Monday, May 16, 2011

"दिल्ली के मंदिर" पुस्तक के रचयिता -डो रत्नेश त्रिपाठी-

 
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नमन स्त्री के " मातृत्व "  को   प्रतिफल है " बच्चा " - बेटा या बेटी -
अगर बेटी नहीं तो सुसंस्कृत समाज की अवधारणा पंख विहीन हो जायेगी |
" बेटी "
- सृष्टि के प्रादुर्भाव का निमित्त है -
 
इसी विषय पर "डो रत्नेश त्रिपाठी" की लेखनी ने कुछ इस तरह कहा....
 
 
 
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बेटियां !
अब आने वाले समय में
कहाँ सबकी सदियाँ हो पाएँगी
एक दुल्हन के लिए फिर
स्यंबर रचाई जायेगी ।
अभी एक दुल्हे के पीछे बाराती जाते हैं
तब दुल्हों की बारात बुलाई जायेगी
आज लोग दो शादियाँ तो कर लेतें हैं
तब बमुश्किल एक शादी हो पायेगी ॥
इन्सान जिस तरह अपनी बेटियों
को पेट में ही मार रहा है
इसे इतिहास में डायनासोरों
से तुलना की जायेगी ॥
लेकिन एक बात इसमे भी अच्छी होगी
दहेज़ के लिए जलेगा दूल्हा, फिर कोई
बेटी नहीं जिन्दा जलाई जायेगी ॥
और प्रेम विवाह का क्या कहें
एक बोर्ड लगाकर प्रेमियों से
क्वोलिफिकेसन मांगी जायेगी
योग्यतानुसार किसी को हरी झंडी तो,
किसी को वेटिंग की लिस्ट पकडाई जायेगी॥
और तलाक की बात मत सोचना
क्योंकि जिंदगी में फिर कभी
शादी नहीं हो पायेगी ॥
लोग इस विभीषिका को क्यों नहीं समझते !
समझेंगे तब जब देश में लड़कियों की
त्रासदी आ जायेगी ,
और एक पूरी पीढी बिना शादी के रह जायेगी ....
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अम्मा !
एक कहानी अजीब सी
बहुत सा सवाल लिए
और उत्तर केवल एक, केवल एक?
फिर वह कहानी क्या है? और
उन बहुत सारे प्रश्नों का एक उत्तर क्या है ?
कहानी है परिवार की, हमारे विचार की
आज के समाज के व्यवहार की
कोई किसी से खुश नहीं है
पति पत्नी से नाखुश, स्त्री पुरुष से नाखुश
बेटा बाप से, भाई भाई से, हर रिश्ता दूसरे से
समस्या! सिर्फ अपने बारे में सोचना
नए युग के अनुसार स्वयं के
अधिकारों पर स्वयं की जीवन इच्छा
सब अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर
दूसरों के प्रति लापरवाह हैं !
कारण कुछ भी हो
अहम् ब्रह्मास्मि!
सभी रिश्ते एक दूसरे के अधिकारों की होड़ में
अगड़ पिछड़ रहे हैं, सब अपने
किये की किस्त मांग रहे हैं ,
हम आधुनिकता में सबकुछ भूले बैठे
जीवन को अर्थ की कसौटी पर
व्यर्थ में तौलते जा रहे हैं,
और फिर आधुनिक युग की
अनमोल देन अधिकार व स्वयं इच्छा
का आवरण ओढ़े जा रहे हैं
ये है जीवन की कहानी , अब !
इन सबका एक उत्तर
वह कौन है? जो अधिकार नहीं मांगती
वह कौन है? जो इन्वेस्ट का फायदा नहीं मांगती
वह कौन है? जो स्वयं की इच्छा
व स्वयं ब्रह्मास्मि होते हुए
अहम् ब्रह्मास्मि नहीं कहती
वह कौन है? जो पूरी कहानी लिखती है
किन्तु पारितोषिक नहीं मांगती
वह कौन है जो सृजन की स्थली है ..
लेकिन खुद के लिए स्थान नहीं मांगती
इस कहानी और इन प्रश्नों का बस
एक जबाब है माँ -
माँ और बस माँ

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वो माँ थी !
जब सृजन हुआ तुम्हारा
नवजीवन हुआ तुम्हारा
तो इसके लिए समर्पित
कौन थी? वो माँ थी
 
 
जब पहला आहार मिला
जब पहला प्यार मिला
उसके लिए लालायित
कौन थी? वो माँ थी
 
 
जब कदम हुए संतुलित
पहले थे गिरते-पड़ते विचलित
पल-पल जिसने संभाला
वो कौन थी ? वो माँ थी
 
