Wednesday, April 30, 2014

कुछ कवितायें ..... विमल कुमार

....
........

१)

मैंने हिटलर को तो नहीं देखा है_____

मैंने हिटलर को तो नहीं देखा है
पर उस आदमी को ज़रूर देखा है
जो मेरे शहर में इन दिनों आया हुआ है
एक अजीब वेश में
मैंने दूर से ही
उसकी चाल को देखा है,
उसकी ढाल को देखा है.

मैंने हिटलर को तो नहीं देखा है,
पर उसकी भाषा में बोलते उस आदमी को ज़रूर देखा है,
उसकी आवाज़ मैंने
सुनी है
रेडियो पर
जिस तरह एक बार हिटलर की आवज़ सुनी थी मैंने
उसके बाद ही
मैंने उस खून को ज़रुर देखा है
जो बहते हुए आया था मेरे घर तक
मैंने वो चीत्कारें सुनी थी,
वो चीख पुकार
वो लपटें वो धुआं भी देखा था.

मैंने हिटलर को तो नहीं देखा है.
पर उस आदमी को देखा है
जिसकी मूछें
जिसका हैट
किसी को दिखाई नहीं देता
आजकल

मैंने हिटलर को तो नहीं देखा है

पर उस आदमी को जरूर देखा है
जिसकी आँखों में
नफरत है उसी तरह
उसी तरह चालाकी
उसी तरह जिस तरह लोमड़ी की आँखों में होती है.
ये क्या हो गया
ये कैसा वक़्त आ गया है

मैं हिटलर को तो नहीं देखा

पर उसके समर्थकों को देखा है अपने मुल्क में
पर उनलोगो ने शायद नहीं देखा
इतिहास को बनते बिगड़ते
कितनी देर लगती है

उनलोगों ने शायद हमारे सीने के भीतर जलती
उस आग को नहीं देखा है,

जिसे देखकर हिटलर भी अकेले में
कभी कभी
चिल्लाया
करता था
और वो भीतर ही भीतर
डर भी जाया करता था.

.........




२)

इस बार हत्या करने के बाद उसने कहा-
ये हत्या नहीं है
ये तो एक जरूरी करवाई है
सत्य की रक्षा के लिए. 
जो सविधान के के दायरे में है

बलात्कार करने के बाद फिर उसने कहा- 
ये तो बलात्कार भी नहीं है
एक लोकतान्त्रिक पहल है 
स्त्री की रक्षा के किये 
और ये भी संविधान के दायरे में ही है.

६८ साल से छीनी जा रही थी हमसे रोटी
बनाया जा रहा था हमे बेरोजगार
ख़त्म किये जा रहे थे हमारे सपने
लगाई जा रही थी आग घरों में
पेट में भोंका जा रहा था तलवार

इस देश में सबकुछ हो रहा था
संविधान के दायरे में
इसलिए सड़कों पर घूम रहे थे
दलाल और तस्कर
सम्मानित किये जा रहे थे
हर समारोहों में

मस्जिद भी ढाही गयी थी
मारे गए थे कुछ लोग एक बरगद के गिरने पर
लूट लिया गया था इस देश को
संविधान के दायरे में

जब हम उठाते थे आवाज़
जब लिखते थे विरोध में कुछ
जब गाते थे कोई गीत
जब चिपकाते थे दीवारों पर इबारत

तो कहा जाता था
ये तो संविधान विरोधी करवाई है.

ये एक ऐसा युग था
बदली जा रही थी हेर चीज़ की परिभाषा
शब्द खोने लगे थे अपने अर्थ
दृश्य भी बहुत खतरनाक हो गये थे.
डरावनी हो गयी थी चैनलों पर बहसे.

अख़बार पढ़कर आने लगती थी उबकाई.

