तुमने नहीं सुना।
फिर कितने ही युद्धपोत
कितने ही जंगी बेड़े
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाड़ा बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने,
बोलो!क्या कहती हो?
नदी नहीं बोली
नदी फिर कभी नहीं बोली ।
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स्त्री पूजन __
आंखों में सपने मत पालो
हाथों में उम्मीद मत थामो
पैरों से मंजिल का रास्ता मत नापो
दिल से महसूस मत करो
जुबान से सवाल मत करो
होठों पर हंसी ना आने पाये
देह में कामना न रहे
दिमाग में मुक्ति का विचार ना हो
तुम खुश रहो स्त्री
यत्र नार्यस्तु पूज्यते
हाथों में उम्मीद मत थामो
पैरों से मंजिल का रास्ता मत नापो
दिल से महसूस मत करो
जुबान से सवाल मत करो
होठों पर हंसी ना आने पाये
देह में कामना न रहे
दिमाग में मुक्ति का विचार ना हो
तुम खुश रहो स्त्री
यत्र नार्यस्तु पूज्यते
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प्रेषिका
गीता पंडित
साभार (कविता कोष)