Monday, January 28, 2013

कुछ कवितायें ... किरण अग्रवाल

....
...........
1
ख़ानाबदोश औरत
अपनी काली, गहरी पलकों से
ताकती है क्षितिज के उस पार

सपना जिसकी आँखों में डूबकर
ख़ानाबदोश हो जाता है
उसकी ही तरह
समय
जो लम्बे-लम्बे डग भरता
नापता है ब्रह्मांड को
...
समय
जिसकी नाक के नथुनों से
निकलता रहता है धुआँ
जिसके पाँवों की थाप से
थर्राती है धरती

दिन
जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकर
भूल जाता है अक्सर रास्ता
औरत उसके दिल की धडकन है
रूक जाए
तो रूक जाएगा समय

और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहीं
चलती रहती है निरन्तर ख़ानाबदोश औरत
अपने काफ़िले के साथ
पडाव-दर-पडाव

बेटी — पत्नी — माँ....
वह खोदती है कोयला
वह चीरती है लकडी
वह काटती है पहाड
वह थापती है गोयठा
वह बनाती है रोटी
वह बनाती है घर
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता

ख़ानाबदोश औरत
आसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती है
धरती की ओर ताके तो मदर टेरेसा
हुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानी
पैरों को झनकाए तो ईजाडोरा

ख़ानाबदोश औरत
विज्ञान को खगालती है तो
जनमती है मैडम क्यूरी
क़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेता
प्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशी
भक्ति में अनुसुइय्या और मीरां

वह जन्म देती है पुरूष को
पुरूष जो उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है
पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता है
फिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगे
ख़ानाबदोश औरत
क्योंकि वह समय के दिल की धडकन है
अगर वह रूक जाए
तो रूक जाएगी
..........
2.
दूसरे दिन
अख़बार के मुखपृष्ठ पर
था सनसनीखेज समाचार
सूरज लापता हो गया

कद : असंख्य किरणों फुट
रंग : सोने-सा तपता हुआ
उम्र : कोई नहीं जानता

अन्तिम बार उसे
बापू की समाधि पर देखा गया था

उस दिन हो रही थी लगातार बरसात
आकाश था बादलों से आच्छन्न
कहीं नहीं था सूरज का नामोनिशान
..........





3.
और तब
शुरू हुई खोज
सूरज की

आसमान से लेकर
धरती तक
प्रधानमंत्री के बँगले से
झुग्गी-झोंपड़ी तक
सारे क़ब्रिस्तानों
और समाधियों को
छान डाला गया

अन्त में
सूरज एक अँधेरे गोदाम में मिला
आर०डी०एक्स० के ढेर पर सोया हुआ
..........




4.
लोग थे हैरान / परेशान
धरती होती जा रही थी
जल-निमग्न

जमुना कसमसा रही थी
अपनी परिधि में
इच्छाएँ थीं
भ्रष्टाचार के पुल-सी भग्न
प्रेयसी की मांसल देह
खो चुकी थी आज अपनी आँच

बन्द
कमरों में भी
लोग काँप रहे थे
.........




5.
एक भयभीत ख़ुशी
चूम गई
लोगों के कुम्हलाए चेहरों को
वे समवेत चिल्लाए—
'सूरज भाई उठो
अपने घर चलो
देखो तुम्हारे बिना हमारी क्या दशा हो गई'
'हू डेयर्ड टु वेक मी अप फ़्रॉम माई ड्रीम ?'
सूरज ने खोल दीं अपनी रक्तिम आँखें
'लेट मी हैव वन ए०के०-42 राइफ़ल ऐट लीस्ट'
वह मुस्कराया
और आसमान पर चढ़ आया
........
गीता पंडित 
साभार
(कविता कोश)

Friday, January 18, 2013

नदी : कुछ कवितायेँ .... सतीश जायसवाल

...
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नदी : कुछ कवितायेँ

१. शायद नदी___

सपने में दिखा
नदी में पानी
नीद में अपनी
सचमुच की नदी,
जैसे नींद में नदी
सपने में पानी
आज मेंने सुनी
एक आवाज सचमुच सी
छलकती छल-छल
जैसे नदी में जल ,
शायद लौट आयी है
सचमुच में नदी
खिल-खिल हंसी
जैसे किसी पानी को छू कर
आती हुयी हवा
शायद नदी
सचमुच का सपना |
......


