Wednesday, November 16, 2011

फिर हुई संध्या काव्यमयी __ मुक्तिबोध की कविताओं पर काव्य नाटक ... गीता पंडित


 
मुक्तिबोध की कविताओं पर अशोक चक्रधर द्वारा लिखित और 'रोबिन दा' द्वारा निर्देशित 'स्याह 

चन्द्र का प्युज़ बल्ब' काव्य-नाटक 11 / 11 /11 की शाम ' मेघदूत कोमप्लेक्स ' में मंचित 

किया गया |  आनंदोत्सव की सीमा नहीं थी |  मुक्तिबोध का सजीव चित्रण उनकी कविताओं 

पर सम्पूर्ण टोली का मन- भावन अभिनय संध्या को अमिट याद के रूप में चित्रित कर गया |



अंत में अशोक चक्रधर द्वारा जब स्वयम नाटक का एक चरित्र बनकर एक सम्पूर्ण कविता का 

पाठ और नाटक का समापन किया गया तो आनंद चरमोत्कर्ष पर था | रौंगटे खड़े हो गये उतार 

- चढ़ाव , उत्साह कविता में जैसे स्वयम उतरकर जीवंत हो उठे | 



'रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव परिचयदास सचिव'  "हिन्दी अकादमी ' के अथक प्रयास से ये सब 

संभव हो पाया | लेकिन -- नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, हिन्दी अकादमी, संगीत  कला अकादमी 

-- तीनों का संयुक्त आयोजन दर्शकों  को अदभुत रस का आस्वादन करा रहा था |




काश !!!!!  ऐसे उत्सव बारम्बार हों और दुसरे कवियों पर भी इस तरह के आयोजन किये जाएँ 

तो कविता जो कहा जा रहा है कि कहीं नहीं है हर तरफ हँसती हुई दिखाई देगी ___



 
...
मुझे नहीं मालूम
मेरी प्रतिक्रियाएँ
सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ
सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य

सुबह से शाम तक
मन में ही
आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ
अपनी ही काटपीट
ग़लत के ख़िलाफ़ नित सही की तलाश में कि
इतना उलझ जाता हूँ कि
जहर नहीं
लिखने की स्याही में पीता हूँ कि
नीला मुँह...
दायित्व-भावों की तुलना में
अपना ही व्यक्ति जब देखता
तो पाता हूँ कि
खुद नहीं मालूम
सही हूँ या गलत हूँ
या और कुछ

सत्य हूँ कि सिर्फ मैं कहने की तारीफ
मनोहर केन्द्र में
खूबसूरत मजेदार
बिजली के खम्भे पर
अँगड़ाई लेते हुए मेहराबदार चार
तड़ित-प्रकाश-दीप...
खम्भे के अलंकार 

सत्य मेरा अलंकार यदि, हाय
तो फिर मैं बुरा हूँ.
निजत्व तुम्हारा, प्राण-स्वप्न तुम्हारा और
व्यक्तित्व तड़ित्-अग्नि-भारवाही तार-तार
बिजली के खम्भे की भांति ही
कन्धों पर रख मैं
विभिन्न तुम्हारे मुख-भाव कान्ति-रश्मि-दीप
निज के हृदय-प्राण
वक्ष से प्रकट, आविर्भूत, अभिव्यक्त
यदि करता हूँ तो....
दोष तुम्हारा है

मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस जिन्दगी के बन्द किवार की
दरार से
रश्मि-सी घुसो और विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो
मनोज्ञ रश्मि की लीला बन
होती हो प्रत्यावर्तित विभिन्न कोणों से
विभिन्न शीशों पर
आकाशीय मार्ग से रश्मि-प्रवाहों के
कमरे के सूने में सांवले
निज-चेतस् आलोक

सत्य है कि
बहुत भव्य रम्य विशाल मृदु
कोई चीज़
कभी-कभी सिकुड़ती है इतनी कि
तुच्छ और क्षुद्र ही लगती है!!
मेरे भीतर आलोचनाशील आँख
बुद्धि की सचाई से
कल्पनाशील दृग फोड़ती!!

संवेदनशील मैं कि चिन्ताग्रस्त
कभी बहुत कुद्ध हो
सोचता हूँ
मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
अपना सम्बल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार-हित
जाली नहीं बनूंगा मैं बांस की
जाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुए
रूखा सूखा व्यक्तित्व

चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन
कौन हो की कही की अजीब तुम
बीसवीं सदी की एक
नालायक ट्रैजेडी

जमाने की दुखान्त मूर्खता
फैन्टेसी मनोहर
बुदबुदाता हुआ आत्म संवाद
होठों का बेवकूफ़ कथ्य और

फफक-फफक ढुला अश्रुजल

अरी तुम षडयन्त्र-व्यूह-जाल-फंसी हुई
अजान सब पैंतरों से बातों से
भोले विश्वास की सहजता
स्वाभाविक सौंप
यह प्राकृतिक हृदय-दान
बेसिकली गलत तुम।
....


(गजानन माधव मुक्तिबोध) 



गीता पंडित 

2 comments:

गीता पंडित said...

अंत में जब कहा गया कि " पूर्ण चन्द्र के पावन-पर्व का प्राण-बल्ब हम लगाकर रहेंगे " तो हर्ष और उल्लास जैसे जीवंत हो चला,,, प्राणों में जीवन का संचार होता हुआ लग रहा था... हर तरफ करतल ध्वनि बस....लगा कि जीवन की आपाधापी से, गूढ़ विषमताओं को भूलकर जीवन गा रहा है ... गायेगा इसी आशा के साथ ..

गीता पंडित said...

आहा !!!! कविता को ना केवल सुनना अपितु उसे देखना भी आनंदोत्सव से कम नहीं उस पर मुक्तिबोध जी जैसे कवि की..........काश !!! ऐसे आयोजन बारम्बार जगह-जगह होते रहें ...

आमीन..