Tuesday, May 26, 2015

कहानी .. रेत की दीवार ... प्रज्ञा

रेत की दीवार
                             
‘‘ देखिए हमने आपसे पहले ही कहा था एक अच्छा ड्राइवर साथ में दीजिए। पर आपने न जाने किसे भेज दिया? लोकल साइटसीइंग के लिए तय चार घंटे का सफर उसने केवल दो घंटे में ही पूरा कर दिया ।’’
‘‘पर सब दिखाया न आपको?’’
‘‘दिखाया? ... एक टूरिस्ट प्वांइट और एक मंदिर दिखाने के बाद ही कहने लगा, यहां कुछ ज़्यादा नहीं है देखने के लिए । आने से पहले नेट पर उपलब्ध सारी जानकारी लेकर आए थे हम। उन जगहों का नाम लेते ही उसने कहा -‘‘फलां जगह देखने लायक नहीं है, वो जगह बंद है, वहां आज लगे मेले के कारण जा नहीं सकते।’’ हमने कहा चलो मेला ही घुमा दो तो जनाब ने नखरीली आवाज में कहा-‘‘वहां तक गाड़ी पहुंचना मुश्किल है आप खुद ही चले जाओ।’’ अब आप बताइये मेरे साथ दो बच्चे और मेरे बुजुर्ग माता-पिता और सबको मुझे ही देखना था, ऐसे में इस तरह का इंसान? और फिर इस उम्र में पहाड़ी रास्ते का सफर मेरे परेंट्स क्या पैदल तय कर सकते है? ’’
‘‘ सॉरी मैडम, उसका स्वभाव ज़रा टेढ़ा ही है। और लोगों से भी उसकी यही शिकायतें आती हैं पर क्या करें आज हमारी सारी गाडि़यां  लग चुकी थीं कोई और नहीं था इसीलिए उसे भेजा। कल से आपको अच्छा आदमी साथ देंगे।’’
यात्रा के पहले ही दिन माता-पिता को परेशान और बच्चों को असंतुष्ट देखकर नयना का मन उदास हो गया। विवेक ने कहा था ‘‘तीन दिन रूक जाओ बस। एक ज़रूरी काम के बाद साथ चलेंगे सब।’’ पर उसे तो जुनून सवार था कि अपने दम पर भी ले जा सकती है वह सबको हिमाचल। अनजान जगह पर लोगों से निभाना तो उसे आता था पर बद्तमीज़ी बर्दाश्त नहीं होती थी और बदत्तमीजी़ का मुंहतोड़ जवाब भी दे सकती थी पर यही सोचकर शांत हो गई कि हिम्मत जगाकर जिन माता-पिता को साथ लाई है उनका मन खिन्न होगा। सीधे-सरल स्वभाव के लोग हैं, लड़ाई-झगड़ों से कोसों दूर। रिसेप्शन पर बात होने के बाद भी नयना का मन अशांत बना रहा। पता नहीं कैसा होगा ये नया ड्राइवर ? अरे ये सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं। मन के अशांत भाव को उसने जाहिर न करते हुए अपने चुलबुले अंदाज़ में पापा से कहा-‘‘फिकर नॉट पापा। कल से कोई दिक्कत नहीं आएगी।’’ फिर तीन दिन बाद विवेक के आने के ध्यान ने धीरे-धीरे संशय पर उम्मीद की जीत को कायम कर दिया। बच्चे लॉन  में बैडमिंटन खेलने लगे और वो तीनों बैंच पर बैठकर सामने फैले पेड़ों से लदे हरियाले पहाड़ों का लुत्फ उठाने लगे।  थोड़ी ही देर में नयना अतीत के दरवाजे में दाखिल होकर उन यात्राओं को जीने लगी जो पापा ने कराई थीं। वे या़त्राएं जिनमें कोई परेशानी उसे छू नहीं सकती थी। पापा हैं न--सबसे लोहा लेने के लिए और मां सभी जिद्दें पूरी करने को। पर इस बार-कहां जाना है? कहां रहना है? कहां घूमना है? इंतज़ामात से जुडे़ तमाम सवाल नयना ने खुद ही हल किए थे। उसे लग रहा था आज मां-पापा की वही भूमिका उसे निभानी है। स्मृति की कई छवियों ने न जाने कहां से उसमें असीम साहस भर दिया।
