Tuesday, June 21, 2011

मन तुम हरी दूब रहना [गीता पंडित के काव्य संग्रह पर चर्चा] – राजीव रंजन प्रसाद

 स्त्री का लेखन भी स्त्री विमर्श है


“मन तुम हरी दूब रहना” किसी काव्य संग्रह का ही शीर्षक हो सकता है। कवियित्री गीता पंडित के भावुकता भरे शब्दों में किसी भी मन-दूब को हरी भरी रखने की क्षमता है। कविताओं में ताजगी है और नयापन भी। कौस्तुभ प्रकाशन हापुड से प्रकाशित काव्य संग्रह का मुखपृष्ठ जितना कलात्मक है इसके फ्लैप पर प्रस्तुत कविता ‘स्त्री’ जैसे इस रचना संग्रह की भूमिका प्रस्तुत करती है –

सिक्त नयन हैं/ फिर भी मन में
मृदुता रख कर/ मुस्काती
अपने स्वपनों की/ बना अल्पना
नभ को रंग कर/ सुख पाती।

कवियित्री नें अपना संग्रह पिता तथा कवि स्व. श्री मदन ‘शलभ’ को समर्पित किया है। कवियित्री नें अपनी बात में कहा है “...दो विपरीत ध्रुवों क्के बीच पीडा है, छटपटाहट है, जिज्ञासा है, जकडन है, खिन्नता है और खोज है। इसी खोज नें मुझे रथारूढ कर दिया शब्द रथ पर।“ कवियित्री आगे कहती हैं “स्त्री संबंध का पोषण भी करती रहे और जीती भी रहे। सामंजस्य बनाने में उपलब्धि हुई अश्रु की। लेकिन अश्रु अशक्तता नहीं अवसाद नहीं और हताशा भी नहीं। वरन सुदूर छूर के पार जा कर कुछ सार्थक कर निकलने का प्रयास है, वह भी मनके अंतर्पटल को उपजाऊ रख कर, हरी दूब की भाँति निर्मल रख कर। यह प्रयास ही मेरा परिचय है।“ एक “आभार” पर निगाह ठहरती है। कवियित्री नें अंतर्जाल को एक मंच करार देते हुए “ओरकुट” का आभार व्यक्त किया है। हिन्दी साहित्य जगत अब अंतर्जाल को यह कह कर तो हर्गिज खारिज नहीं कर सकता कि यह महज संवाद के आदान प्रदान का माध्यम है।

काव्य संग्रह की भूमिका डॉ. अशोक मैत्रेय नें लिखी है। काव्य संग्रह को पढने के पश्चात मैं डॉ. मैत्रेय से सहमत हूँ कि “समकालीन कविता में जहाँ विचारों सरोकारों की प्रमुखता बढ गयी है और भावनाओं को निजी मान लिया गया है, वहाँ एक स्वर गीता पंडित का भी है जहाँ विचारों से अधिक भावना की प्रधानता है।“ मैं जोडना चाहूँगा कि आज झंडो और नारों में कविता कहीं खो सी गयी है। जब तक मन के हरी दूब होने की कल्पना कविता में नहीं होगी वह नारे जैसी तीखी या किसी नक्कारखाने की तूती जैसी हो जायेगी। अधिकांश वे कविताए एसी ही है जिन पर समकालीन होने का पोस्टर चिपका हुआ है कि उन्हें पढने के लिये हिम्मत जुटानी पडती है। कविता वह जो बहे, बहा ले जाये। कविता वह जिसका कोई काल नहीं कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं। डॉ. मैत्रेय गीता पंडित की कविताओं के लिये आगे लिखते हैं “”...कविताओं में प्रेम की चेतना वैयक्तिक धरातल से उठ कर समिष्टि में विस्तारित होते होते उस अदृश्य में एकाकार हो जाती है जिसे हम ‘ईश्वर’ कहते हैं..”। मैत्रेय आगे लिखते हैं कि “गीता पंडित की कवितायें आशा-निराशा, लालसाओं और स्मृतियों के बीच हिचकोले लेती एक भावुक और संवेदनशील लेकिन सतर्क कवियित्री की कवितायें हैं”।

कवियित्री नें अपनी कविताओं में स्थाईयों को अत्यधिक समर्पण दिया है। कई स्थाईयाँ अपने आप में इतने गहरे भाव लिये हुए हैं कि पूरी कविता को अपने प्रभाव क्षेत्र में जकड रखती हैं –

