आज मैं उस व्यक्तित्व की बात कर रही हूँ जिनका जन्म ही गीत के लिए हुआ ....
" मेरठ " में जन्में ... वरिष्ठ गीतकार "श्री भारत भूषण" थोड़े से गीतों के रचनाकार होते हुए भी
वह कितने बड़े गीतकार थे यह शब्दों में व्यक्त कर पाना उतना ही असम्भव है
जितना ये अनुमान लगाना कि वह गीतकार से बड़े इंसान थे और इंसान से
बड़े गीतकार|
"सागर के सीप" 1958 और "ये असंगति" 1993 __ दो संग्रह उपलब्ध है |
मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि ... उन्ही के गीतों से ___
.....
चक्की पर गेँहू लिए खड़ा मै सोच रहा उखड़ा उखड़ा
क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई ।
लेखनी मिली थी गीतव्रता
प्रार्थना- पत्र लिखते बीती
जर्जर उदासियों के कपड़े
थक गई हँसी सीती- सीती
हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई।
कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी
ज़िद करती है गुब्बारों की
यत्नों से कई गुनी ऊँची
डाली है लाल अनारों की
प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई।
गीतों की जन्म-कुंडली में
संभावित थी ये अनहोनी
मोमिया मूर्ति को पैदल ही
मरुथल की दोपहरी ढोनी
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।
.........
सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ
प्रिय मिलने का वचन भरो तो !
पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ
फूट पडे पतझर से लाली
तुम अरुणारे चरन धरो तो !
रात न मेरी दूध नहाई
प्रात न मेरा फूलों वाला
तार-तार हो गया निमोही
काया का रंगीन दुशाला
जीवन सिंदूरी हो जाए
तुम चितवन की किरन करो तो !
सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आँजूँ अँधियारी
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी
साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो|
.......
ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ ।
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ ।
है दर्द-कीट ने
युग-युग इन्हें बनाया
आँसू के
खारी पानी से नहलाया
जब रह न सके ये मौन,
स्वयं तिर आए
भव तट पर
काल तरंगों ने बिखराए
है आँख किसी की खुली
किसी की सोती
खोजो,
पा ही जाओगे कोई मोती
ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ
.......
राम की जल समाधी ___
पश्चिम में ढलका सूर्य
उठा वंशज
सरयू की रेती से,
हारा-हारा,
रीता-रीता,
निःशब्द धरा,
निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर
पर रोम-रोम
था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर,
ये अनाथ-मन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ,
धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहाँ खो गई वैदेही,
वैदेही
तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीव
नयन बोले,
काँपी सरयू,
सरयू काँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम,
नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए,
अब साँस-साँस
संग्राम हुई।
ये राजमुकुट,
ये सिंहासन,
ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन
जीवन मेरा,
सामने नदी की अगम धार,
माँग रे भिखारी,
लोक माँग,
कुछ और माँग
अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में
नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जल महल बना,
फिर राम मिलें न मिलें तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे,
किस ठौर कहां तुझको जोडूँ,
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य,
बोलूँ भी तो किससे बोलूँ,
सिमटे
अब ये लीला सिमटे,
भीतर-भीतर गूँजा भर था,
छप से पानी में पाँव पड़ा,
कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली,
रतिमुख सखियाँ,
नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे,
पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी।
फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा,
लहरों-लहरों,
धारा-धारा,
व्याकुलता फिर
पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी
किरन देह,
दौड़ती चली आगे-आगे,
आँखों में जैसे बान सधा,
दो पाँव उड़े
जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया,
आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम,
तम में जल बहता,
ठहरो बस और नहीं
कहता,
जल में कोई
जीवित दहता,
फिर
एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक धक लपटों में
निर्विकार,
सशरीर सत्य-सी
सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा,
पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।
आगे लहरें
बाहर लहरें,
आगे जल था,
पीछे जल था,
केवल जल था,
वक्षस्थल था,
वक्षस्थल तक
केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल,
बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल,
फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक
जगर-मगर,
दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर,
बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका,
लो शून्य राम
लो राम लहर,
फिर लहर-लहर,
लहरें-लहरें
सरयू-सरयू,
सरयू-सरयू
लहरें- लहरें,
लहरें-लहरें
केवल तम ही तम,
तम ही तम,
जल जल ही
जल ही जल केवल,
हे राम-राम,
हे राम-राम
हे राम-राम,
हे राम-राम ||
........
प्रेषिका
गीता पंडित
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जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढते फिरोगे लाखों में
फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
दूरों दूरों से लाएगा
केशों को गंधों के गहने
ये देह अजंता शैली सी
किसके गीतों में सँवरेगी
किसकी रातें महकाएँगी
जीने के मोड़ों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में
दो दिन में ही बोझिल होगा
मन का लोहा तन का सोना
फैली बाहों सा दीखेगा
सूनेपन में कोना कोना
किसके कपड़ों में टाँकोगे
अखरेगा किसकी बातों में
पूरी दिनचर्या ठप होना
दरकेगी सरोवरी छाती
धूलिया जेठ वैशाखों में
ये गुँथे गुँथे बतियाते पल
कल तक गूँगे हो जाएँगे
होंठों से उड़ते भ्रमर गीत
सूरज ढलते सो जाएँगे
जितना उड़ती है आयु परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरा मुख लिये खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में
...भारत भूषण .
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी
रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी
इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी
मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी !
..... भारत भूषण.
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