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यह दीप अकेला ___ अज्ञेय
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा? यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित : यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इस को भी पंक्ति दे दो यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः इस को भी शक्ति को दे दो यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इस को भी पंक्ति दे दो यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा, वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा, कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय इस को भक्ति को दे दो यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इस को भी पंक्ति दे दो
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1.
अंधियार ढल कर ही रहेगा ___ नीरज आंधियां चाहें उठाओ,बिजलियां चाहें गिराओ,जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,उग रही लौ को न टोको,ज्योति के रथ को न रोको,यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,व्यर्थ है दीवार गढना,लाख लाख किवाड़ जड़ना,मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,जाल चांदी का लपेटो,खून का सौदा समेटो,आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,उस सुबह से सन्धि कर लो,हर किरन की मांग भर लो,है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।
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2.
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!____
यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!
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3.
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना ___
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
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प्रेषिता
गीता पंडित
साभार
कविता कोश से