कौन से हैं मोड ये
मुझको नहीं पहचानते।
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दीप मन के साथ जलते,
फिर भी फैले पथ अंधेरे
क्यों नहीं हैं वो पिघलते॥
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मैं मिट गया तो मिट जायेगी
तेरे मन की प्रेम-निशानी,
मैं हूँ तेरी आँख का पानी।
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बाहर तो मधुमास घिरा है,
अंदर पतझर पावन सा
मेरी अँखिया ही पगली हैं,
दोष कहाँ है सावन का।
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उन्मुक्त पलों का मर्म देख कर सुख पाते,
बहुत सहज है जीवन जो हम जी पाते।
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तुम ना महके, ना महकी, मन की कली
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बिन प्रियतम के चाँदनी मन रो रहा है,
उजली रातें फिर भी मावस बो रहा है।
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संदली मन ओढ कर,
जाने क्या सह कर गये पल,
श्वास के पल्लू से क्यूँकर
आज बंध कर रह गये पल।

गीता जी नें अपने काव्य संग्रह में निराले स्नेह संबंध की सृष्टि की है। “मीते” शब्द के सौन्दर्यबोध की ही सराहना नहीं करनी होगी अपितु पार्थिव प्रेम से उपर उनका यह बिम्ब नवीन आलम्बन देता है।

हर एकाकी पल में मीते
गीत तुम्हारा मन पर छाया
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मेरे मीते तुम्हें मनाने
मेरे गीत चले आये।
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फिर तुम्हारी याद आयी
मेरे मीते! तुम कहाँ।
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मन गगन में बरस कर
आये वही फिर प्रीत मीते।
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तुम चलोजो साथ मीते! सुर नये मिल जायेंगे।
मन के आँगन की दोपहरी में भी पंछी गायेंगे।
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तुम ही कजरी चैती मीते!
तुम में सावन गाते हैं।

गीता जी की कविता में प्रेम अपने निहितार्थ से उपर उठ कर आस्था और उपासना के चरम को स्पर्श करने लगता है। कविता में प्रेम एक अलौकिक भावना है जो कभी वेदना है कभी आशा तो कभी प्रेरणा -

प्रेम ही जब मूक बोलो
कौन किसको गाएगा
एक है जो हममेँ तुममेँ
एक कब हो पाएगा।

प्रेम बिन कैसा जगत ये
काठ बन रह जाएगा,
मौन भेजेगा निमंत्रण,
मौन ही दोहराएगा।
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हक्की बक्की खडी बजरिया
जब से तुम परदेश गये,
लोहे के से चने चबाते
पल-पल के संदेश भये,
तुम बिन ओ मनमीते मेरे!
पीर मेरे मन में झूले।
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प्रीत घन अमृत कलश के
बन के बरसें आज तो,
मन के मरुथल में सरस
सरिता बहे जाने कहाँ।
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प्रीत के मनके संभालो
तुम ही माला श्वास के

गीता जी की कविताओं में केवल अनुरक्ति की अभिव्यक्ति भर नहीं है अपितु भाव और प्रस्तुति में नूतनता और वैविध्य दोनों ही दृष्टिगोचर होता है। गीति, काव्यात्मक शिल्प, दार्शनिक चिंतन, बिम्ब आदि की विवेचना करते हुए यह समझना कठिन हो जाता है कि बात कवियित्री के प्रथम काव्य संग्रह पर हो रही है। बिम्ब स्वाभाविक है और भाव को सुग्राह्य ही बनाते हैं। कवियित्री नें कहीं भी केवल विद्वत्ता प्रदर्शन के लिये शब्दों की जटिलता को नहीं ओढा न ही एसे बिम्ब प्रयोग में लाये हैं जो पाठक का मष्तिष्क मंथन करें।

हिम पर बैठे हुए शब्द थे।
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मीठे झरने की कहानी
खारे जल में है पली।
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आओ मन से मुस्कुरायें
पल के माथे पर लिखें कोई कविता
आओ हम हरेक पल को जीते जायें
क्यूँ ना जाने, आज इस पल में कहें
मन सुमन ना खिल सके तो रूठे जायें।
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नींद बेघर सी ना जाने है कहाँ
सपनों के पाखी बहकते हैं यहाँ
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आज इस पल में भरें मन की मेरी ये बस्तियाँ,
क्या पता कल हों ना हों फिर साथ मेरे अस्थियाँ
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बाँधकर घुंघरू प्रणय के,
पंजनी बन बोलता मन।
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जग सितार पर मीठी मीठी
धुन बन कर सो जाउँगी
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जिस पल तुमने याद किया
वो पल मन का श्रृंगार बना
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मन मेरा तो एक सरिता है
तुम से ही भरकर जल आये।