अगली सुबह पल्लवी और पराग को नयना ने पहले ही तैयार कर दिया और मम्मी से रात को ही कह दिया था कि पापा की वॉक  के बाद और नाश्ते से पहले आप लोग अपनी दो चाय टाइम से पी लेना। ये उनकी बरसों पुरानी आदत है जिसके बिना उनका दिन अधूरा रहता है। नाश्ता करने के बाद सब आज के दिन की यात्रा के लिए तैयार हो गए। मां को उसने समझा दिया था कि वे बेतकल्लुफ होकर नए ड्राइवर के घर-परिवार के बारे में न पूछें। इससे उसे मां की सादगी महसूस हो जाएगी फिर दिखाने लगेगा अपने तेवर। जरा सा हंसकर बोल लो इनसे, सर पर सवार हो जाते हैं। जो अकड़ से रहता है उससे ही ठीक रहते हैं। नयना ने तय कर लिया था कि वो ड्राइवर के साथ वाली सीट पर ही बैठेगी। न जाने मन में कहां से ये बात उसके मन में घर कर गई थी कि साथ बैठकर अपने सख्त रवैये से एक नैतिक दबाव ड्राइवर पर बना सकती है, जिससे वो अपने व्यवहार को सही रखेगा। बलदेव नाम के उस नए ड्राइवर को उसने साफ कह दिया  ‘‘कल का अनुभव बहुत ही बुरा था हमारा और आज की यात्रा में हम वो सब दोहराना नहीं चाहेंगें। ’’
सबके आने पर बलदेव ने आदतन घर के बुजुर्ग और पुरूष , पापा को अपनी बगल में बिठाने के लिए आगे की सीट का दरवाजा खोला। उसके चेहरे पर नयना ने हल्की- सी हिचक महसूस की जब वो उसकी बगल में बैठने लगी। मां-पापा पीछे और बच्चे उनसे पिछली सीट पर बैठकर धमाचैकड़ी मचाने लगे । सफर के शुरू होते ही नयना ने कुछ बातों पर गौर किया। गाड़ी की रफ्तार धीमी थी और हर मोड़ से पहले मुस्तैदी से हॉर्न बज रहा था। ‘‘बाद में सरपट दौड़ाएगा।’’ उसने मन में कहा। आंखों पर चढ़े काले चश्मे की आड़ से उसने  ड्राइवर की वेशभूषा और चेहरे पर गौर किया। साधारण पर साफ कुर्ते- पायजामे में था बलदेव, पैरों  में कोई स्पोट्र्स शूज़ नहीं सस्ते लैदर की चप्पलें ही थीं। हिमाचली नैन-नक्श, दुबला पतला शरीर। कहीं कोई अतिरिक्त चर्बी नहीं। गोरे रंग पर फबती काली मूंछों की बनावट में फिलहाल कोई ऐंठ नहीं दिख रही थी। बालों में ढंग से तेल लगा था और तिरछी मांग में कोई आवारा जु़ल्फ उसे दिखाई नहीं दी। पर तभी उसके मन ने सवाल किया- बालों के ठीक बने होने से ही तो आवारागर्द न होना सिद्ध नहीं होता न? नयना पक्के जासूसों की तरह कार्यवाही कर रही थी। दूसरी तरफ ये भी सोच रही थी कि बाद में विवेक को ये सब बताते हुए दोनों  कितना हंसेगें । उसने महसूस किया गाड़ी में चल रहे रेडियो की आवाज भी बलदेव के पहनावे से मेल खाती दिख रही थी। उपस्थित होते हुए भी शांत, लगभग अनुपस्थित जैसी। ‘‘ अरे सीधेपन का नाटक है। अभी करेगा चिकचिक, कभी घुमाने को लेकर, कभी देरी को लेकर, कभी पैसों को लेकर।’’ नयना की मुद्रा ये सब सोचकर और कड़ी हो गई।
एक और बात उसके ज़ेहन में आई ’’घुमावदार मोड़ आने के बावजूद अभी तो अपने शरीर और गाड़ी पर पूरा नियंत्रण रख रहा है पर हो सकता है कि आगे लिबर्टी लेने लगे। औरत साथ बैठी है यही सोचकर खुश हो रहा होगा। इनके लिए क्या पढ़ी-लिखी, क्या अनपढ़, सब बराबर।’’ अब अगला पहलू था उसकी गाड़ी।  बुलेरो नयना की पसंद नहीं पर गाड़ी पुरानी होने के बावजूद बुनियादी सुविधाओं के साथ ठीक लग रही थी। उसके अपने सामान के रूप में नयना को एक हॉकी  स्टिक नज़र आई और एक पुरानी बोतल में पीने का पानी। स्टिक को लेकर भी बुरे विचार मन में आ रहे थे -‘‘कहीं किसी सुनसान- सी जगह पर इसने हमला कर दिया तो क्या होगा?’’ नयना को दिल्ली एयरपोर्ट की वह घटना भूली नहीं थी कि एक विदेशी महिला को गाड़ी वाले ने लूट लिया था। और वैसे भी बड़े शहरों में ये आए दिन की घटनाएं हो गईं हैं। इसीलिए वह अतिरिक्त सावधानी बरत रही थी।