२. धूप की नदी
एक नदी
धूप की
रहे कहीं भी
रात में
सुबह अपनी होती है
फिर भी
धूप की नदी ,
रास्ता नहीं भटकती
धूप की नदी,
पर्वत पार कर के
कभी पगडंडियों से होकर
आती है
मिलती है
सरोवर किनारे
ठहरी हुयी
दोपहर में
धूप की नदी,
ना पानी
ना रेत
एक छाया धूप की नदी,
मुट्ठी में पसीजता
कागज़ का एक टुकड़ा
चुपचाप
धूप की नदी ,
धूप में
नदी में
किताब के पन्नों में
पनपती
कोई प्रेम कहानी |
.......


३. प्रार्थना
कविता एक नदी है
सूर्य मन्त्र का पाठ करती हुयी
सोने की हो जाती है
नदी
जब कविता-पाठ करता है
सूर्य ,
धूप में चमक रही है
सोने की नदी,
आओ बैठें यहीं
ठंडी-ठंडी छांव में
देवदारु के हरे तने के साथ
सर टिकाये
आँखें मूदे
देखें सपना,
सपने में उतरती
कितनी-कितनी जल-परियां ,
कविता पाठ करती नदी
नदी में अवतरित होता
जल का आचमन करता
सुबह-सुबह का सूर्य ,
देवदारु पर
देवताओं का वास है,
मुझे वृक्ष हो जाने दो
ओ देवता
मुझे कविता-पाठ करने दो
नदी को कविता हो जाने दो |
........


४. इन्द्रावती
बिलकुल वैसे ही
जैसे रात भर भीगे
साल के पुराने पेड के मजबूत तने के साथ
चिपकी हुयी
किसी जंगली लड़की की
काली चमकीली देह का
अंधेरे में उपकना
उसी अंधेरे में खिलना
भीगी हुयी पंखुड़ियों वाले
एक स्सफेद फूल का
रात के आखीर प्रहर का
वह
उत्कट प्रेम का सपना
आदिम प्रणय के
सनसनाते आवेग से
बेसुध
सफ़ेद कोहरे में लिपटी हुयी
इन्द्रावती की अलसाई देह
अभी तक
अवाक
कई बार
हुआ होगा
लकड़ी वाला पुराना पुल भी
और वहाँ अभी तक
पडा हुआ होगा
बादल का गीला टुकड़ा
इन्द्रावती की बेसुध देह पर
झील-मिल हुआ होगा
कितनी बार
लकड़ी वाला पुराना पुल
सांस रोक कर
उतरा होगा कितनी बार
नदी के जल में चुपचाप
वह सब सुरक्षित होगा
नदी की स्मृतियों में
पड़ रही होगी
लकड़ी वाले पुराने पुल की छाया भी
अभी तक |
.........


५, मायापुर ;में गंगा

फिर भी अभी
जब बाकी था
व्यतीत रात्रि का अंधेरापन
और खिंचे हुए सन्नाटे को
गझिन बना रही थीं
धान के पके खेतों से
उठ रही भारी साँसें ,
लौटती बरसात के
उस अंधियारे भोरहरे में
ठीक सामने थी
उतान पडी पवित्र गंगा ,
पवित्र नदी को
अपवित्र कर लौट गए
अभी थोड़ी देर पहले के
बादलों का सफ़ेद गीलापन
चमक रहा था
वैसी की वैसी उतान पडी
पवित्र नदी के पेट पर
अभी तक ,
भोरहरे की उस बरसात में
भीगी-भीगी नदी
तप रही थी
अतृप्ति में फिर भी
जैसे ज्वर में
तप रही
मंद्कामा
कोई नायिका देह अभी तक
नदी अब सिर्फ नदी थी
ना पवित्र
ना अपवित्र
एक भरपूर देह थी नदी,
अभी नींद-उनींद में था
गौरांग महाप्रभु का गाँव था
सामने था
और रोशनियों में जगमग
कृष्ण-चैतन्य का मंदिर
मूर्छित
भोरहरे के महा-रास में
मूर्छना में महाप्रभु के भक्तजन
मूर्छना में महाचेतना
देह तजती देहाकृतियाँ
देह से अदेह होती नदी भी
बेसुध अभी तक ,
नदी को गीला कर के
लौट चुके
लौटती बरसात के सफ़ेद बादल
अभी थोड़ी देर पहले के
फिर से लौट रहे थे
वापस
उसी डेल्टा-तट पर
पता नहीं कितनी
कितनी अतृप्त तृष्णाएं
अपने भीतर समोए हुए ,
स्नायुओं में ऐंठती
असहनीय दाहक्ताओं से आतप्त
पूरी की पूरी नदी-देह
उठी जा रही थी
जैसे एडियाँ रगड़ती हुयी
अपने बिस्तरे पर
वही मंद्कमा नायिका ,
अनेक जल-धाराओं में
विसर्जित हो रही थी
एक नदी-देह
अनेक दाहक वासनाएं
जल-धाराओं पर पड़ रही थीं
एक तपती हुयी देह की
अनेक तृष्ण-छायाएं
अतृप्त बादलों की ,
शक्तिपात के सनसनाते आवेग में
मूर्छित हुयी जा रही थी
वेगमयी उस बरसात में भीगती
बेबस नदी-देह
निर्वसन नाच रही थी हवा
बिना किसी लोक-लाज के ,
दिव्य महारास के उस भोरहरे में
देह-मुक्ति का वह समूह-गान
मूर्छना की गति पकड़ कर
थिरक रही थीं
देह से अदेह होती हुयी
अनेक पारदर्शी आकृतियाँ
मायापुर की मायाविनी बरसात में
उड़ रहे थे अनेक देह-वस्त्र आकाश में
मुक्त होकर देह-तृष्णाओं से |
.........