चारो तरफ बज रहे थे शंख
और ढोल
पीटे जा रहे थे नगाड़े
फूल मालाओं से लादे जा रहे थे लोग
एक अजीब नशा था चारो तरफ

एक अजीब बुखार था.हवा में फैला
आसमान में चील की तरह मडरारहे रहे थे हेलीकाप्टर.
कोने में
थर थर काप रहा रहा एक बूढा
जिसकी आँखे धंस गयी थी
गाल पिचक गये थे
हड्डियाँ भी दिखने लगी थी

कुछ लोगों ने ले रखा था
उसे अपने कब्जे में
सबसे बेबस वही था
चिल्ला रहा था
मुझे बचाओ.

क्या आपको पता था

उसी आदमी का नाम था

भारतीय लोकत्रंत .!
और वही इन दिनों सबसे अधिक खतरे में था.

……… 







३)

मिस एफ.डी.आई. मेरी जान...

शेरशाह सूरी के पुराने जर्जर किले से बोल रहा हूँ
मिस एफ.डी.आइ. मेरी जान...
वैसे ही तुम्हें पुकार रहा हूँ
जैसे कोई डूबता हुआ आदमी पुकारता है किसी को
मेरी जान बचा लो, मेरी जान एफ.डी.आई.
देखो, मैं किस तरह पैंसठ सालों से डूब रहा हूँ
एक परचम लिए हवा में
इस जहाज में हो गए हैं कितने छेद
तुम्हें पता है
अब कोई नहीं बचा सकता इसे
सिर्फ तुम्हारे सिवाय
आज की रात आजा ओ मेरी बाँहों में
कर लो अपनी साँसें गर्म
बिस्तर उतप्त

मेरी जान एफ.डी.आई.
कितने सालों से कर रहा हूँ बेसब्री से तुम्हारा इंतजार
तुम आओगी तो बदल दोगी
मेरे घर का नक्शा
तुम आओगी तो खिल जाएँगे फूल मेरे गुलशन में
तुम आओगी तो चहकने लगेगी चिड़िया
एफ.डी.आई. मेरी जान...

तुम्हारे आने से
गंगा नहीं रहेगी मैली
वह साफ हो जाएगी
हो जाएगी उज्ज्वल
रुक जाएँगी आत्महत्याएँ,
मजबूत हो जाएँगी आधारभूत सरचनाएँ
आ जाओ, अभी आ जाओ एकदम
उड़ती हुई हवा में
खुशबू की तरह

चली आ जाओ मेरी जान...
कितने रातों से बदल रहा हूँ करवटें
ठीक कर रहा हूँ चादर की सलवटें
तुम्हारे लिए
कितने कागजों पर लिखा है तुम्हारा नाम
कितने खत लिखे हैं मैंने तुम्हे अब तक
कितने किए ई मेल
एस.एम.एस.
फेसबुक पर भी छोड़ा है तुम्हारे लिए संदेश
अब और न तड़पाओ मेरी जान
मंदिरवाले भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तो बुला रहे हैं तुम्हें
निमंत्रण कार्ड भेज कर
कुछ समाजवादी भी साधे हुए हैं रहस्यमय चुप्पी
सामाजिक न्याय के झंडाबरदार की खामोशी का अर्थ नहीं छिपा किसी से
आ जाओ, मेरी जान
तुम आओगी तो हमारे चेहरे पर भी
आ जाएगी मुस्कान
कुछ उम्मीद जागेगी
इस जीवन में
एफ.डी.आई मेरी जान...

शेरशाह सूरी के पुराने किले से
पुकार रहा हूँ तुम्हें
कभी इसी किले के बुर्ज से
पुकारा था
संजय ने
अंधायुग के नाटक में
लौट आया है वह युग फिर से

मेरी जान...
इसलिए मैं पुकार रहा हूँ तुम्हें
क्योंकि अब मेरे जीवन का
परम सत्य तुम्हीं हो
अब तक मैंने भूल की
नहीं पहचानी
मैंने तुम्हारी अहमियत
कौन हो सकता है
तुमसे अधिक रूपवान
इस दुनिया में
आज की तारीख में
कौन हो सकता
तुमसे अधिक जवान
चली आओ