            अब समय आया उस पर एक नैतिक दबाव बनाने का, सो नयना ने गंभीरता से उसके काम के बारे में बड़ी ही सधी आवाज में पूछना शुरू किया- कि वो कबसे गाड़ी चला रहा है? टूरिस्ट यहां कौन-सी जगह ज़्यादा पसंद करते हैं? जवाब देते हुए जैसे ही बलदेव ज्यादा तफसील में जाने की कोशिश करता वैसे ही वो अपनी तनी मुद्रा और मौन से उसे सचेत कर देती। नयना की हालत बड़ी ही अजीब थी। भीतर का डर, चिंताएं उसे परेशान कर रही थीं और चेहरे से उसे बेहद आत्मविश्वासी दिखना था। जल्दी ही सब कला-संग्रहालय पहुंच गए।
‘‘मैडम मेरा फोन नम्बर ले लो। जब आप, आ जाओ तो मुझे कॉल  कर देना। और एक मिस्ड कॉल  भी मार देना ताकि मेरे पास भी नम्बर हो जाए।’’
‘‘क्यों तुम कहां जा रहे हो? क्या रुकोगे नहीं यहां? आज सारे दिन साथ हो तो क्या ज़रूरत है नम्बर की?’’
‘‘ नहीं जी यहीं हूं बस जान-पहचान वाले मिल जाते हैं तो जरा चाय-वाय...’’
‘‘अभी पी लो चाय और गाड़ी के पास ही ठहरो।’’ आदेशात्मक स्वर में उसकी आवाज निकली। मन ने फिर चेताया ‘‘मत दे नम्बर कहीं बाद में गलत इस्तेमाल करे।’’
इत्मीनान से संग्रहालय देखकर लौटे  तो बलदेव मुंह पर रूमाल डालकर सो रहा था। पापा बोले ‘‘ काम के चक्कर में सोने को कहां मिलता होगा बेचारों को!’’
‘‘  पापा इतना भी बेचारा नहीं है। देखिए क्या ठाठ हैं।’’ नयना की आवाज बेहद खुश्क होती जा रही थी।
बलदेव के गाड़ी स्टार्ट करते ही उसने सवाल दाग दिया-‘‘ नींद पूरी हो गयी है न तुम्हारी? उनींदे गाड़ी चलाना खतरनाक है। जाओ मुंह पर पानी के छींटे मार आओ।’’
‘‘नहीं मैडम जी कोई जरूरत नहीं। अपना खाना-सोना तो ऐसे ही रहता है। ’’ मेरे चुप रहने पर वह फिर बोला-‘‘आप लोग पहले घूमोगो या कुछ खाओगे?’’ हमारे जवाब का इंतज़ार किए बिना ही उसने कहा-‘‘रास्ते में अच्छा ढाबा है वहीं खा लो आप।’’ नयना का मन तुरंत बोला ‘हां अच्छा ढाबा ...यानि अच्छा कमीशन। और ऊपर से उम्मीद रखेगा कि इसे भी खिला दें।’’ उसने पापा को पलटकर देखा। पापा ने बात समझकर, मुस्कुराकर  टाल दी। मन फिर बोला‘‘ भई जब तुम्हारे पूरे पैसे दे रहे हैं तो क्या अपने खाने पर थोड़ा भी खर्च नहीं कर सकते ?’’ एक ठीक-ठाक सी जगह पर उसने गाड़ी रोकी। मां ने आदतन पूछ ही लिया-‘‘तुम भी कुछ मंगा लो बलदेव।’’ नयना सवाल से भरी आंखों से मां को घूर ही रही थी कि वो बोला-‘‘ जी अपना खाना तो बस दो टाइम का है। खाकर चला और जाकर खांऊगा। पानी साथ रखता हूं। आप इत्मीनान से खाकर आओ।’’ उसकी इस विनम्रता का नयना पर कोई खास असर नहीं पड़ा क्योंकि उसका मानना था-‘‘ हमारे खाने से कमीशन के रूप में उसकी अतिरिक्त आय होने ही वाली है तो खाए न खाए हमें क्या फर्क पड़ना?’’
