Friday, January 18, 2013

नदी : कुछ कवितायेँ .... सतीश जायसवाल

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नदी : कुछ कवितायेँ

१. शायद नदी___

सपने में दिखा
नदी में पानी
नीद में अपनी
सचमुच की नदी,
जैसे नींद में नदी
सपने में पानी
आज मेंने सुनी
एक आवाज सचमुच सी
छलकती छल-छल
जैसे नदी में जल ,
शायद लौट आयी है
सचमुच में नदी
खिल-खिल हंसी
जैसे किसी पानी को छू कर
आती हुयी हवा
शायद नदी
सचमुच का सपना |
......


२. धूप की नदी
एक नदी
धूप की
रहे कहीं भी
रात में
सुबह अपनी होती है
फिर भी
धूप की नदी ,
रास्ता नहीं भटकती
धूप की नदी,
पर्वत पार कर के
कभी पगडंडियों से होकर
आती है
मिलती है
सरोवर किनारे
ठहरी हुयी
दोपहर में
धूप की नदी,
ना पानी
ना रेत
एक छाया धूप की नदी,
मुट्ठी में पसीजता
कागज़ का एक टुकड़ा
चुपचाप
धूप की नदी ,
धूप में
नदी में
किताब के पन्नों में
पनपती
कोई प्रेम कहानी |
.......


३. प्रार्थना
कविता एक नदी है
सूर्य मन्त्र का पाठ करती हुयी
सोने की हो जाती है
नदी
जब कविता-पाठ करता है
सूर्य ,
धूप में चमक रही है
सोने की नदी,
आओ बैठें यहीं
ठंडी-ठंडी छांव में
देवदारु के हरे तने के साथ
सर टिकाये
आँखें मूदे
देखें सपना,
सपने में उतरती
कितनी-कितनी जल-परियां ,
कविता पाठ करती नदी
नदी में अवतरित होता
जल का आचमन करता
सुबह-सुबह का सूर्य ,
देवदारु पर
देवताओं का वास है,
मुझे वृक्ष हो जाने दो
ओ देवता
मुझे कविता-पाठ करने दो
नदी को कविता हो जाने दो |
........


४. इन्द्रावती
बिलकुल वैसे ही
जैसे रात भर भीगे
साल के पुराने पेड के मजबूत तने के साथ
चिपकी हुयी
किसी जंगली लड़की की
काली चमकीली देह का
अंधेरे में उपकना
उसी अंधेरे में खिलना
भीगी हुयी पंखुड़ियों वाले
एक स्सफेद फूल का
रात के आखीर प्रहर का
वह
उत्कट प्रेम का सपना
आदिम प्रणय के
सनसनाते आवेग से
बेसुध
सफ़ेद कोहरे में लिपटी हुयी
इन्द्रावती की अलसाई देह
अभी तक
अवाक
कई बार
हुआ होगा
लकड़ी वाला पुराना पुल भी
और वहाँ अभी तक
पडा हुआ होगा
बादल का गीला टुकड़ा
इन्द्रावती की बेसुध देह पर
झील-मिल हुआ होगा
कितनी बार
लकड़ी वाला पुराना पुल
सांस रोक कर
उतरा होगा कितनी बार
नदी के जल में चुपचाप
वह सब सुरक्षित होगा
नदी की स्मृतियों में
पड़ रही होगी
लकड़ी वाले पुराने पुल की छाया भी
अभी तक |
.........