एफ.डी.आई. मेरी जान...
तुम आओगी
तभी आएगी
दूसरी आजादी
पहले जो आई थी
वह तो रही व्यर्थ,
अब नही रहा उसका अर्थ
नहीं थी वह तुमसे अधिक खूबसूरत
इसलिए मैं शेरशाह सूरी के पुराने किले से
पुकार रहा हूँ
तुम्हें

चली आओ मेरी जान...
जिस तरह पुकारा था
अल्काजी ने कभी
धृतराष्ट्र...!
चली आओ,

एफ.डी.आई. मेरी जान...
मेरी साँसें उखड़ रही हैं
तुम नहीं आओगी
तो मैं अब जिंदा नहीं रह पाऊँगा
घबराओ नहीं
यहाँ होती रहेगी हड़ताल
पर तुम चली आओ

मेरी जान...
उठानेवाले तो हर युग में
उठाते रहते हैं सवाल
पर तुम चली आओ
इसी इसी वक्त,
यहाँ मचा हुआ है कितना हाहाकार
मैं कर रहा हूँ
तुम्हारा
एक पागल प्रेमी की तरह
इंतजार...
मिस एफ.डी.आई. मेरी जान

...…....





प्रेषिता 
गीता पंडित 

Thursday, April 24, 2014

एक कविता 'मुसलमान' ...... देवीप्रसाद मिश्र

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"कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे"

.........




प्रेषिता 
गीता पंडित 



कृपया इसे साहित्यिक होकर पढ़ें, राजनीतिक होकर नहीं. 

Friday, April 18, 2014

कुछ कवितायें ..... हरीशचन्‍द्र पांडे

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'हिजड़े'___

ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं 
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह 
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है 

एक औरत होने के लिए कपडे की छातियां उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं 
और औरत नहीं हो पा रहे हैं 

ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं 
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ 
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं 
मर्द और औरतें इन पर हंस रहे हैं 

सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें 
ऋतू बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें 
तब भी एक अन्कुवा नहीं फूटेगा इनके 
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर 
लेकिन 
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं 
जीवन में अन्कुवाने के गीत 
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूंजें इकठ्ठा कर रहे हैं 

विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ 
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में 

नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएं हिजडों की 
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे 

मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में 
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !

……







किसान और आत्महत्या __

उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की

क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती

वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या

वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे

वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए 
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए

कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति

....... 





देवता ___

पहला पत्थर
आदमी की उदरपूर्ति में उठा

दूसरा पत्थर
आदमी द्वारा आदमी के लिए उठा

तीसरे पत्थर ने उठने से इन्कार कर दिया

आदमी ने उसे
देवता बना दिया

……




गुल्लक___

मिटटी का है
हाथ से छूटा नहीं की
                            टूटा
सबसे कमजोर निर्मिती है जो
उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण

बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है

कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं

जब मदद के सारे स्रोत हाथ खड़ा कर देते हैं
जब कर्ज़ का मतलब भद्दी ग़ाली हो जाता है
अपने-अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
जैसे दुनिया के सारे कर्ज़ इसी से पट जाएँगे

ये वही गुल्लक हैं
जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुँचती है
जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी उँगुलियाँ
जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें... ...

और अब जब छँट गए हैं संकट के बादल
वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
मन्द-मन्द मुस्कराते

किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
कितने आँवों पर तप रहे होंगे
और कितनी मिटटी गुँथी जा रही होगी उनके लिए

पर जो चीज़ बनते-बनते फूटती भी रहती है
उसकी संख्या का क्या हिसाब
किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम

मिटटी के हैं ये
हाथ से छूटे नहीं कि
                     टूटे
पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
दुनिया से मुखातिब हो कर
कि ऐ दुनिया वालो !
भले ही कच्चे हों गुल्लक
पर यह बात पक्की है
जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो
कभी भी भरभरा कर गिर सकती है ।
……