६. इच्छामती नदी-- (एक)
क्वांर महीने के चढ़ते दिनों की
बकाया रात के मायावी समय में
अभी
जब
सीझ रही होंगी धान की बालियाँ
नदी के किनारों तक उतर आये
सुनहरे खेतों में
और
नदी पर पड़ रही होगी
लाल रंग वाले लोहे के पुराने पुल की छाया
निस्पंद
तभी
उस अंधियारे भोरहरे में
मछुआरे ने
समेटा होगा अपना जाल
खोली होगी मछलियों वाली अपनी नौका
उतरती बारिश की
इस पीली धूप में से हो कर
निकल रहा है
एक सफ़ेद-सपाट रास्ता
धुंवा-धुंवा
आँखों को धोखा देता हुआ
उस तरफ होगा
कोई बहुत बड़ा बाज़ार
वहाँ पहुंचते होंगे
मछलियों के सौदागर
मालूम नहीं कहाँ-कहाँ से आये हुए
उसी बाज़ार में पहुँचने के लिये
निकला होगा मछुआरा भी
नदी को सुनाता भटियाली गान
मछलियों के साथ
जाल में समेट कर नदी का मन भी
अब सहेज कर
उसी भटियाली गान की धुन
अपने अपहृत मन में
नदी देख रही है रास्ता
मछुआरे के उधर से लौटने का |
.....


७. इच्छामती नदी --(दो)
धूप में
ध्यान कर रहा है
पुल,
पुल के ध्यान में
उतर रही है
नदी,
धूप में ध्यान
ध्यान में नदी
नदी एक देह-गंध
जल में घुल रही है
नदी
व्याप रही है
देह में
बोध में,
एक सघन देह-बोध है
नदी
नदी में घुल रही है
देह,
अगोचर
किसी भोर में
अगम
इच्छाओं के तट पर
उतरी होगी
इंद्र-लोक से कोई अप्सरा
मत्स्यगंधा,
जल में घुल रही है
वही देह-गंध
धूप में
ध्यान में,
देह धारण कर रही है
एक नदी
इच्छामती
एक मत्स्यगंधा नदी |
........


