"स्त्री और पुरुष" "पुरुष और स्त्री " जैसे इन दोनों में सारा संसार सिमट कर रह गया है |यह संसार सुखद रहे, सुंदर रहे, बिना मुखौटे दोनों के अधरों पर मुस्कानों के सुमन खिलें, इसी कामना के साथ चन्द्रकान्त देवताले जी की लेखनी से परिचित होते है स्त्री पर उनकी लेखनी क्या लिखती है ___
1)औरत ---
वह औरतआकाश और पृथ्वी के बीचकब से कपड़े पछीट रही है ,
पछीट रही है शताब्दियों सेधूप के तार पर सूखा रही है ,वह औरत आकाश और धूप और हवा सेवंचित घुप्प गुफा मेंकितना आटा गूँथ रही है ?गूँथ रही है मनों सेर आटाअसंख्य रोटियाँसूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरतदिशाओं के सूप में खेतों कोफटक रही हैएक औरतवक्त की नदी मेंदोपहर के पत्थर सेशताब्दियाँ हो गईंएड़ी घिस रही है ,
एक औरत अनंत पृथ्वी कोअपने स्तनों में समेटेदूध के झरने बहा रही है ,एक औरत अपने सिर परघास का गट्ठर रखेकब से धरती को नापती ही जा रही है ,
एक औरत अंधेरे मेंखर्राटे भरते हुए आदमी के पासनिर्वसन जागतीशताब्दियों से सोयी है ,
एक औरत का धड़भीड़ में भटक रहा हैउसके हाथ अपना व्हहरा ढूँढ रहे हैंउसके पाँवजाने कब सेसबसे अपना पता पूछ रहे हैं |........
2)तुम्हारी हथेलियों पर ----
बरसों से दुखने का अभिनय करतेमेरे कंधों और पीठ को सहलातीतुम्हारी हथेलियों पर मैंने क्या रखा ?अगर इस तरह सोचने लगूं तोमुझे कहीं भी शरण नहीं मिलेगीआँसुओं में छिप कर भी नहींधंसकती हुई रातों और तड़कते हुए दिनों मेतुम खड़ी रहीं मेरे साथऔर तुमने मुझे गिरने नहीं दियादु:ख ने झपटते मारे हम परऔर हमारे लोगों परदुश्मनों ने चाहा हर तरह से मोहताज बनानाआसपास की दुनिया को
मैं आग में घिर जाताडूब जाता पानी मेंहवा में बिखर जातापर तुम आग में पानी , और पानी में आगऔर हवा में मिट्टी की तरह मुझे थामे रहींतुमने बर्दाश्त की मेरे आज़ादी और मूर्खताएँउखड़ी पस्त हालत मेंतुमने मुझे बच्चे सा सुलायाहम पर गिरे अंधेरे के थक्के टूट करपर तुमने बुझने नहीं दी भीतर की मोमबत्ती
तुम चाहतीं तो बन जाता मैं भी चतुर दुनियादारशामिल हो जाता कहीं भी मुखौटे खरीदतीभद्रजनों की भीड़ मेंपर तुम जतन से पौंछती रहींपतझर और कड़वे दिनों के धब्बेचमकातीं रहीं पत्तियां,बर्तन औरभीतर की धड़कनों के कोने - कोने
मेरा चेहरा , आँखें ,होंठमेरे समूचे होने का असह्य हलकापन ,और आग की तरह दहकते शब्द मेरेबिखर - खो जाते पता नहीं किस गुमनाम इलाके मेंजो नहीं होती तुम्हारीधरती की तरह कडक - मुलायम हथेलियाँ |-----
3)बेटी के घर से लौटना---
बहुत ज़रूरी है पहुँचनासामान बाँधते बमुश्किल कहते पिताबेटी ज़िद करतीएक दिन और रुक जाओ ना पापाएक दिन
पिता के वजूद कोजैसे आसमान में चाटतीकोई सूखी खुरदरी ज़ुबानबाहर हँसते हुए कहते - कितने दिन तो हुएसोचते कब तक चलेगा यह सब कुछसदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता कोएक दिन औरऔर एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज़
वापस लौटते मेंबादल बेटी के कहे के घुमड़तेहोती बारिश आँखों से टकराती नामीभीतर कण्ठ रुक जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नाम हवा से बचतेदुनिया में सबसे कठिन है शायदबेटी के घर से लौटना |......
4)माँ पर नहीं लिख सकता कविता --
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविताअमर चिउंटियों का एक दस्तामेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता हैमाँ वहाँ हर रोज़ चुटकी - दो- चुटकी आटा डाल जाती है |
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगाघटती पीसने की आवाज़मुझे घेरने लगती हैऔर मैं बैठे - बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ |
जब कोई भी माँ छिलके उतारकरचने , मूंगफली या मटर के दानेनन्हें हथेलियों पर रख देती हैतब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं |
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिएदेह , आत्मा , आग और पानी तक के छिलके उतारेऔर मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया |
मैंने धरती पर कविता लिखी हैचंद्रमा को गिटार में बदला हैसमुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया हैसूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगामाँ पर नहीं लिख सकता कविता |
..............
प्रस्तुतकर्ता
गीता पंडित
8 comments:
शानदार और मर्मस्पर्शी रचनायें।
ek shabd me bakhan karu to bas : VAAH
सीधे हृदय पर असर करने वाले शब्दचित्र!
चन्द्रकान्त देवताले जी का हार्दिक अभिनंदन " हम और हमारी लेखनी ' ब्लॉग पर
और आभार सुंदर रचनाओं के लियें..
सादर
गीता पंडित
तुम चाहतीं तो बन जाता मैं भी चतुर दुनियादार
शामिल हो जाता कहीं भी मुखौटे खरीदती
भद्रजनों की भीड़ में
पर तुम जतन से पौंछती रहीं
पतझर और कड़वे दिनों के धब्बे
चमकातीं रहीं पत्तियां,बर्तन और
भीतर की धड़कनों के कोने - कोने
मेरा चेहरा , आँखें ,होंठ
मेरे समूचे होने का असह्य हलकापन ,
और आग की तरह दहकते शब्द मेरे
बिखर - खो जाते पता नहीं किस गुमनाम इलाके में
जो नहीं होती तुम्हारी
धरती की तरह कडक - मुलायम हथेलियाँ |
स्वच्छ , निर्मल
सहज मन की अभिव्यक्ति ...आभार..
achhi kavitayen mai dobara zaroor padhti hoon. 'tumhari hatheliyon par' abhar ki kai parte kholti hai ek purush ki ek stree ke prati.nissandeh adbhut rachna hai. punh padhne yogy. sabhar.
देवताले जी की रचनाएँ स्वयं मे विराट हैं | एक एक रचना मे जैसे एक सृष्टि समाई हुई हो |
कितनी अभूतपूर्व असमर्थता (?) है मा पर कविता न लिख पाने मेंऔर बेटी के घर से लौटने की अनिच्छा में |
भाव भीनी रचनाएँ |
प्रवीण पंडित
सहज मन की अभिव्यक्ति
http://shayaridays.blogspot.com
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