प्रेषिता 
गीता पंडित 

साभार कविता कोश से 

Monday, April 14, 2014

पुस्तक समीक्षा -बात बोलेगी ...... गीता पंडित



पुस्तक का नाम : 'बात बोलेगी…' 
विषय :     साक्षात्कार 
लेखक :     योगेन्द्र वर्मा  व्योम '
प्रकाशक :   गुंजन प्रकाशन 
                सी.130 , हिमगिरि कॉलोनी , काठ रोड मुरादाबाद ( उ. प्र. )
दूरभाष :     94128-05981 . मो.. 99273-76877
email  :    vyom70@gmail.com
मूल्य :        300 रु.


साक्षात्कार किसी व्यक्ति की अंतरंगता और विचार का ही बोध नहीं करातेवे रचनाकार की रचना प्रक्रिया तथा समकालीन लेखन के संदर्भ में उनकी व्यक्तिगत भावनाओं से भी परिचित कराते हैं इसीलिये आज हिंदी साहित्य की नवीनतम विधाओं में 'साक्षात्कारप्रथम श्रेणी में गिने जाते हैं ।  सद्य: प्रकाशित 'बात बोलेगी नवगीतका योगेन्द्र वर्मा 'व्योमद्वारा लिए गए साक्षात्कारों का एक ऐसा संकलन है जिसमें हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों से परिचित होने का सुअवसर मिलता है । उनकी अंतरयात्रा का सहयात्री बनना रोचक लगता है । सबसे मज़ेदार बात यह है कि पाठक को गद्य की नीरसता का भान नहीं होता बल्कि अंत तक पढ़े जाने की मांग करता है जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ जाती है । 
'बात बोलेगी ' - योगेन्द्र वर्मा 'व्योमकी यह पुस्तक केवल साक्षात्कारों का पुलिंदा नहीं है। यह रचनाकारों के साथ हुई आत्मीय बातचीत द्वारा दर्शाये गए वो पहलू हैं जिनसे पाठकवर्ग हमेशा अनभिज्ञ रहता है । ये साक्षात्कार गीत , नवगीत , ग़ज़ल पर लिए गए वो दस्तावेज़ हैं जो समय की धरोहर हैं | पाठकों के लिये लाभप्रद व अध्ययन-कर्ताओं के लिये विशेष उपयोगी और सहायक साबित हो सकते हैं । गद्य होते समय में लय ताल सुर की बात करते हैं  , सरगम के उस देश की बात करते हैं जो जीवन के हर छोर पर साथ चलती है नवगीत बनकर ग़ज़ल बनकर  स्मरण कराते हैं उस परम्परा का उस गीत साधना का जो साहित्य में निरंतर बदलती ,दम तोड़ती व्यवस्थाओं के मध्य वैदिक काल से वर्त्तमान तक अपने किसी न किसी रूप में विद्यमान है ,  और जीवित है । 
इस संकलन में लेखक ने नये पुराने १५ गीत नवगीतकारों तथा ग़ज़लकारों के साक्षात्कार शामिल किये हैं जो उस समय की सामाजिकसाहित्यिक गतिविधियों का सहज रूप से परिचय कराते हैं। कविता और गीत कीसहयात्रा में गीत की टूटन बिखरन विसर्जन से लेकर नवगीत की मंगलमयी यात्रा के सहगामी बनते हैं | छायावादी कहकर गीत को नकार देने वाले रहस्यों से पर्दा उठाते हैं | गीत नवगीत के अंतर को बड़ी बौद्धिकता से दर्शाते हैं । 