‘‘खाना तो अच्छी जगह खिलाया उसने, क्यों?’’ पापा ने पूछा।
‘‘वो तो मैं सख्ती दिखा रही हूं न इसीलिए लाइन पर है। वर्ना आपको पता नहीं क्या, कितनी मंहगी जगह ले जाते हैं ये लोग दो कौड़ी का खाना खिलाने।’’ नयना ने खुद पर गर्व किया। मां ने फरियादी स्वर में कहा ‘‘ उसके लिए भी ले ले न कुछ। थोड़ा मीठा ही सही। खुश हो जाएगा।’’
‘‘ नहीं मां...एकदम नहीं, और हम क्यों करें  खुश उसे? सख्त बने रहना ही ठीक है।’’ इस बार पापा बोले ‘‘ इस सख्ती के चक्कर में तू लगातार टेंशन लेकर नहीं चल रही है?’’ सवाल ठीक था पर इससे बड़ी टेंशन जो नयना को थी उसका क्या? दो बुजुर्ग और दो बच्चों की जिम्मेदारी, अनजान जगह और वो अकेली जवान औरत। जरा सी नरम पड़ी कि मामला हाथ से निकल जाएगा। वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में गाड़ी पार्किंग के किराए के साथ, जीप और टिकिट का खर्चा भी था। लाइन लंबी देखकर पापा ने हजार का नोट उसे थमाकर टिकिट लाने भेजा। टिकिट हाथ में पकड़ाकर भी शेष बचे हुए पैसे जब बलदेव ने न लौटाए तो नयना की आंखों ने पापा से सवाल किया। ‘‘ले लेंगे’- वाले बेफिक्र अंदाज में  पापा सबको लेकर आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने पर नयना को एहसास हुआ कि पापा के हाथ में सौंपा कैमरा गायब है। अच्छी तरह याद था नयना को, जीप तक तो उनके ही हाथ में था। मंहगा और विवेक का पसंदीदा कैमरा होने की वजह से उसकी जान सूख गई। पापा से कुछ न कहने में ही समझदारी थी। खामखां परेशान होंगे। पराग का मिनी कैमरा और नयना का मोबाइल कैमरा होने के कारण पापा को कैमरे की कमी महसूस नहीं हुई। घूमकर लौटे तो बलदेव ने साथ बैठते ही ड्राअर से कैमरा निकालते हुए कहा ‘‘ जीप वाले के बैंच पर सर से गलती से छूट गया था शायद। ’’ उसकी इस ईमानदार-जिम्मेदार हरकत पर अचानक ही विश्वास न कर पाने के कारण नयना के मुंह से उसके लिए शुक्रिया का एक शब्द नहीं निकला पर कैमरा मिलने पर एक अदृश्य शक्ति के लिए दो बोल जरूर निकले-‘‘थैंक गॉड ।’’
वाइल्ड लाइफ सेंचुरी से निराश होकर अब उन्होंने चिडि़याघर की ओर रूख किया। शाम घिर रही थी और बच्चों को भूख भी लग रही थी और सबका चाय पीना एकदम जरूरी हो रहा था। खाने-पीने के एक खोखे के पास सब रूक गए। बलदेव मां से बोला ‘‘मैडम घर में पेड़ है खुबानी का। कल आपके लिए लेता आऊंगा। बच्चे ज्यादा खाकर अपना गला खराब कर लेंगें।’’ मां उसे लगभग आशीर्वाद देती हुई मुस्कुरा रही थीं पर नयना का मन कह रहा था- ‘‘न जाने कैसी कच्ची-सी ले आएगा? और क्या हमारे गले खराब नहीं होंगे? जितने की खुबानी नहीं होगी उससे चैगुने की तो दवा ही आ जाएगी। और फिर बाज़ार से दोगुनी कीमत नहीं वसूलेगा क्या हमसे? नहीं चाहिए तुम्हारी खुबानी।’’ पापा के ‘हां’ कहने के बावजूद नयना ने कोई तवज्जो नहीं दी।