जब तुमको पिता ने डाटा
जब पैर में चुभा कांटा
आँचल में छिपाकर, जिसने दर्द को बांटा
वो कौन थी ? वो माँ थी
 
हर सुख में हर दुःख
में जीवन की कठिन राहों पर
गिर-गिरकर उठना सिखाया
वो कौन थी? वो माँ थी
 
हम नौजवान हो गए आज
हम बुद्धिमान हो गए आज
हमें याद रहा सबकुछ सिवाय जिसके
वो कौन थी ? वो माँ थी
 
तानो को सहा जिसने
उफ़ तक भी किया, जिसने
जिसने ममता का कर्ज भी न माँगा
वो कौन थी ? वो माँ थी
 
तुम याद करो खुद को
क्या थे अब क्या बन बैठे
जो बदली नहीं एक तृण भी
वो कौन थी ? वो माँ थी
" सिर्फ व सिर्फ माँ थी "
..........

 
 
 

" माँ "

जब पतझड़ सबकुछ लूटता है, हरियाली भय खा जाती है,
तब उर को फाड़कर धरती माँ, अपना सर्वस्व लुटाती है ।

इतना अर्पण व त्याग कहाँ कोई भी नर कर पाता है?
जब नौ महीने गर्भ में रख, माँ नवजीवन उपटाती है ।

ये माँ ही है जो हर पल , नवजीवन सृजन चलाती है,
बेटी है उसका प्रथम रूप, तुम्हे मार के लाज न आती है।

हे पुरुष तेरा अस्तित्व है क्या? हे मनुज तेरा कृतित्व है क्या?
उस माँ के आँचल में झांको , वह लघु से वटवृक्ष बनाती है।

अस्तित्व विहीन न हो जाओ , इसलिए ध्यान इतना रखना ,
जो माँ के हर रूप को पूजते हैं , दुनिया उसके यश गाती है ||
 
 
 
डॉ रत्नेश त्रिपाठी
 
 
 
गीता पंडित
 

15 comments:

गीता पंडित said...

डो. त्रिपाठी
" हम और हमारे लेखनी "

की तरफ से आपका
अभिनंदन और
आभार


सस्नेह
गीता पंडित

गीता पंडित said...

अम्मा !
एक कहानी अजीब सी
बहुत सा सवाल लिए
और उत्तर केवल एक, केवल एक?
फिर वह कहानी क्या है? और
उन बहुत सारे प्रश्नों का एक उत्तर क्या है ?

vandana gupta said...

बहुत ही सुन्दर रचनायें।

aarya said...

बहुत बहुत धन्यवाद गीता जी आपका ...जो आपने हम और हमारी लेखनी में मुझे स्थान दिया !
डॉ रत्नेश त्रिपाठी

Ravi Tiwari said...

डॉ. त्रिपाठी साब

आपकी इस लिखावट के लिए मेरी तरफ से बहुत ही शुभ कामनाये

बहुत ही सुन्दर है


रवि तिवारी

Prabhat said...

समाज और समाज के मूल्य ..... और एक भयावह उभरती परिस्थिति की ओर संकेत कि 'तब बमुश्किल एक शादी हो पायेगी ' ..... खूबसूरत कविताएं .....

Santosh Bangar said...

very nice and truly said

वीना श्रीवास्तव said...

सुंदर भाव से सजी रचनाएं...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर भाव...... सभी रचनाएँ सुंदर ...डॉ त्रिपाठी को बधाई... आपका आभार

aarya said...

वंदना जी, रवि जी, प्रभात जी, संतोष जी, वीना जी एवं गीता जी ..मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद !
डॉ रत्नेश त्रिपाठी

तरुण भारतीय said...

आपने सही लिखा है ..........इसी विषय पर मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी |..........आप देखना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

डॉ. रत्नेश त्रिपाठी जी के साहित्य से परिचित करवाने के लिए आभार!

aarya said...

मोनिका जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका |
शास्त्री जी आपका आशीर्वाद मिला ..मेरे लिए बहुत बड़ी बात है ...

तेजवानी गिरधर said...

मार्मिक रचनाएं हैं, दिल को छू गईं

praveen pandit said...

सामाजिक मूल्यों एवं हमारा उन मूल्यों के प्रति
दृष्टिकोण -- सशक्त रूप मे उभर कर आया है | डा त्रिपाठी की रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने के लिए लेखनी का आभार |