लगभग साठ के दशक के पश्चात जब काव्य में अस्वीकार और आक्रोश के स्वर अपनी तीव्रतम स्थिति में थे तब नये प्रतीक नये बिम्ब नई कहन सहज और सरल भाषा के साथ कुछ स्वर उभरने लगे  | बस यही नवगीत का ऊषाकाल था । डॉ. शिवबहादुर भदौरिया छायावाद और प्रयोगात्मक समय के रचनाकार हैं जिनसे इस पुस्तक का प्रारम्भ होता है । अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि इन साक्षात्कारों के माध्यम से योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'का उद्देश्य काव्यात्मक प्रक्रिया के साथ-साथ युग का बोध कराना भी है ।  
वरिष्ठ साहित्यकार श्री देवेन्द्र शर्मा इंद्र ' के अनुसार सृजनकर्म वाकिंग स्टिक है , बैसाखी नहीं । वह बखूबी अपने साक्षात्कार में गीत नवगीत के अंतर को स्पष्ट करते हैं। शंभूनाथ  सिंह के गीत की एक बानगी आप भी देखिये जो एक श्रेष्ठ किन्तु परंपरागत नवगीत है  ----
 समय  की शिला पर मधुर चित्र कितने 
किसी ने बनाये किसी ने मिटाये 
इसके विरुद्ध अब इस नवगीत को भी पढ़िए जो अपने समय का एक श्रेष्ठ नवगीत है -----
 पुरवैया  धीरे बहो
मन का आकाश उड़ा जा रहा है 
गीत नवगीत का यह अंतर भ्रम फैलाने वाली उस सोच पर कुठाराघात करता है जो नवगीत को छायावादी कहकर उसके रास्ते की रुकावट बनती हैं और नवगीत को समकालीन साहित्य से अलग थलग करती है , यह कहकर कि नवगीत सामाजिक सरोकारों की बात नहीं करता । 
डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरियाब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग ' , देवेन्द्र शर्मा ' इंद्र ' , सत्यनारायण अवधबिहारी श्रीवास्तव शचीन्द्र भटनागर डॉ माहेश्वर तिवारी मधुकर अष्ठाना , मयंक श्रीवास्तव डॉ. कुँवर बेचैन , ज़हीर क़ुरैशी डॉ ओमप्रकाश सिंह डॉ राजेंद्र गौतम आनंदकुमार गौरव ' , डॉ कृष्णकुमार नाज़ '  इन १५ रचनाकारों के साक्षात्कार का यह अद्वितीय बगीचा है जिसमें अपनी-अपनी  मौलिकता के रंग बिखरते हुए भी सब एक ही धरातल पर खिलकर अपनी खुशबु फैला रहे हैं ।
डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया कहते हैं कि नवगीत चर्चा के केंद्र में आ चुका है । नई पीढ़ी गीत नवगीत लेखन में सजगता और निष्ठा से प्रवृत है इसलिये गीत नवगीत का भविष्य पूर्णतया उज्ज्वल और मांगलिक बनारहेगा। डॉ राजेंद्र गौतम नई पीढ़ी की बात करते हुए स्वीकारते हैं कि नई पीढ़ी के सामने बड़ी चुनौतियां हैं । 
ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग के अनुसार   गीत कविता के रस कलश होते हैं । गीत को लेकर एक ऐसी लामबंदी सामने है जो प्रसाद तुलसी तक को विवरण में नहीं लाती । विवाद हमेशा अहितकर होता है | इस धड़ेबंदी में गीत का नुकसान अवश्य हुआ है , पर गीत आज भी है और आगे भी रहेगा । 
दुरूह कहकर गीत को नकार दिया जाता है | ऐसे में अपने साक्षात्कार में गीतकार सत्यनारायण स्पष्ट करते हैं कि दुरुहता गीत की प्रकृति नहीं है । भूख और जहालत की ओर बढ़ रही ज़िंदगी को रचना के धरातल पर झेलने का माद्दा आज के नवगीतकारों में है । ----
सपने आने वाले कल के
टूट टूटकर होंगे पूरे 
आज भले अधबनेअधूरे 
नाम पते में उथल - पुथल के '
