प्रज्ञा जी की औरत को जानना एक तमाम ज़िंदगी को
जानने जैसा है | वह औरत जंगली भी है , प्रेम में असहज
भी है , चश्मे का मीठा पानी है ,
और न मिलने पर तल्ख़ भी है |
यही नही , वो घर भी है , और सराय भी |
बाबा के पीले जनेऊ से भी डरती है , और
जाती बिरादरी के चूल्हे – चौके से भी |
लेकिन , रीढ़ से मज़बूत है यह औरत |
आप भी देखिये प्रज्ञा जी की लेखनी स्त्री
पर क्या कहती है .....
1) मैं हूँ जंगली
हाँ, मैं हूँ जंगली, मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली
नहीं समझती
तुम्हारी भाषा
उतनी आभिजात्य नहीं कि
ओढ़ कर लबादा तुम्हारी हंसी का
बांटती रहूँ अपने संस्कार तुममें
मुझमें नहीं इतनी ताक़त
कि पी जाऊँ अपनी अस्मिता
और
परोसूँ अपना वजूद
हाँ मैं हूँ जंगली
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएँ पहन तुम होते हो वहशी |
मगर मुझे क्रोध आता है तुम्हारी हंसी पर
मुझे क्रोध आता है
जब ग्लैमर की चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हो मुझको परोसना |
हाँ मैं हूँ जंगली , नहीं जानती सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हो और मैं हूँ शोषिता |
.......
2)प्रेम में मैं असहज हूँ--
प्रेम में मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवजह |
कभी चाहती हूँ रौंदकर
ख़ुद को
उसी की राह बन जाऊँ
कभी चाहती हूँ
रौंद देना सब कुछ |
कभी तन्हाई का जंगल थाम
बैठ जाती हूँ
कभी चलती हूँ हर कदम ही
शोर बन कर |
यूँ तो
कायनात में
वो
इक अकेला है
और सिर्फ मेरा सिर्फ
मेरा
सिर्फ मेरा है
है चश्मे का पानी कभी
वो
मीठा मीठा सा
तल्ख़ होता है
मगर
जब
घूँट भर नहीं मिलता |
भाती है उसकी
बच्चों सी
हंसी
कब चाहती हूँ मैं कि वो रोये मगर
सिसकियाँ उसकी
भली |
पराग मेरे अंग पर
यूँ तो मला है
प्रेम ने
और मैं भी उड़ी
ख़ूब
तितलियों के संग
फिर भी
निर्मम !
पंख उनके
मसलती हूँ देह पर
प्रेम में
मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवजह |
........
3) तुम्हारा ख़त
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकड़े बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त
याद आई जाती बिरादरी
याद आया चूल्हा
छिपा छूत के डर से |
याद आई बाबा की
पीली जनेऊ
खींचती रेखा कलेजे में |
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे घर से |
याद आई झोंपड़ी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी |
याद आया हमारा
भरा खेत खलिहान !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हो गई छांव नीम की
और
याद आई
गाँव की बहती नदी
जिसमें डुबाये बैठते
हम
अपने अपने पाँव !
और बहता
एक रंग पानी का |
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकड़े बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकड़े हुए |
......
4)
तुम चाहते हो –
तुम चाहते हो
अकेली मिलूँ मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत |
जब से ये जंगल हैं
तब से ही मैं हूँ ,ढोती हूँ
नई सलीबें !
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुएं अपने वजूद में
तुमने जाना कि मौन हूँ तो हूँ मैं मधुर
मगर मैं तो मज़बूत करती रही अपनी रीढ़
कि करूँगी मुक़ाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में
उसी को पहन आऊँगी तुमसे मिलने
अकेली नहीं मैं !!
......
५ ) घर होती हैं औरतें , सराय होती हैं
घर होती है औरतें
सराय होती है |
अन्नपूर्णा होती है
पुआल होती है |
ओढ़ना बिछौना सपना
मचान होती हैं |
दुआर दहलीज़ तो होती है
सन्नाटा सिवान होती है |
खलिहान और अन्न तो होती है
अकसर आसमान होती हैं |
कच्ची मिट्टी घर की भीत
थूनी थवार होती हैं |
बारिशी दिनों में ओरी से चूती हैं
पोखर होती है सेवार होती हैं |
अकसर बंसवार होती हैं |
औरतें बंदनवार होती हैं |
छूने पर छुई मुई तो होती है
तूफानों में
खेवैया होती हैं
पतवार होती हैं |
......
संपादिका
गीता पंडित
8 comments:
अभिनंदन आपका प्रज्ञा पाण्डेय जी
'हम और हमारी लेखनी"
ब्लॉग पर
आभार
सस्नेह
गीता पंडित
aapko bahut bahut dhanyvaad geeta ji .
घर होती हैं औरतें , सराय होती हैं
pragya ki behtreen kavitaon me se ek hai
प्रज्ञा जी की कविताएँ विद्रोह और प्रेम के उस स्वर को मुखरित करती हैं, जो हिंदी कविता में कम सुनाई देता है...एक बेलौस और बेबाक आवाज़ हमें अपनी गिरफ्त में ले लेती है...जिसे उन्सुना किया जाना संभव नहीं...
प्रज्ञा जी की कविताएँ विद्रोह और प्रेम के उस स्वर को मुखरित करती हैं, जो हिंदी कविता में कम सुनाई देता है...एक बेलौस और बेबाक आवाज़ हमें अपनी गिरफ्त में ले लेती है...जिसे उन्सुना किया जाना संभव नहीं...
प्रज्ञा जी की कविताएँ विद्रोह और प्रेम के उस स्वर को मुखरित करती हैं, जो हिंदी कविता में कम सुनाई देता है...एक बेलौस और बेबाक आवाज़ हमें अपनी गिरफ्त में ले लेती है...जिसे उन्सुना किया जाना संभव नहीं...
उनके शब्दों की अनुगूंज गूंजती रहेगी कानो में मस्तिष्क में ह्रदय पर. निशान छोडती हुई सुन्दर कवितायें. बधाई.
रतजगों की तपिश से बने कुन्दन -कवच को पहन कर आने की ख़्वाहिश , वो भी मज़बूत रीढ़ के साथ -- कहाँ है अकेली औरत ?
****
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए नीम की छांह का घाना हो जाना --बाबा की पीली जनेऊ की रेखा का कलेजे मे खिंच जाना --छूत के डर से जात-बिरादरी -चूल्हे का याद आना |
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औरत का बंसवार होना , और बंदनवार भी |छुई-मुई होना और खिवैयापतवार भी |अन्नपूर्णा होना और सराय भी |
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प्रज्ञा जी की कविताओं की बेबाकी से गुज़रना निश्चय ही मज़बूत रीढ़ की औरत को जानना भर नहीं है वरन उद्दाम साहस और जीवट का दीदार करना है |उनके बोलों मेन छिपी कमनीयता --कठोरता स्त्री के चरित्र की पुख़्तगी को सलाम करने के लिए बाध्य करती है |
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