कवियित्री अपनी पीडा को बोल देना चाहती तो हैं किंतु वे ‘प्रीत बिन ना श्वास  आना’ की मनोवृत्ति में भी हैं। कभी उन्हें अम्बर से उत्तर चाहिये तो कभी मन ही से। वेदना का अर्थ ठहर जाना तो हर्गिज नहीं है। बहुत समय बाद हिन्दी कविता में प्रेम को एसी सादगी भरी गीति मिली है और इन कविताओं की भाव-सुषमा में कई बार अनायास ही महादेवी की स्मृति हो आती है। असाधारण है यह प्रेम जो डूबती उतराती लहरों सा चंचल है, आन्दोलित है प्रश्न लिये हुए है उत्तर पाने के लिये व्यग्र है और अपने मीते को गाना चाहता है।

नयन ना बरसात लाना
इस तरह ना याद आना
प्रीत बिन ना श्वास आना,
इस तरह ना याद आना।
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संवेदना पल-पल ढले,
पीर से मिलकर गले,
प्रीत के दीपक जलाये,
बंद मन के कोष्ठ में
होती विकल वो कौन है।
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आस के तरुवर पे छाया मौन क्यूँ,
हर कली के मन को भाया कौन क्यूँ,
क्यूँ निरुत्तर पल का अम्बर हो गया,
शब्द मन के सोख अंतर सो गया
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धूम्र तन में हूँ लपेटे
अंशु-मन की रश्मियाँ,
पीर की घनघोर बदली
मुझमें भरती बिजलियाँ,
मन सलिल को हूँ संभाले
पल में मैं ठहरी रही।
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एक एक पल में एक एक युग सा
समय निगोडा आता है
नयनों की बस्ती में जाने
कैसा सागर लाता है
डूबती उतराती लहरों संग
मैं लहरें बन जाती हूँ
तुमको गाना था प्रियतम
आज ना गाने पाती हूँ।
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विगत हुए युग प्रीत
पथिक पथ में ही भटक रही है।

खोल दो सब बंद द्वारे
मीत अंतर में पधारे
दीप अर्चन आरती बन
मन स्वयं को आज वारे।

गीता जी के गीत सधे हुए एवं शब्द-शब्द नपे तुले हैं। पढते हुए कोई भी शब्द बाधा उत्पन्न नहीं करता। शब्द चयन भावानुकूल है एवं जहाँ भी शब्दों के साथ प्रयोग किये गये हैं जैसे - कूकेगी, मात, मीते, प्रीते, शूले आदि, वे अबूझ नहीं होते। कवियित्री नें ध्वन्यात्मक शब्दों को भी अपनी भाव संप्रेषणीयता का माध्यम बनाया है। छम-छम, खन-खन, कल-कल, ढुल ढुल जैसी ध्वनिया पाठक के आगे चित्र उकेरने में समर्थ हो जाती हैं। आवश्यकता पडने पर कवियित्री नें देशज शब्दों से भी गुरेज नहीं किया है -

गहन उदासी, बढते साये
नयनों में घन घिर घिर आये,
मन तरुवर पर बैठी बुलबुल
पीडा के बोलों में ढुल ढुल
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नभ में घन की मेखला भी
बुंदिया भर भर साथ लायी
झूले कजरी चैती गाने
सखि सहेली संग लायी
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है धरोहर कौन सी जो मन को लानी है अभी,
याद ना आयें मुझे अब पीर बोते हैं सभी,
पीर की बोली छिपी है, मन के हर एक गाँव में
ना जाने क्यों खो गये मग, प्रीत की हर ठाँव में।
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नयन बेकल पथ निहारें रैन की है माँग सूनी,
बिन तुम्हारे मीत मेरे पीर की है आग दूनी।

कवियित्री की प्रस्तुत रचनाओं में  स्त्री विमर्श पर केन्द्रित अथवा सामाजिक सरोकारों के लिये लेखन की कुछ झलकियाँ उनकी कुछ पंक्तियों में  -