५, मायापुर ;में गंगा

फिर भी अभी
जब बाकी था
व्यतीत रात्रि का अंधेरापन
और खिंचे हुए सन्नाटे को
गझिन बना रही थीं
धान के पके खेतों से
उठ रही भारी साँसें ,
लौटती बरसात के
उस अंधियारे भोरहरे में
ठीक सामने थी
उतान पडी पवित्र गंगा ,
पवित्र नदी को
अपवित्र कर लौट गए
अभी थोड़ी देर पहले के
बादलों का सफ़ेद गीलापन
चमक रहा था
वैसी की वैसी उतान पडी
पवित्र नदी के पेट पर
अभी तक ,
भोरहरे की उस बरसात में
भीगी-भीगी नदी
तप रही थी
अतृप्ति में फिर भी
जैसे ज्वर में
तप रही
मंद्कामा
कोई नायिका देह अभी तक
नदी अब सिर्फ नदी थी
ना पवित्र
ना अपवित्र
एक भरपूर देह थी नदी,
अभी नींद-उनींद में था
गौरांग महाप्रभु का गाँव था
सामने था
और रोशनियों में जगमग
कृष्ण-चैतन्य का मंदिर
मूर्छित
भोरहरे के महा-रास में
मूर्छना में महाप्रभु के भक्तजन
मूर्छना में महाचेतना
देह तजती देहाकृतियाँ
देह से अदेह होती नदी भी
बेसुध अभी तक ,
नदी को गीला कर के
लौट चुके
लौटती बरसात के सफ़ेद बादल
अभी थोड़ी देर पहले के
फिर से लौट रहे थे
वापस
उसी डेल्टा-तट पर
पता नहीं कितनी
कितनी अतृप्त तृष्णाएं
अपने भीतर समोए हुए ,
स्नायुओं में ऐंठती
असहनीय दाहक्ताओं से आतप्त
पूरी की पूरी नदी-देह
उठी जा रही थी
जैसे एडियाँ रगड़ती हुयी
अपने बिस्तरे पर
वही मंद्कमा नायिका ,
अनेक जल-धाराओं में
विसर्जित हो रही थी
एक नदी-देह
अनेक दाहक वासनाएं
जल-धाराओं पर पड़ रही थीं
एक तपती हुयी देह की
अनेक तृष्ण-छायाएं
अतृप्त बादलों की ,
शक्तिपात के सनसनाते आवेग में
मूर्छित हुयी जा रही थी
वेगमयी उस बरसात में भीगती
बेबस नदी-देह
निर्वसन नाच रही थी हवा
बिना किसी लोक-लाज के ,
दिव्य महारास के उस भोरहरे में
देह-मुक्ति का वह समूह-गान
मूर्छना की गति पकड़ कर
थिरक रही थीं
देह से अदेह होती हुयी
अनेक पारदर्शी आकृतियाँ
मायापुर की मायाविनी बरसात में
उड़ रहे थे अनेक देह-वस्त्र आकाश में
मुक्त होकर देह-तृष्णाओं से |
.........


६. इच्छामती नदी-- (एक)
क्वांर महीने के चढ़ते दिनों की
बकाया रात के मायावी समय में
अभी
जब
सीझ रही होंगी धान की बालियाँ
नदी के किनारों तक उतर आये
सुनहरे खेतों में
और
नदी पर पड़ रही होगी
लाल रंग वाले लोहे के पुराने पुल की छाया
निस्पंद
तभी
उस अंधियारे भोरहरे में
मछुआरे ने
समेटा होगा अपना जाल
खोली होगी मछलियों वाली अपनी नौका
उतरती बारिश की
इस पीली धूप में से हो कर
निकल रहा है
एक सफ़ेद-सपाट रास्ता
धुंवा-धुंवा
आँखों को धोखा देता हुआ
उस तरफ होगा
कोई बहुत बड़ा बाज़ार
वहाँ पहुंचते होंगे
मछलियों के सौदागर
मालूम नहीं कहाँ-कहाँ से आये हुए
उसी बाज़ार में पहुँचने के लिये
निकला होगा मछुआरा भी
नदी को सुनाता भटियाली गान
मछलियों के साथ
जाल में समेट कर नदी का मन भी
अब सहेज कर
उसी भटियाली गान की धुन
अपने अपहृत मन में
नदी देख रही है रास्ता
मछुआरे के उधर से लौटने का |
.....