लौटते हुए रात घिर रही थी।  थके होने के कारण मां-पापा उनींदे हो रहे थे और बच्चे तो दिन भर की धमाचैकड़ी से निढाल होकर बेखबर सो गए। पर नयना को तो जागना ही था। सबकी निगरानी, फिर ड्राइवर के साथ वाली सीट पर सोने से उसके उनींदे होने का खतरा भी था और तीसरे उसे लग रहा था कि सोने पर कहीं कोई ऊटपटांग हरकत न हो जाए उसके साथ। अचानक बलदेव ने कहा-‘‘ जी एक रास्ता और है जिससे दस किलोमीटर का फर्क आता है। उसीसे ले चलता हूं।’’ उसके सहज कथन ने तूफान मचा दिया। ‘‘जब छोटा था तो पहले भी इससे क्यों नहीं  लाया? रात में नया रास्ता किसलिए पकड़ा जा रहा है? कहीं हाल ही में दिखाई जा रही सारी भलमनसाहत के पीछे इसकी कोई अपराधी प्रवृत्ति तो नहीं छिपी?’’ महानगरों में ऐसे ही लोगों को उल्लू बनाया जाता है। यहां तो दूर- दूर तक कोई है भी नहीं। नयना को अचानक जैसलमेर के रेगिस्तान सम से होटल तक लौटने का वाकया याद आ गया। बहुत रात घिर चुकी थी उस दिन और मीलों तक अंधेरा और निर्जन था। अचानक ड्राइवर ने कहा-‘‘ रास्ते में मेरा गांव पड़ता है, पांच मिनट रूककर चलूंगा।’’ उसके ये कहते ही नयना ने डरकर विवेक को देखा था।  घबराहट तो विवेक के चेहरे पर भी थी पर उनकी बुद्धि ने काम किया। सावधानी के लिए उन्होंने होटल के मैनेजर को फोन मिलाया और बताया कि हम कहां हैं और कितनी देर में पहुंचेंगें । पर दोनों ही जानते थे कि ऐसा करके वे केवल अपने को तसल्ली दे रहे हैं। यहां किसी ने मार-काटकर डाल दिया, किसी को क्या फर्क पड़ना था। पांच-सात घरों के गांव में जब उसने गाड़ी रोकी तो दोनों दम साधकर बैठ गए। अनिष्ट की सैकड़ों आशंकाएं कौंध गईं। इंसानी फितरत भी अजीब है। अच्छे की संभावना की अपेक्षा उसे बुरे की आशंका ही अधिक रहती है। विवेक ने तो कह ही दिया था ‘‘ तैयार रहो बुरे से बुरे के लिए।’’ पर ड्राइवर बिना चाकू- तलवार लाए एक रूमाल में रोटी और पीतल के कटोरदान में दाल या सब्जी भरकर अपने लिए रात का खाना लेकर लौटा। उस रात होटल सुरक्षित पहुंचने को नयना और विवेक ने एक दैवीय चमत्कार ही माना था। आज उस घटना को याद कर नयना डर के बावजूद थोड़ी राहत भी महसूस कर रही थी।
            आबादी वाला और पहचाना- सा रास्ता आता देखकर नयना की जान में जान आई। ‘‘ सारा सामान कमरों तक पहुंचाकर जब बलदेव जाने को हुआ तो नयना ने कहा ‘‘कल भी घूमना है, तुम आ सकते हो?’’
‘‘जी मैडम, कितने बजे?’’ उसे समय बताकर जब नयना पापा के कमरे में गई तो दोनों बच्चे नाना के पेट पर हाथ रखे और पैरों पर पैर चढ़ाए अपनी बातें कर रहे थे। मां ने कहा-‘‘बड़ा अच्छा दिन रहा आज का।’’  मां-पापा और बच्चों को खुश देखकर उसे अपार संतोष हुआ। अगले दिन की यात्रा पापा के आदेश से शुरू हुई ‘‘चल तू बैठ मां के पास। इतना बूढ़ा भी नहीं हुआ जितना लाड़ लड़ाकर तू बना रही है।’’ एक बार पापा को सचेत रहने का इशारा देकर नयना मां के पास बैठ गई। गाड़ी स्टार्ट करने से पहले ही बलदेव ने कहा ‘‘साहब आपके कल के बचे दो सौ अस्सी रूपये। मैं भूल गया था जी।’’ और एक थैला मां को सौंपते हुए कहा ‘‘जी चखो, मेरे पेड़ की खुबानी।’’ नयना झेंप गई। आज पापा लुत्फ उठाने के पूरे अंदाज़ में थे। ‘‘बलदेव यार! पुराने गाने नहीं हैं तुम्हारे पास ?’’