नवगीत की भाषा आम बोलचाल की भाषा हैवह आम जीवन को चित्रित करता है , जहाँ देशज शब्दों का बहुतायत में प्रयोग होता है |  इसलिये आज दुरूह कहकर या जन विरोधी कहकर नवगीत को प्रताड़ित करने वाले कविता के सिरमौरों को समझना होगा कि नवगीत भी उतना ही समकालीन है जितना आज की कविता । डॉ ओमप्रकाश सिंह सामाजिक सरोकारों की बात करते हुए बताते हैं कि नवगीत सामाजिक सरोकार के केंद्र में है । 
अवधबिहारी श्रीवास्तव मानते हैं कि कविता की सब संतानों का योग एक ही है । ' शांतिकुंज पत्रिका से जुड़े  हुए शचीन्द्र भटनागर नए-नए  प्रयोगों के नाम पर स्वीकार करते हैं कि प्रयोग के नाम पर प्रयोग नहीं होने चाहियें । अतिवाद कभी भी स्वीकार्य नहीं होता है । उनकी एक उर्दू बहर की हिंदी ग़ज़ल के अंश आप भी देखिये ----
दोस्त दुनिया में हम आये हैं किसलिये सोचें 
इस ज़माने के लिये काम क्या किए सोचें 
खुद जलें सबके घर-आँगन का अंधेरा काटें 
क्यों न बन जाएँ इस तरह के हम दिए सोचें ॥ 
डॉ. माहेश्वर तिवारी प्रयोगशीलता का स्वागत करते हैं जबकि आनंदकुमार गौरव कहते हैं कि प्रयोग के नाम पर खिलवाड़ क्यों । मधुकर अष्ठाना का मानना है कि गीत विधा नहीं परम्परा है । मयंक श्रीवास्तव कविता लेखन को कला मानते हैं । डॉ. कुँवर बेचैन का ये दृढ विश्वास है कि गीत कभी मर ही नहीं सकता । छायावाद के पश्चात काव्य में आये परिवर्त्तनों और उनके कारणों पर उन्होंने विशेष रूप से प्रकाश डाला है । 
ऐसा नहीं कि केवल नवगीतकारों को ही योगेन्द्र वर्मा 'व्योमने महत्वपूर्ण माना है । ग़ज़ल विधा को भी समान रूप से इस संकलन में शामिल किया है | ज़हीर क़ुरैशी ,जो गीतकार और ग़ज़लकार दोनों हैं , कहते हैं कि हिंदी ग़ज़ल भी गीति काव्य ही है । उन्होंने ग़ज़ल विधा पर विशेष प्रकाश डाला है जो किसी भी पाठक के लियें लाभप्रद हो सकता है ।  डॉ कृष्णकुमार नाज़ '  कहते हैं कि ग़ज़ल नई विधा नहीं है और वर्त्तमान ग़ज़ल सरोकारों का आईना है। 
अंत में अंतिम श्वासें लेती हुई कविता में जीवन की वापसी तभी सम्भव है जब उसे जीवन चक्र से जोड़ा जाए। लय जीवन का अभिन्न अंग है।  लोकगीत आज भी ग्राम्य परिवेश को व्यक्त करता है । हर अभाव से ग्रस्त होते हुए भी गीत की मधुर ताल पर थिरकते मज़दूर के पाँव उसे पलभर के लिये ही सही ,  सुक़ून से जीने का अवसर तो देते ही  हैं ।  

 'बात बोलेगी'  यह संकलन विशेष रूप से आज पढ़ा जाना चाहिए,  जिससे गीत नवगीत के विषय में तथाकथित मान्यताएं दुरुस्त हो सकें और नवगीतकार भी साहित्य की मुख्यधारा से जुड़कर समीक्षकों की दृष्टि का केंद्र बन सकें   
यह बहुत ही श्रमसाध्य कार्य था जिसका लेखक ने सफलता पूर्वक निर्वहन किया है | साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योमनिश्चय ही बधाई के पात्र हैं ।  

अशेष शुभ कामनाएँ ...... 
गीता पंडित 
( नवगीतकार )
सम्पादक 'शलभ प्रकाशन 
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