७. इच्छामती नदी --(दो)
धूप में
ध्यान कर रहा है
पुल,
पुल के ध्यान में
उतर रही है
नदी,
धूप में ध्यान
ध्यान में नदी
नदी एक देह-गंध
जल में घुल रही है
नदी
व्याप रही है
देह में
बोध में,
एक सघन देह-बोध है
नदी
नदी में घुल रही है
देह,
अगोचर
किसी भोर में
अगम
इच्छाओं के तट पर
उतरी होगी
इंद्र-लोक से कोई अप्सरा
मत्स्यगंधा,
जल में घुल रही है
वही देह-गंध
धूप में
ध्यान में,
देह धारण कर रही है
एक नदी
इच्छामती
एक मत्स्यगंधा नदी |
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८. एक प्राचीन नदी सिन्धु : तीन कवितायें --
 अरोड़ घाटी में नदी के निशान
कितना दारुण और दुस्सह
होता है
एक नदी का विलुप्त हो जाना
कहीं से
और कहीं जा बसना
उस नदी का,
जानना हो
तो यहाँ आओ
इस अरोड़ घाटी में
देखो और जानो
पीला पड़ चुका एक चेहरा
और सूख चुकी
पूरी की पूरी एक नदी की धारा ,
ऐसे कैसे हो सकता है
इतना निस्तब्ध
और जन-विहीन
किसी समृद्ध समय का
समृद्ध जीवन
इतना उदास
और इतनी अकेली
एक घाटी
कभी यानाः बहती थी
एक वेद-वर्णित नदी.
जैसे आकाश के आईने में
उतराता
जल-कणों से भीगा -भीगा
वह चेहरा
तुरंत अभी नहा कर निकली
रूपवती का ,
बांक पर बांक लेती
कभी थी
यहाँ एक देहमयी नदी की
लहराती काया,
पीले पहाड़ों के बीच
सफ़ेद धारियों में बची है
जैसे स्मृतियों पर पड़ रही है
हरे-भरे दिनों की गझिन छाया
अभी तक गीली है ,
एकबारगी नहीं सूख गया होगा
किसी पुराने नक़्शे की तरह
खींचा हुआ
सुनसान और कृशकाय
एक समृद्ध और
हरे-भरे दिनों का समय ,
मालूम नहीं कितना
सैकड़ों या हजारों बरस पुराना
यह रास्ता
एक वेद -वर्णित नदी का,
यहाँ होती होगी
खेती
सुनहरे दानों वाले
चमकीले गंदुम की ,
गहरी
इस नदी के तट पर
उतरते होंगे
दूर देशों से आने वाले
जहाजी
सौदागर भी
लम्बे रेशों वाली कपास के लिये
जैसे सूदूर नील नदी तट पर
होने वाली वह फसल,
आदमी ने यहीं जाना होगा
नदी-जल से
खेतों में उपजाना
अनाज का दाना
और कपास के फूल
पहले-पहल ,
जरूर ही
जान चुकी होगी
नील नदी की रानी
क्लिओपात्रा भी
उसकी अपनी नदी जितनी पुरानी
यह नदी
सिन्धु भी
और उतनी ही पुतानी
सिन्धु की इतिहास-गाथा भी ,
ऐसे ही सब कुछ
नहीं थम गया होगा
ऐसे ही नाता
नहीं तोड़ा होगा
यहाँ से
इतने दिनों पुराना
इतनी पुरानी नदी ने
यहाँ रहने वालों से
और लोगों से बसी हुयी
बस्ती से ,
कोई तो बात
हुयी होगी
आकाश टूटा होगा
या घाटी हिली होगी ,
जहां था नदी का किनारा
हिलोरें लेता
गहरा ,
एक खुश हाल बस्ती
और दूर देशों से आने वाले
सौदागरों के लिये
एक मशहूर बाज़ार
अब धूप में सूखती
एक उजाड़ बस्ती,
कहाँ गए
एक बसी हुयी बस्ती के घर
कहाँ गए होंगे
उन घरों में रहने वाले लोग,
अब कहाँ आते होंगे
दूर देशों के सौदागर
कहाँ जाते होंगे
उस मशहूर बाज़ार की तलाश में |
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(दो) नन्हे लामा की आँखों में नदी___

गैरिक वस्त्रों में सजा-धजा
जैसे कोई खिलौना ,
कुतूहल से भरा-भरा
देख रहा है
पहाड़ से
नदी को
नदी पर हो रही शाम को ,
बहुत दूर से
चल कर आ रहा
दिन भर का थका-मांदा
सूर्य
धीरे से उतरा
नदी में,
वैसा ही हो गया
रंग
नदी के जल का
गैरिक
जैसा
नन्हे लामा के वस्त्रों का रंग,
वैसे ही
शाम का सूर्य भी
गैरिक वस्त्रों में सज गया
जैसे कोई खिलौना ,
कुतूहल से भरा-भरा
नन्हा लामा
देख रहा है
शाम का दिव्य खेल
खिलौना खेल रही है नदी |
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(तीन). लेह में सिन्धु___

जब कोई नहीं था
वहां आस-पास
आतुर प्रतीक्षा के सिवाय
प्रगल्भा नदी
ढूढ़ रही थी
एक गिपन एकांत ,
अंधेरे के गहन तल में
स्पंदित हो रहा था
वही प्रतीक्षित सुख ,
अलौकिक था
वह सब कुछ ,
एक प्रगल्भा नदी का
इस तरह रूपान्तरण
एक आतुरा नायिका में
और आरक्त हो जाना
निर्लज्ज दाह से ,
ऐसे में
निर्वस्त्र
सूर्य का उतरना
नदी -जल में ,
इच्छित अन्धियार के
एकांत तल में
शाम का बेबस पड़ जाना ,
उन दिव्य क्षणों में
कोई नहीं था
वहाँ आस-पास
खिँची हुयी साँसों के सिवाय ,
घोर आसक्ति की तरह
तने हुए
तार पर
देह साधना कर रही थी हवा |
..........




प्रेषिता
गीता पंडित 












2 comments:

vandana gupta said...

shandar rachnayein

satish ka sansar said...

अपने ब्लॉग पर मेरी कविताओं को जगह देने के लिए धन्यवाद।