Thursday, August 29, 2013

कुछ कविताएँ .......केदारनाथ सिंह

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मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।
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मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़'
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी'

'आदमी' 'आदमी' – मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।
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नये दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का

सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो!

बहुत से मनहूस पन्नों में
इसे भी कहीँ रख दूंगा
और जब-जब हवा आकर
उड़ा जायेगी अचानक बन्द पन्नों को
कहीं भीतर
मोरपंखी का तरह रक्खे हुए उस नाम को
हर बार पढ़ लूंगा।
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इस शहर में वसंत
अचानक आता है     
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर 
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में 
अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्‍थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
आग के स्‍थंभ
और पानी के स्‍थंभ
धुऍं के 
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
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माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा 
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस|
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प्रेषिका 
गीता पंडित 

(साभार कविता कोश से)



Monday, August 26, 2013

कुछ कविताएँ ..... सौरभ अनंत

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नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका कौमार्य

नदी का प्रस्फुटन उसके प्रेम का प्रस्फुटन होता है

नीला रंग नदी का रंग नहीं
वो आसमान का पागलपन है, नदी के प्रति

संगीत नदी का अंतर्मन है
जो मछली कहलाता है

सूर्य शान्ति की ख़ोज में निकला एक साधू
सूर्यास्त उसका समर्पण

नदी के अपने विद्रोह हैं जड़ों के प्रति
जो नदी के मोड़ कहलाते हैं

नदी का पार्दर्शिपन
आत्मा है नदी की

चंद्रमा स्वयं का विसर्जन करता है
नदी की प्रेम यात्रा में
जो स्वप्न कहलाता है

नदी की धाराएँ, उसकी प्रार्थनाएं हैं
और उनसे उद्घटित ध्वनियाँ
मंत्रोच्चारण

गहरे तल में लुड़कते पत्थर
नदी के सहयात्री हैं
समाधि की ओर

धरती का हरापन
नदी से मिले संस्कार हैं

नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका अल्हड़पन
नदी बहती है
प्रस्फुटन को अपनी देह में समेटे

बहाव
नदी की उत्सुक तपस्या है
अपने प्रेम के प्रति

नदी अकेली नहीं बहती
उसके साथ बहता है
दुनिया का समूचा उतावलापन

नदी का बहना, नदी का प्रेम है

वो कभी अकेली नहीं बहती
समुद्र की ओर..
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शाम 
इक बात बताओ

रंग सारे
कैसे पहन लेती हो तुम
एक साथ, एक ही लिबास में 

ख़ुशबू सारे फूलों की
कैसे महका देती हो तुम
एक साथ, एक ही गहरी साँस में

गीत सारे पंछियों के
कैसे गुनगुना देती हो तुम
एक साथ, एक ही मुस्कुराहट में

शाम
मिलकर मुझसे
जब पुकारती हो मुझे "सुनो"
प्रेम सारी दुनिया का
कैसे समेट लेती हो तुम एक साथ,
एक ही शब्द में..

बताओ न
बताओ तो !
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अकेला पहाड़,
कभी पहाड़ नहीं होता

जब तक नहीं बहती उस पर
अपना अधिकार जताती,
कोई उन्मादिनि नदी..
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मैं खोल देना चाहता हूँ
अपना रोम-रोम,
अपनी त्वचा, मांस..
अपनी हड्डी की एक-एक मोटी परत 
और निकल जाना चाहता हूँ बाहर..

निकल जाना चाहता हूँ यात्रा पर..
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 प्रेषिका 
गीता पंडित