मैं हूँ मात यशोदा जिसको
कान्हा का यहाँ प्यार मिला
हूँ मैं वो गीता भी जिसमें
गीता का हर एक सार खिला
क्या मेरा है सभी तुम्हारा
तुम्हें लौटाने आयी हूँ
मैं हूँ बेटी इसी देश की,
तुमसे मिलने आयी हूँ
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मन में करुणा बोलती है
कर ना पाती मन द्रवित,
धर्म, जाति के झमेलों
में फंसा जन है भ्रमित
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चुक जाये ऋण धरा का
रहें जीवित ये प्राण
उर में भक्ति, पग में शक्ति
बस ये ही हो सामान

कविता से दूर होते पाठक को गीता जी की ये कवितायें मोर पंख से छुवेंगी। कविता आत्म से आत्मा तक के विषयों में पिरोयी हुई अवश्य हैं किंतु उनमें पाठक के अंतस में घर कर जाने की क्षमता है। केवल भावुकता कह कर आप इन कविताओं से बच नहीं सकते अपितु आपको संवेदना की इस नदी से गुजर कर कुछ एसा पढने की ताजगी का अहसास होगा जैसा इन दिनों नहीं लिखा जा रहा है। आज की कविता में उसका ढांचा भर रह गया है लेकिन उसके भीतर का मन जैसे सूख गया हो। मन को हरी दूब रखने का गीता जी का प्रयास सफल हुआ है।
 
 
साभार 
( साहित्य शिल्पी ) राजीव रंजन प्रसाद

15 comments:

Travel Trade Service said...

खोल दो सब बंद द्वारे
मिट अंतर में पधारे
दीप अर्चन आरती बन
मन स्वयं को आज वारे ....बहुत सुंदरा समर्पण भाव !!!!!!!!मन को मोहती पक्तियां ...हर भाव में पूरा आलेख सुंदरा शब्दों से सजा है ...बधाई गीता जी आप को !!!!!!!!!!!!!NIRMAL PANERI

Travel Trade Service said...

खोल दो सब बंद द्वारे
मिट अंतर में पधारे
दीप अर्चन आरती बन
मन स्वयं को आज वारे ....बहुत सुंदरा समर्पण भाव !!!!!!!!मन को मोहती पक्तियां ...हर भाव में पूरा आलेख सुंदरा शब्दों से सजा है ...बधाई गीता जी आप को !!!!!!!!!!!!NIRMAL PANERI

अरुण चन्द्र रॉय said...

कविता के अंश और समीक्षा पढ़ कर पूरा संग्रह पढने की इच्छा हो रही है.. बहुत सुन्दर...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर पोस्ट लगाई है आपने!
सबी छंद बहुत बढ़िया हैं समझ में नहीं आरहा है किसको कोड करूँ!

Ashish Shukla said...

कविता के अंश और समीक्षा बहुत सुन्दर...

संध्या आर्य said...

badhai GEETA JI.....SUNDAR AALEKH
SAADAR

गीता पंडित said...

आभार निर्मल जी,
आदरणीय शास्त्री जी,
अरुण जी,
आशीष जी,
संध्या जी,

आप सभी की हृदय से आभारी हूँ..

मंगलकामनाएँ
गीता पंडित

गीता पंडित said...

राजीव रंजन जी आपकी विशेष रूप से आभारी हूँ..आपने बहुत मनोयोग से मेरा काव्य संग्रह " मन तुम हरी दूब रहना " न केवल पढ़ा बल्कि आत्मसात भी किया ... जिसका परिणाम ये समीक्षा है ... हार्दिक आभार ..

शुभ कामनाएँ


सस्नेह
गीता पंडित

chetan ramkishan "dev" said...

"गीता जी, आपकी काव्य संग्रह कि समीक्षा पढ़ी, मन काव्य कि सरिता में डूब गया! समीक्षा भर से ही, आपके काव्य संग्रह कि सुगंध हम तक पहुँचने लगी है! आपका संग्रह अनमोल है! आपको अच्छे साहित्यिक जीवन कि शुभ-कामना! मैं सूर्य को दीप क्या दिखाऊ, पर इतना ही कह सकता हूँ कि---------------------------------------
"चन्दन भये सुगन्धित वायु, तू छ्ण छ्ण ऐसे ही बहना!
आते हों जब प्रिय हमारे, आकर तू चुपके से कहना!
चचल बनके दूर ना जाना, चतुर्भुजों की सीमा रचकर,
वो कितनी भी धूप मलें पर, "मन तुम हरी दूब ही रहना"
................शुभ कामना सहित-"देव"

chetan ramkishan "dev" said...