८. एक प्राचीन नदी सिन्धु : तीन कवितायें --
 अरोड़ घाटी में नदी के निशान
कितना दारुण और दुस्सह
होता है
एक नदी का विलुप्त हो जाना
कहीं से
और कहीं जा बसना
उस नदी का,
जानना हो
तो यहाँ आओ
इस अरोड़ घाटी में
देखो और जानो
पीला पड़ चुका एक चेहरा
और सूख चुकी
पूरी की पूरी एक नदी की धारा ,
ऐसे कैसे हो सकता है
इतना निस्तब्ध
और जन-विहीन
किसी समृद्ध समय का
समृद्ध जीवन
इतना उदास
और इतनी अकेली
एक घाटी
कभी यानाः बहती थी
एक वेद-वर्णित नदी.
जैसे आकाश के आईने में
उतराता
जल-कणों से भीगा -भीगा
वह चेहरा
तुरंत अभी नहा कर निकली
रूपवती का ,
बांक पर बांक लेती
कभी थी
यहाँ एक देहमयी नदी की
लहराती काया,
पीले पहाड़ों के बीच
सफ़ेद धारियों में बची है
जैसे स्मृतियों पर पड़ रही है
हरे-भरे दिनों की गझिन छाया
अभी तक गीली है ,
एकबारगी नहीं सूख गया होगा
किसी पुराने नक़्शे की तरह
खींचा हुआ
सुनसान और कृशकाय
एक समृद्ध और
हरे-भरे दिनों का समय ,
मालूम नहीं कितना
सैकड़ों या हजारों बरस पुराना
यह रास्ता
एक वेद -वर्णित नदी का,
यहाँ होती होगी
खेती
सुनहरे दानों वाले
चमकीले गंदुम की ,
गहरी
इस नदी के तट पर
उतरते होंगे
दूर देशों से आने वाले
जहाजी
सौदागर भी
लम्बे रेशों वाली कपास के लिये
जैसे सूदूर नील नदी तट पर
होने वाली वह फसल,
आदमी ने यहीं जाना होगा
नदी-जल से
खेतों में उपजाना
अनाज का दाना
और कपास के फूल
पहले-पहल ,
जरूर ही
जान चुकी होगी
नील नदी की रानी
क्लिओपात्रा भी
उसकी अपनी नदी जितनी पुरानी
यह नदी
सिन्धु भी
और उतनी ही पुतानी
सिन्धु की इतिहास-गाथा भी ,
ऐसे ही सब कुछ
नहीं थम गया होगा
ऐसे ही नाता
नहीं तोड़ा होगा
यहाँ से
इतने दिनों पुराना
इतनी पुरानी नदी ने
यहाँ रहने वालों से
और लोगों से बसी हुयी
बस्ती से ,
कोई तो बात
हुयी होगी
आकाश टूटा होगा
या घाटी हिली होगी ,
जहां था नदी का किनारा
हिलोरें लेता
गहरा ,
एक खुश हाल बस्ती
और दूर देशों से आने वाले
सौदागरों के लिये
एक मशहूर बाज़ार
अब धूप में सूखती
एक उजाड़ बस्ती,
कहाँ गए
एक बसी हुयी बस्ती के घर
कहाँ गए होंगे
उन घरों में रहने वाले लोग,
अब कहाँ आते होंगे
दूर देशों के सौदागर
कहाँ जाते होंगे
उस मशहूर बाज़ार की तलाश में |
........


(दो) नन्हे लामा की आँखों में नदी___

गैरिक वस्त्रों में सजा-धजा
जैसे कोई खिलौना ,
कुतूहल से भरा-भरा
देख रहा है
पहाड़ से
नदी को
नदी पर हो रही शाम को ,
बहुत दूर से
चल कर आ रहा
दिन भर का थका-मांदा
सूर्य
धीरे से उतरा
नदी में,
वैसा ही हो गया
रंग
नदी के जल का
गैरिक
जैसा
नन्हे लामा के वस्त्रों का रंग,
वैसे ही
शाम का सूर्य भी
गैरिक वस्त्रों में सज गया
जैसे कोई खिलौना ,
कुतूहल से भरा-भरा
नन्हा लामा
देख रहा है
शाम का दिव्य खेल
खिलौना खेल रही है नदी |
........



(तीन). लेह में सिन्धु___

जब कोई नहीं था
वहां आस-पास
आतुर प्रतीक्षा के सिवाय
प्रगल्भा नदी
ढूढ़ रही थी
एक गिपन एकांत ,
अंधेरे के गहन तल में
स्पंदित हो रहा था
वही प्रतीक्षित सुख ,
अलौकिक था
वह सब कुछ ,
एक प्रगल्भा नदी का
इस तरह रूपान्तरण
एक आतुरा नायिका में
और आरक्त हो जाना
निर्लज्ज दाह से ,
ऐसे में
निर्वस्त्र
सूर्य का उतरना
नदी -जल में ,
इच्छित अन्धियार के
एकांत तल में
शाम का बेबस पड़ जाना ,
उन दिव्य क्षणों में
कोई नहीं था
वहाँ आस-पास
खिँची हुयी साँसों के सिवाय ,
घोर आसक्ति की तरह
तने हुए
तार पर
देह साधना कर रही थी हवा |
..........




प्रेषिता
गीता पंडित 












Monday, January 14, 2013

कुछ कवितायें ..... नरेश सक्सेना

...
.....


औकात __


औकात वे पत्थरों को पहनाते हैं लंगोट
पौधों को 
चुनरी और घाघरा पहनाते हैं

वनों, पर्वतों और आकाश की 
नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से 
अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं

देवी-देवताओं को 
पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मन्दिरों का
उद्धार करके 
उन्हें वातानुकूलित करवाते हैं

इस तरह वे 
ईश्वर को 
उसकी औकात बताते हैं ।
........