‘‘साहब आजकल टूरिस्ट फड़कते गाने सुनते हैं। मैं तो रेडियो ही चलाता हूं । अभी लगाता हूं आपके लिए पुराने गाने।’’ बस पापा तो रफी, किशोर और मन्ना डे के गीतों के साथ बलदेव के मुरीद हो गए। कभी खिड़की से बाहर देखकर तो कभी मां-बच्चों को देखकर उनकी शांत मुस्कुराहट उनकी तसल्ली का अफसाना बयां कर रही थी। आज सब नयना के आदेशों से मुक्त थे। ‘‘घर-परिवार में कौन-कौन हैं तुम्हारे?’’ कल से कुलबुलाता मां का सवाल आज खामोश नहीं रहा। एक चुप्पी के बाद बलदेव ने कहा ‘‘  परिवार तो कहां है जी ! मां-पिताजी  नहीं रहे , भाई अलग हो गया है। अब घर के नाम पर बस जी मैं, बीबी और दो बच्चे। और कौन!’’ सभी ने गौर किया इस आदमी के लिए घर का मतलब एकाकी परिवार नहीं ,सबका साथ था और इसीलिए सवाल के जवाब में आई उसकी चुप्पी ने बहुत कुछ कह दिया।
नयना के माथे पर आज तनाव की सिलवटें  लगभग गायब थीं। दो घंटे के बाद सब लोग एक नदी के पास थे। नदी का विस्तार, गति, लहरें और ठंडक सबको अपनी तरफ खींच रही थीं। कई गाडि़यां नदी से काफी ऊपर की ओर रूकी थीं पर बलदेव मां-पापा की सुविधा को देखते हुए गाड़ी को नदी के बिल्कुल पास ले गया। मां को सहारे से उसने नदी किनारे एक बड़े से पत्थर पर बिठा दिया। पापा तो पैंट के पायंचे  मोड़कर पानी का सुख लेने नदी में पहुंच गए। ग्लेशियर से पिघलकर आता बर्फीला पानी जहां पांवों को राहत पहुंचा रहा था वहीं रेत में बने गड्ढों में खौलता पानी था। एक ही जगह पर ऐसी विचित्रता रोमांचित कर रही थी। बलदेव ने ही बताया कि सर्दियों में ऐसे गड्ढे खोदकर लोग उनमें बैठ जाते हैं। उसकी बातों से बच्चों को एक नया खेल मिल गया । दोनों  अपने नन्हें हाथों से रेत को खोदकर गड्ढा बनाने में जुट गए। बलदेव ने उनके पास ही एक नया गड्ढा खोदना शुरू कर एक छोटी- सी प्रतियोगिता की चुनौती देकर बच्चों को उत्साहित कर दिया। जो बच्चे कल से रिवर राफ्टिंग की जिद्द पकड़े थे उन्हें एक बार भी उसका ख्याल नहीं आया।
             नयना भी अब पूरी तरह बेफिक्री के मूड में आ चुकी थी। उसने महसूस किया कि बलदेव के साथ ने उसके ओढ़े हुए गंभीर व्यवहार की परत को छील-उखाड़कर उसे फिर से अपने मां-पापा का चंचल बच्चा बना दिया है। बहुत देर तक नदी को निहारने, लहरों से खेलने के बाद सूचना आई कि ये क्षेत्र खाली कर दिया जाए क्योंकि नदी में पीछे से पानी छोड़ा गया है। हाल ही में पच्चीस बच्चों के इसी तरह बह जाने की पीड़ादायी घटना से पापा चिंतित हो गए और जल्दी- जल्दी सबको उठाने लगे। ‘‘ निश्चिन्त रहिए साहब इतनी जल्दी कुछ नहीं होगा।’’ ऐसा कहकर हमें ले चलने से पहले बलदेव ने बच्चों के गड्ढे और अपने गड्ढे के बीच बनी दीवार को एक खेल बनाकर तोड़ना शुरू किया-‘‘देखो मेरा गड्ढा तुम्हारे से बड़ा है पर अगर दोनों मिल जाएं तो हमारा गड्ढा यहां सबसे बड़ा हो जाएगा।’’ तीन जोड़ी हाथों से खोदी जा रही रेतीली दीवार की तरह नयना के मन में बलदेव के प्रति जबरन बनाई गई दीवार सरकते हुए अब पूरी तरह धंस चुकी थी। कहते हैं कि यात्राएं बहुत कुछ सिखाती हैं। नयना ने भी आज जाना- भीड़ भरी इस दुनिया में भी इंसान  मिल ही जाते हैं। 
………
 
 
प्रेषिता
गीता पंडित
 

1 comment:

vandana gupta said...

बढ़िया कहानी