"गीता जी, आपकी काव्य संग्रह कि समीक्षा पढ़ी, मन काव्य कि सरिता में डूब गया! समीक्षा भर से ही, आपके काव्य संग्रह कि सुगंध हम तक पहुँचने लगी है! आपका संग्रह अनमोल है! आपको अच्छे साहित्यिक जीवन कि शुभ-कामना! मैं सूर्य को दीप क्या दिखाऊ, पर इतना ही कह सकता हूँ कि---------------------------------------
"चन्दन भये सुगन्धित वायु, तू छ्ण छ्ण ऐसे ही बहना!
आते हों जब प्रिय हमारे, आकर तू चुपके से कहना!
चचल बनके दूर ना जाना, चतुर्भुजों की सीमा रचकर,
वो कितनी भी धूप मलें पर, "मन तुम हरी दूब ही रहना"
................शुभ कामना सहित-"देव"

गीता पंडित said...

आहा !!!! आभार चेतन जी आपके स्नेह के लियें ...
बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं आपकी...

"शेष नहीं है फिर भी मित्र ! यूँ ही कहना चाह रही हूँ,
"हर एक तुम्हारी पंक्ति को अपने मन पर वार रही हूँ |"


सस्नेह
गीता पंडित

praveen pandit said...

हरी दूब इंगित करती है जीवन को | यह न केवल उदगम है, आरंभ है वरन उसकी सार्थकता भी है |निर्मलता ,पवित्रता और सामर्थ्य की द्योतक भी है |हवा के तीखे थपेड़ों में भी झूमती है ,मीठी बयार मे तो इसकी लहलहाहट जीवनको प्रेरित करती है,प्रोत्साहित करती है |
गीतों की भाँति मन भी हरी दूब सा लहलहाता रहे --यही शुभकामना |

aarya said...

वाह ..आपने अपने लेख में इस रचना संग्रह की आत्मा का बखान किया है ...आपको साधुवाद |
डॉ रत्नेश त्रिपाठी

शब्दमंगल said...

गीता जी,
आपने ब्लॉग में सबसे ऊपर लिखा हैं - "स्त्री ने जब भी कुछ कहना चाहा, उसे रोक दिया गया या मौन स्वयं आकर उसके अधरों पर बैठ गया | लेकिन लेखनी मूक ना रह पायी वो बोली तो ऐसे बोली..."
इस बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगा की बीत गयी सो बात गयी... आज के दौर में स्री स्वतन्त्र हैं भी और कुछ हद तक नहीं भी...! मगर इस बहस को छोड़कर कहता हूँ की आपकी लेखनी स्वयं बोल रहीं है, बोलने लगी हैं... फिर मुड़कर क्यों देखती हैं | सभी का अधिकार हैं- अपने विचारों को स्पष्ट करें... काफी लोग हैं जो ज्ञानी हैं, खुद ही तय करेंगे, कौन किस उद्देश्य से कह रहे हैं | आपके संग्रह के लिए बधाई |

शब्दमंगल said...

गीता जी,
आपने ब्लॉग में सबसे ऊपर लिखा हैं - "स्त्री ने जब भी कुछ कहना चाहा, उसे रोक दिया गया या मौन स्वयं आकर उसके अधरों पर बैठ गया | लेकिन लेखनी मूक ना रह पायी वो बोली तो ऐसे बोली..."
इस बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगा की बीत गयी सो बात गयी... आज के दौर में स्री स्वतन्त्र हैं भी और कुछ हद तक नहीं भी...! मगर इस बहस को छोड़कर कहता हूँ की आपकी लेखनी स्वयं बोल रहीं है, बोलने लगी हैं... फिर मुड़कर क्यों देखती हैं | सभी का अधिकार हैं- अपने विचारों को स्पष्ट करें... काफी लोग हैं जो ज्ञानी हैं, खुद ही तय करेंगे, कौन किस उद्देश्य से कह रहे हैं | आपके संग्रह के लिए बधाई |