 गिरना __


चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं। मनुष्यों के गिरने के 
कोई नियम नहीं होते। 
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं

बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो 
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो 
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी 
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो 
अर्थों में गिरो 

यही सोच कर गिरा भीतर 
कि औसत क़द का मैं 
साढ़े पाँच फ़ीट से ज्यादा क्या गिरूंगा 
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह 
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा 

चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ 
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहाँ, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़री सीढ़ी 
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है 
इटली के लोगो,
अरस्त्‌ का कथन है कि, भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे 
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को 
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे, लोहे के भारी गोलों 
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों और 
कपड़ों की कतरनों को 
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा,
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया

चार सौ बरस बाद 
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप 
कि चीज़ों के गिरने के नियम 
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए है

और लोग 
हर कद और हर वज़न के लोग 
खाये पिए और अघाए लोग 
हम लोग और तुम लोग
एक साथ 
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं

इसीलिए कहता हूँ कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़ 
चीज़ों का गिरना 
और गिरो

गिरो जैसे गिरती है बर्फ़ 
ऊँची चोटियों पर 
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ 

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह 
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो 
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए 
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह 
किसी के दुख में 
गेंद की तरह गिरो 
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत 
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में 
किसी का घर बनाते हुए

गिरो जलप्रपात की तरह 
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए 
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो

गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए 

लेकिन रुको 
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया 
तो गिरो, उससे छूटे तीर की तरह
बंजर ज़मीन को 
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए 
बारिश की तरह गिरो, सूखी धरती पर 
पके हुए फल की तरह 
धरती को अपने बीज सौंपते हुए 
गिरो 

गिर गए बाल 
दाँत गिर गए 
गिर गई नज़र और 
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमो ग्लोबीन की 

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश 
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद 
एकबारगी 
तय करो अपना गिरना 
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त 
और गिरो किसी दुश्मन पर 

गाज की तरह गिरो 
उल्कापात की तरह गिरो 
वज्रपात की तरह गिरो 
मैं कहता हूँ 
गिरो
........




तुम वही मन हो कि कोई दुसरे हो __

कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो

गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम
गहरे धुँधलके में खड़े कितने डरे
कँपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम

किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे
जिगर पत्थर, आँख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी
सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम
कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था
आज भिक्षा भा रही है
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो ।
.......




घास ___

बस्ती वीरानों पर यकसाँ फैल रही है घास
उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास

कहाँ गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास

सारी दुनिया को था जिनके कब्ज़े का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी क़दमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास 
........


प्रेषिता 
गीता पंडित 

Monday, January 7, 2013

ओ हारे हुए पुरुष .... चेतन क्रांति



....
........


सुन्दर लड़की
जो हो गयी खड़ी मचान पर
पहनकर झीने कपड़े
वह तुमको क्या कहना चाहती है!

क्या यह
कि तुम अपनी सूखी हडिडयों के खंजर
घोंप दो उसके भीतर एक साथ दस-दस
कि ओ, अपनी ताकत तले चरमराए
ओ, हारे हुए पुरुष
आ, और मेरी ऊर्जा का अघ्र्य दे
अपनी दम तोड़ती शिराओं को

नहीं, यह नहीं
मचान पर वहाँ अपनी देह में व्यवस्थित
खड़ी थामे हुए चौकस
अपने घोड़ों को सन्नद्ध सेना की तरह
वह कह रही है
कि लो, यह रही मैं पूरी की पूरी
और वह रहा तू

अब इस फासले को इंसान होकर तय कर।

अब न बीच में समाज है
जो मेरी मुश्कें बाँधकर
ले जाए डाल दे मुझे तेरे बिछौने पर
न धर्म
जो कील दे मेरी जीभ
भर दे मेरे कानों में sanskrit का शीशा

मैं हूँ अब और तू है
ये रहा मेरा जिस्म हाड़ और मांस का
जीवित
और वह रहा तेरा
लोहे का और सोने का। पीब का, मवाद का।

सदियों से जिन्हें तू देखना चाहता था
ये रहे वे सब उभार, सब चढ़ाव और उतार
जिनके लिए तू इतना उड़ा, इतना डूबा, उतराया
यह रहा वह सब

अब गढ़ अपनी खाल में खुद को दुबारा
रच खुद को नए सिरे से
रचेता!

हो उतना ही आकर्षक अपनी निरवसनता में
जितनी होती है निष्कलुषता
ताकत के पंजों से रहित
जितना कमनीय होता है खरगोश

जितनी हूँ मैं
उतना हो!




प्रेषिता 
गीता पंडित